प्रायश्चित्त

प्रायश्चित्त

कृष्ण कुमार बाबू कचहरी से आए, तो ऐसे थके हुए थे, जैसे उनमें जान ही नहीं थी। न दिल का पता चलता था और न दिमाग ठीक से काम करता था। घर में आते ही कमरे में घुस गए। शेरवानी उतार कर बड़ी बेदिली से एक ओर डाल दी, और पलंग पर लेट गए। यह बात उनकी आदत के खिलाफ़ थी। वह कचहरी से वापस आते थे, तो मुँह-हाथ धोकर चाय पीते थे। दिन भर की कमाई कौशल्या देवी के हाथ में देते थे और हँस-हँसकर दिन भर की गुज़री बातें सुनाते थे। कचहरी में क्या-क्या हुआ, किसने क्या बहस की और उन्होंने क्या नुकता पैदा किया; मजिस्ट्रेट ने क्या समझा और क्या फ़ैसला हुआ; सारी बातों का असर उनकी वकालत पर क्या होगा आदि। देर तक हँसते-बोलते रहने से उनकी थकान मिट जाती थी और वह अपने काम में तरो-ताज़ा होकर फिर लग जाते थे। परंतु, उस दिन वह कचहरी से आए और पलंग पर लेट गए। देर तक उनका इंतज़ार करने के बाद कौशल्या देवी आ गई और उन्हें पलंग पर निठाल पड़े देखकर बोली–

‘ख़ैर तो है! बहुत थके मालूम होते हो। तबीयत तो अच्छी है न?’

कृष्ण कुमार बाबू ने आँखें खोलीं। पत्नी को देखकर मुस्कुराने की कोशिश की; किंतु दिल खोलकर मुस्कुरा न सके। पति के मुख पर सूखी और कुचली हुई मुस्कुराहट देखकर कौशल्या देवी का दिल धक् से हो गया। वह घबरा गई और बोली–

‘उठिए, चाय तैयार है।’

कौशल्या देवी को घबराया हुआ देखकर कृष्ण कुमार बाबू ने उठने की कोशिश की और बोले–
‘कोई बात नहीं। बिलकुल अच्छा हूँ। चाय मँगवाओ।’

कौशल्या देवी बोली–

‘चाय तो देर से तैयार है।’

किंतु कौशल्या देवी की समझ में बात नहीं आई। ‘कोई बात नहीं, अच्छा हूँ’ फिर यह उदासी और बेदिली क्यों छायी है। वह समझ गई कि शायद मुक़दमा हार गए। जिनके बारे में उन्हें पूरा विश्वास था कि जीत जाएंगे, और अनेकों बार इस मुकदमे की हालत कौशल्या देवी को बता भी चुके थे कि पुलिस पूरी कोशिश कर रही है कि रामू को सज़ा हो जाए। किंतु, पुलिस कितना ही ज़ोर लगाए वे रामू को जेल नहीं जाने देंगे।

रामू मुहल्ले का एक नौजवान था। बाईस-चौबीस साल की आयु थी। घर में केवल बूढ़ी माँ थी। उसने पहले माँ के गहने बेचकर चाय की दूकान की थी। परंतु ख़राब संगत ने सब बर्बाद कर दिया। अब वह दिन भर मारा-मारा फिरता था। जुआ खेलना, शराब पीना और गंदी आदतें उसने सीख ली थीं। कुछ ही दिन पहले वह चोरी करते रँगेहाथों पकड़ा गया था। उस पर कई अभियोग थे। परंतु कोई सबूत उसके ख़िलाफ़ न मिल सका और पुलिस कुछ न कर सकी थी। किंतु, इस बार वह चोरी करते समय घर में पकड़ा गया था और मुहल्ले के सैकड़ों आदमियों ने देखा था। गवाही बड़ी मज़बूत थी और उसका जेल जाना निश्चित था।

रामू की माँ ने कृष्ण कुमार बाबू के पाँव पकड़ लिए थे। बुढ़िया का इकलौता बेटा। उसका देखने वाला कोई दूसरा न था। बुढ़िया उनके पाँव पकड़ कर कुछ इस तरह रोई थी कि कृष्ण कुमार बाबू का हृदय पिघल गया था। और, सारी बातें सुनकर बड़े विश्वास के साथ कहा था कि घबराने की कोई ज़रूरत नहीं। वे उसे छुड़ा लेंगे और बुढ़िया उन्हें आशीर्वाद देती चली गई थी। कौशल्या देवी ने पूछा–

‘आज रामू के मुक़दमे का फ़ैसला भी तो होने वाला था। क्या हुआ?’

कौशल्या देवी को विश्वास था कि मुक़दमा हार गए। रामू को सज़ा हो गई और इसीलिए उनका यह हाल है। परंतु कृष्ण कुमार बाबू ने बताया, ‘मुकदमा जीत गए, रामू छूट गया।’ कौशल्या देवी की समझ में बात नहीं आई। फिर कृष्ण कुमार बाबू की हालत ऐसी क्यों हो रही है। उसने फिर पूछा–

‘सब ठीक है, तो आप ऐसे आकर क्यों लेट गए। चलिए, चाय ठंढी हो रही है।’

कृष्ण कुमार बाबू उठ बैठे और उठते-उठते ठंढी साँस लेकर बोले–

‘रामू का मुकदमा जीत गया, परंतु ख़ुद मैं हार गया।’

कौशल्या देवी की समझ में बात नहीं आई। ख़ुद हारने का क्या मतलब? परंतु उन्होंने कुछ पूछना मुनासिब न समझा। कृष्ण कुमार बाबू को चाय की मेज़ के पास ले आईं। वे ग़ुसलख़ाने में जाकर मुँह-हाथ धोने लगे और कौशल्या देवी कृष्ण कुमार बाबू की पहेली को समझने की कोशिश करने लगी। रामू का मुक़दमा सीधा और साफ़ था। वह चोरी करने गया था और सामान के साथ पकड़ा गया था। मुहल्ले भर के लोगों ने उसे रामधनी साव के घर में पकड़े जाते देखा था। रामधनी साव धनी आदमी न था। छोटी-सी दूकान थी और उसी से सारा घर रूखा-सूखा खाकर गुज़ारा करता था। अपना और सबका पेट काटकर उसने बेटी का विवाह करने के लिए रुपया इकट्टा किया था। जब बेटी जवान हुई, तो उसके विवाह की तैयारियाँ कर रहा था। बात निश्चित हो गई थी और कुछ ही दिनों के बाद विवाह होने वाला था। रामू को मालूम हो गया था। वह तीन-चार दिनों से ताक में लगा हुआ था। अवसर पाकर घर में घुस गया। परंतु जाग हो गई और वह पकड़ा गया। पुलिस ने उसे हवालात में बंद कर दिया था।

कृष्ण कुमार बाबू ने मुकदमे की तफ़सील सुनते ही कह दिया था कि वह रामू को अवश्य छुड़ा लेंगे, और उसकी बूढ़ी माँ को विश्वास दिलाया था। थे तो नए वकील, कोई छ:-सात साल से वकालत करते थे; परंतु शहर के बड़े होनहार वकीलों में उनकी गिनती थी और नाम चल निकला था। उन्होंने मुक़दमे की सूरत ही बदल दी। रामू पकड़ा गया था चोरी के दोष में। किंतु, उसने चोरी से इंकार कर दिया और कृष्ण कुमार बाबू के सिखाने पर उसने बयान में कहा था कि रामधनी साव की बेटी चंपा से उसकी पुरानी मित्रता थी और वह बराबर उससे मिलने जाया करता था। उस रात भी वह चंपा से मिलने गया था, और उसके बुलाने पर। वह अपने विवाह के समाचार से प्रसन्न नहीं थी, और दोनों कहीं भाग जाने का प्रोग्राम बना चुके थे। सारा सामान दोनों ने मिलकर इकट्ठा किया था। परंतु लोग जाग गए तो चंपा चुप हो गई और वह पकड़ा गया। यदि लोग न जागते, तो वह और चंपा कहीं दूसरी जगह जा चुके होते और यह मुकदमा ही नहीं होता।

रामधनी साव की मुहल्ले के लोगों से पुरानी शत्रुता थी। कृष्ण कुमार बाबू ने उन लोगों से गवाही दिलवा दी। लखन अहीर ने कह दिया कि वह रामधनी साव के घर के पास ही रहता है, और उसने अनेकों बार रामू को रामधनी साव के घर से निकलते भी देखा है। मुनिया सुनारिन ने आगे बढ़कर गवाही दी कि उसने अनेकों बार अपनी आँखों से चंपा और रामू को हँस-हँसकर बातें करते और लपट-झपट करते देखा है। बल्कि रामू के जाते ही दरवाज़ा बंद करते भी देखा है। और भी बहुत सी बातें कह दीं, जो होतीं भी तो कहने की न थीं। रामभरोसे कहार की स्त्री ने और हद कर दी। उसका घर सामने ही था और रामभरोसे का मुक़दमा कृष्ण कुमार बाबू कर रहे थे। उनके सिखाने पर उसने ऐसी घटनाएँ बयान कीं कि मुक़दमा कुछ-का-कुछ होकर रह गया और बात इतनी बढ़ गई कि चंपा के विवाह की बात जो पक्की हो चुकी थी, टूट गई और रामधनी साव को लेने के देने पड़ गए। लड़के वालों ने बदनाम लड़की से विवाह करने से साफ इंकार कर दिया।

मजिस्ट्रेट ने फ़ैसला सुना दिया। रामू छूट गया। साबित हो गया था कि रामधनी की बेटी चंपा आवारा है और रामू से उसका लगाव पुराना था। दोनों भागना चाहते थे। कृष्ण कुमार बाबू फ़ैसला सुनकर प्रसन्न-प्रसन्न निकले। सायबान में रामधनी, उसकी बूढ़ी माँ और भाई सभी खड़े थे। रामधनी ऐसे खड़ा था, जैसे उसमें जान ही नहीं थी। उसकी बूढ़ी माँ रो रही थी। रामधनी का छोटा भाई सिर झुकाए खड़ा था।

कृष्ण कुमार बाबू जब उधर से गुज़रे, तो रामधनी को कहते सुना–चीज़ तो बच गई, परंतु इज्ज़त लुट गई और चंपा का जीवन बर्बाद हो गया। कृष्ण कुमार बाबू ने सुना, तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि रामधनी ने उनके दिल में छुरी घोंप दी। वह जानते थे कि रामू चोरी करने गया था। किंतु उन्होंने मुकदमे को दूसरा रंग दे दिया था। वे यह भी जानते थे कि रामू आवारा था, बदमाश था और चंपा की इससे पहले कभी कोई शिकायत नहीं सुनी गई थी। किंतु उन्होंने साबित कर दिया था कि चंपा बदचलन लड़की थी और रामू से उसका संबंध पुराना था। बल्कि विवाह का समाचार सुनकर वह रामू के साथ भाग जाना चाहती थी। इसीलिए रामू निर्दोष था और सारा अपराध चंपा का था।

सारे लोग तो चले गए, किंतु रामधनी की बात सुनकर जैसे उनके पाँव वहीं जम कर रह गए। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि रामू चोर न था, चंपा बदचलन न थी; बल्कि वही चोर और बदचलन थे। उनका दिमाग जैसे चकरा गया। थोड़ी देर तक उनकी समझ में नहीं आया कि यह सब क्या हो गया। किसने चोरी की, कौन पकड़ा गया, किसने मुकदमा चलाया, कौन हारा; कौन जीता। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि वे आप ही अपराधी थे, पकड़े गए और मुकदमा भी हार गए। न जाने वे और कितनी देर तक उसी प्रकार खड़े रहते कि उनके मुंशी ने आकर बताया कि दूसरे मुकदमे में भी उन्हें बहस करनी है। किंतु, जैसे उनमें जान ही नहीं रह गई थी, बार-बार उन्हें चंपा का ध्यान आता था जो इतनी नेक और सीधी थी कि उनके जिरह के सामने टूट गई, और उन्होंने उससे उल्टी-सीधी बातें कहलवा लीं। एक निर्दोष लड़की कचहरी में बदचलन और आवारा साबित हो गई थी। और मजिस्ट्रेट ने अपना फैसला दे दिया था, जो कभी नहीं मिट सकता।

कृष्ण कुमार बाबू मुंशी का सहारा लिए वकालतख़ाने तक आए और एक आराम-कुर्सी पर फैल गए। उनका गला सूखा हुआ था, उन्होंने तीन गिलास पानी पिया; परंतु तबीयत न सुधरी। मुंशी से कह दिया कि किसी और वकील को ले जाकर समय माँग ले, और आप आराम-कुर्सी पर बैठे-बैठे न जाने क्या-क्या सोचते रहे। सारे वकालतख़ाने में शोर हो गया कि कृष्ण कुमार बाबू की तबीयत ख़राब हो गई और लोग हालत पूछने आए, किंतु वह किसी को क्या बताते? बताने की कोई बात ही नहीं थी, और जब उनकी तबीयत सुधरी तो घर चले आए और पलंग पर लेट गए।

कौशल्या देवी ने चाय बनाकर उन्हें दी और पूछा–“मैं समझी नहीं, अपना तो कोई मुकदमा नहीं था। जो मुकदमा लड़ रहे थे, वह तो जीत गए, फिर हार क्या गए?”

कृष्ण कुमार बाबू ने लंबी साँस ली। फिर चाय का एक घूँट गले से उतारते हुए बोले–“अब मैं वकालत नहीं करूँगा। सदा के लिए इस धंधे को छोड़ दूँगा। मैंने बड़ा पाप किया है, एक तो रामू को छुड़ा लिया, वह चोर है और चोरी करने गया था…”

उन्होंने चाय का दूसरा घूँट पिया और बोले–“ज़रा सोचो तो, यह कितना बड़ा पाप मैंने किया! रामू को छुड़ाने के लिए मैंने मुकदमे की शकल ही बदल दी। रामधनी की निर्दोष बेटी पर मैंने सारा अपराध थोप दिया और साबित कर दिया कि वह बदचलन है। रामू से उसका संबंध है। वह बराबर उससे मिलता था और उस दिन उसी के बुलाने पर गया था। सारा सामान उसी ने निकाल कर इकट्ठा किया था कि रामू के साथ भाग जाएगी। किंतु लोग जाग गए और रामू पकड़ा गया। मैंने उसे निर्दोष साबित कर दिया…”

कृष्ण कुमार बाबू चुप हो गए। चुपचाप चाय पीते रहे और दीवार को ताकते रहे। फिर बोले–“जानती हो, क्या हुआ? चंपा के विवाह की बात पक्की हो चुकी थी। टूट गई। बदचलन लड़की से कौन विवाह करेगा? कभी किसी ने उसकी ओर उँगली भी नहीं उठाई थी। किंतु मैंने उसे बदचलन साबित कर दिया था। वह ऐसी भोली लड़की है कि उसे कुछ भी नहीं मालूम। उसका चेहरा अब भी मेरी आँखों के सामने घूम रहा है। जब पहली बार उससे मैंने इजलास पर कहा कि तुमने रामू को अपने घर में बुलाया और उससे तुम्हारा पुराना संबंध है, तो वह कैसी घबराई थी। उसका चेहरा पीला पड़ गया था, जैसे उसके शरीर में खून था ही नहीं। वह कुछ बोल भी नहीं सकी थी।” कृष्ण कुमार बाबू ने अजीब नज़रों से कौशल्या देवी को देखा और बोले–“मालूम नहीं, अब उसका विवाह होगा भी या नहीं!”

कौशल्या देवी की आँखों में आँसू थे। उन्होंने चाय की दूसरी प्याली उनकी ओर बढ़ा दी और बोली–“यह तो अच्छा नहीं हुआ, बेचारी…” कौशल्या देवी कुर्सी से उठ गई और आँखों से आँसू पोंछती हुई कमरे से निकल गई। कृष्ण कुमार बाबू ने फिर कभी कचहरी का मुँह नहीं देखा।


Image: Portrait of Antonio Anselmi
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Artist: Titian
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