पद और सम्मान
- 1 October, 1977
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- 1 October, 1977
पद और सम्मान
पं. हरनाम शर्मा को पोता हुआ है। प्रथम पुष्प। फिर क्या कहने! शर्मा जी और मालकिन के पैर जमीन पर पड़ ही नहीं रहे हैं। अंदर हवेली में ढोलक लेकर मुहल्ले की औरतें जुट जातीं और दिनभर सोहर और मंगल गाकर आँगन को जगाए रहतीं। रात में दो-चार युवतियाँ पैरों में घुँघरू बाँध ढोलक की टेक पर झूम-झूमकर भाव बताकर नाचतीं और मालकिन से इनाम पातीं। दरवाजे की ओट से चुपचाप खड़े हो शर्मा जी भी इन नृत्यांगनाओं की मांसल देह को देखते और अपनी आँखें सेंकते। उधर मौका निकालकर उनका मनचला बेटा मुन्ना भी इन मनचलियों के नृत्य को कहीं से छिपकर देखता और उन पर रीझता। बीच-बीच में चाय-नाश्ता का भी सिलसिला चलता, सिंदूर और तेल से सुहागिनों की माँगें भरी जातीं। बाहर शर्मा जी का दरबार गुलजार रहता। सुबह से शाम तक बधाई देनेवालों का ताँता लगा रहता। इसी बीच गाँव के पवँरिया भी एक दिन जुट गए और नाच-गाकर, खूब शोर मचाकर जश्न में जो कमी रही उसे पूरा कर दिया।
नवजात शिशु की छट्ठी की तैयारी भी शर्मा जी के नाम और खानदान के अनुरूप ही होना है। पं. हरनाम शर्मा जी हमीरपुर के नामी-गिरामी वकील हैं। साल में वकालत से लाखों कमाते और जिला कोर्ट, हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट तक चक्कर लगा आते। सुबह चार बजे भोर से ही उठकर वह मुकदमों के ‘ब्रीफ’ पढ़ते और सात बजते-बजते वकीलों तथा मुवक्किलों का हुजूम जुटने लगता। नोट की गड्डियाँ उनकी मेज पर बरस पड़तीं और खून के मुकदमों में माहिर वकील साहब दस बजते-बजते अपने सब गवाहों को सफेद से काला और काला से सफेद करने की कला में पारंगत करा देते। फिर उठते और धड़फड़ नहा-धोकर, जो कुछ तैयार रहता उसे खाकर कचहरी चल देते। संध्या समय जब कचहरी से लौटते तो कुछ आराम करते, फिर चाय-नाश्ता के उपरांत सार्वजनिक जीवन में दिलचस्पी लेते। म्युनिसिपल कमिश्नर तो जिस साल गाँव से हमीरपुर आए तभी से बनते आए, मगर ज्यों-ज्यों उनकी उम्र बढ़ती गई त्यों-त्यों संगीत और कला की ओर भी उनकी रुचि बढ़ती गई।
फिर तो कोई ऐसी संध्या नहीं गुजरती जिस दिन शहर में कोई आयोजन हो और उसमें शर्मा जी न हों। किसी दिन कत्थक नृत्य का प्रोग्राम तो किसी दिन भरतनाट्यम या ओडिसी। कलकत्ते और बंबई से मशहूर गायिकाएँ या नर्तकियाँ आतीं और ऐसे आयोजनों पर हॉल के सारे टिकट शर्मा जी की दौड़-धूप से बिक जाते। ऐसे मौकों पर वह शहर के या राज्य के राजनेताओं तथा उच्च अफसरों को भी अपने एहसान में लाने से नहीं चूकते।
तो लाखों में उनकी पहुँच है और शहर के हर कोने में उनके मित्र या हिमायती भरे पड़े हैं। फिर घर में प्रथम पोते की छट्ठी हो तो किसे बुलाया जाए और किसे छोड़ा जाए–यह एक बड़ा कठिन सवाल रहा। मुन्ना बाबू, मालकिन और शर्मा जी के जूनियर वकील एक लिस्ट बनाकर उनके सामने पेश करते, हर नाम पर टीका-टिप्पणी होती, फिर हर बार दस-बीस नाम बढ़ा दिए जाते। सारा वकालतखाना आना ही है, फिर जजी और मुंसफी को आमंत्रित करना अनिवार्य ही है, जिले के हर उच्च पदाधिकारी–जिलाधीश से लेकर पुलिस के सभी अफसरान को बुलाना ही है। फिर जिस मुहल्ले से वोट लेना है, उसके प्रमुख लोगों को तथा म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियों को भी कैसे छोड़ा जाए? इतनों की लिस्ट तैयार हुई तो फिर सार्वजनिक जीवन के नेताओं को कैसे छोड़ा जाए? संगीत-समिति के पदाधिकारी तथा कला-संगम के सभी सदस्य तो कभी छूट नहीं सकते–और वे उस दिन नाच-गान का विशेष कार्यक्रम भी प्रस्तुत कर रहे हैं। तो एक भारी-भरकम लिस्ट तैयार हुई जिसे शर्मा जी ने ऊपर से नीचे तक देखकर पास किया।
अब कौन दिन छट्ठी समारोह के लिए निश्चित किया जाए–यह एक दूसरा अहम सवाल बन गया। शर्मा जी के पुत्र मुन्ना बाबू ने यह सवाल रखा कि इस अवसर पर जिलाधीश को बुलाना जरूरी है क्योंकि उन्हीं के पास मुन्ना के प्रमोशन की फाइल पड़ी है। उनकी एक लाइन से उनकी भाग्य-रेखा बदल जाएगी। शर्मा जी के सामने यह प्रश्न है कि एक तो जिलाधीश हरिजन हैं जिसे सुनते ही मालकिन भड़क जाएँगी और दूसरे वह बहुत दौरे पर रहते हैं। उनके मन मुताबिक दिन ठीक करना निहायत मुश्किल का काम है। उनसे मिलने के लिए हफ्तों पहले से ही मुलाकात की मंजूरी लेनी पड़ती है। पहला प्रश्न तो तुरत हल हो गया जिसकी उन्हें कभी कोई आशा न रही। मालकिन ने चट कहा–“इतना पढ़-लिखकर तुम भी कैसी बात करते हो? मुन्ना के जीवन का सवाल है–इतने ऊँचे ओहदे पर हैं–उनके एक पंक्ति लिख देने से मुन्ना की जिंदगी बदल जाएगी।” अब बात रही छट्ठी के दिन की। वह भी जिलाधीश से बड़ी मुश्किल से मिलकर तय कर लिया गया।
जब सब ठीक हो गया तो मालकिन ने शर्मा जी से कहा–“कुछ सुनते हो, बैंक से बारह आदमी के लिए खाने का चाँदी का सेट निकलवा लो। उस दिन जिलाधीश को खानेवाले कमरे में बड़े सम्मान के साथ कुछ और मेहमानों को लेकर तुम अपने साथ चाँदी के सेट में खिला देना। उस भेड़ियाधसान में पत्तल में उन्हें खिलाना उचित न होगा। उनके खाने का इंतजाम मैं खाने के कमरे में करा रही हूँ; और लोग शामियाने में खाएँगे।”
शर्मा जी को यह राय जँच गई। मुँह में पानी भर आया। मुन्ना के काम के साथ-साथ अपने सरकारी वकील बन जाने का भी वह सपना देखने लगे। एक पंथ दो काज।
अब शर्मा जी बाहर के प्रबंध में लग गए। यहाँ शामियाना टँगे, उस ओर दो-दो कनातें रहें। हलवाईखाने में भी एक छोलदानी लग जाए। फर्श पर खाने के लिए दरी और जाजिमें यहाँ-वहाँ लगाई जाएँगी और हाथ धोने का प्रबंध दूर रहे ताकि सब जगह पानी-पानी न हो जाए। सफाई पर वे विशेष ध्यान देते हैं। और हाँ, एक शामियाना रिजर्व रहे नृत्य और संगीत के प्रोग्राम का। वहाँ लाउडस्पीकर का भी प्रबंध रहे।
शर्मा जी के मातहत जो वकील काम करते रहे वे सभी उस दिन सुबह से ही समारोह को सफल बनाने में जुट गए। उनके कुछ मुवक्किलों ने भी काम सँभाल लिए। मुंशीखाना के सबलोग तो दौड़ ही रहे हैं। फिर शर्मा जी ने म्युनिसिपैलिटी के हेड जमादार को बुलाकर हिदायत की–“देखो, सफाई करनेवाली जो तुम्हारी टोली है वह दिनभर सफाई कर चुपचाप हमारे हाते के एक कोने में ही बैठे–हाँ, जब खाना खत्म हो जाएगा और मुंशी जी जब हाँक लगाएँगे तो उन्हें लेकर तुम आना और जूठे पत्तलों को उठवाना।” जमादार ने फौजी सलामी देते हुए झट कहा–“सरकार का जो हुक्म, मगर शाम को उन्हें कुछ चाय दे देना तो जरूरी ही है।” तो मुंशी जी ने टोका–“हूँ, चाय नहीं, तुम्हें तरमाल मिलेगा! जा-जा, एक बंडल बीड़ी दे दूँगा।”
शर्मा जी ऑफिस में आए तो मालकिन ने किवाड़ की ओट से पुकारा–“कुछ सुनते हो जी? काम की भीड़ में तुम जरूरी बातें भूल जाते हो। आने के बाद जिलाधीश महोदय को अंदर बुला लाना और उनसे बच्चे को आशीर्वाद दिला देना और दुलहन भी उनके पैर छू लेंगी।”
“मालकिन, अंदर औरतों की इतनी भीड़ होगी कि भला मैं उन्हें लेकर वहाँ कैसे आ सकूँगा? कितनी बहुएँ होंगी जो मुझसे परदा करती होंगी। जिलाधीश महोदय भी उस भीड़ में जाने से हिचकेंगे।”
“फिर तुम वही पुरानी बात पर आ गए। औरतें और बहुएँ तो बाहर आँगन में खाती रहेंगी या नाचती-गाती रहेंगी। तुम दुलहन के कमरे में उन्हें ले आना। मैं सब प्रबंध ठीक कर दूँगी। तुम परेशान न हो।”
मालकिन का मूड ठीक रखना है। शर्मा जी उनकी इस बात पर भी राजी हो गए।
साढ़े सात बजे से ही लोगों के आने का सिलसिला शुरू हो गया। जो पुरुष आते उन्हें नृत्य और संगीत वाले शामियाने में बिठाया जाता और महिलाओं को अंदर हवेली की ओर मुन्ना बाबू ले जाते। मेहमानों की खातिरदारी में शर्मा जी तथा उनके जूनियर वकील एक पैर पर खड़े हैं। सिर्फ जिलाधीश महोदय की अब प्रतीक्षा है।
अंदर तो आज मुहल्ले की नवयुवतियाँ नाच-गाकर धुमकच्चा मचाई हुई हैं। मालकिन भी खुशी से नाच रही हैं और नाचने-गाने वालियों को रुपये लुटा रही हैं। साड़ियाँ तो उन्हें पहले ही मिल गई थी। बाहर नृत्य के भाव पर राधा-माधव की प्रेम-कथा का चित्रण हो रहा है। कभी राधा की चुनरी कृष्ण के मुकुट से उलझ जाती है तो कभी कृष्ण की सुरीली बाँसुरी पर राधा थिरक-थिरककर भक्तों का मन मोह लेती है।
इसी बीच जिलाधीश महोदय पहुँच जाते हैं। सभी सतर्क हो जाते हैं। शर्मा जी उन्हें नृत्य-मंडली के सामनेवाले सोफे पर बैठाते हैं और स्वयं उनकी बगल में बैठकर नृत्य और संगीत की बारीकियों से उन्हें परिचित कराते हैं। फिर मालकिन ने जब खबर भेजवाई कि खाने के कमरे में सारा खाना परोस दिया गया है तो शर्मा जी जिलाधीश श्री दास तथा शहर के अन्य दस चुने हुए अफसरों तथा राजनेताओं को लेकर खानेवाले कमरे की ओर जाते हैं और मुन्नाबाबू अन्य मेहमानों को खाने के लिए जाजिम पर बैठाते हैं। मालकिन किवाड़ की ओट से जिलाधीश की ही थाली पर नजर रखतीं और जो कमी होती उसे अंदर से झट पूरा करवातीं।
फिर कार्यक्रम के मुताबिक जिलाधीश महोदय अंदर गए और छोटे मुन्ना तथा उसकी माँ को आशीर्वाद दिया। यह आत्मीय कार्यक्रम उन्हें सबसे अच्छा लगा और दोनों मुन्नों की उत्तरोत्तर वृद्धि की उन्होंने कामना की। शर्मा जी तथा मालकिन ने देखा कि मंजिल पर वे पहुँच गए। फिर शर्मा जी ने जिलाधीश को अन्य सज्जनों से मिलाया, नर्तक और नर्तकियों का भी उनसे परिचय कराया और पधारने के लिए धन्यवाद देते हुए उन्हें विदा किया।
इधर शामियाने में जूठे पत्तलों को उठाने के लिए म्युनिसिपैलिटी के सफाई-मजदूरों की टोलियाँ झपट पड़ीं। दिनभर के भूखे बच्चे वहीं जूठ बिन-बिनकर खाने लगे और उनकी स्त्रियाँ पत्तलों को बाँटने में छीना-झपटी करने लगीं। जब ज्यादा शोर मचता तो जमादार साहब मूँछ पर ताव देकर अपनी छड़ी घुमाने लगते।
शर्मा जी हँसते-मुस्कुराते मालकिन को उनकी व्यक्तिगत सफलता पर बधाई देने अंदर गए तो वहाँ दूसरा ही भयानक दृश्य देखकर वह सन्न हो गए। मालकिन का इतने दिनों से और इतनी बंदिशों से बनाया हुआ मूड एकदम बिगड़ गया है और चौके में से चावल-दाल निकलवाकर नाली में फेंकवा रही हैं। रणचंडी का रूप धारण कर लिया है और गालियों की बौछार से गानेवालियों को भी मात कर रही हैं।
जब शर्मा जी से नहीं रहा गया तो उन्होंने बड़ी नम्रता से डरते-डरते कहा–“आज इस शुभ घड़ी में…” तो लीजिए, लेने के देने पड़ गए–बौछार पलटकर इधर ही आ गई–“तो क्या इस शुभ घड़ी में मैं अपना धरम-नेम बिगाड़ दूँ? इन तमाम औरतों को हरिजन का छुआ खिलाकर उनका धर्म लेकर पाप की भागी बनूँ? तुम्हीं को मुबारक हों ये सफाई-मजदूर। इन्हें पत्तल उठाने के लिए क्या बुला लिया, बस, आफत मोल ले लिया! इस अकलू हरिजन के बेटे ने चौके में घुसकर बुनिया चुरा ली और भात भी छू दिया। अब भला यह खाना मैं कैसे खिलाऊँगी?”
अकलू को काटो तो खून नहीं। भय और ग्लानि से मरा जा रहा है। बहुत हिम्मत कर सिर्फ इतना ही कह पाया–“मालकिन, दिनभर का भूखा था बेचारा–आप ही के यहाँ तो खटता रहा सफाई में। उसे माफ कर दें। पेट की मार…और बच्चा जो ठहरा!”
“लो, इतना सारा खाना भी बरबाद कराया और अब सब खेल बिगाड़कर माफी माँगने चला है!”
शर्मा जी ने बड़ी आजिजी से कहा–“मालकिन, ऐसा करना अब जुर्म है–कॉगनेजिबल ऑफेंस! अब भी चुप लगा जाओ। शुभ दिन है।”
बस, इतना जो कहना था कि वह उबल पड़ीं–“तुम अपनी वकालत अपनी ही तईं रखो। ज्यादे न बघारो। मेरा सब काम जुर्म हो गया और तुमने मुन्ना की शादी में तिलक में एक रुपया उसके हाथों में रखवाकर बाकी पच्चीस हजार रुपये अपने सेफ में बंद कर दिए–क्या यह कानून की निगाह में जुर्म न था? जाओ-जाओ, तुम्हारा ऐसी की तैसी! महाराजिन! चौका धुलवाकर फिर से चावल-दाल बनवाओ।”
शर्मा जी अपना टका-सा मुँह लिए भागे।