राष्ट्रीय राजमार्ग

राष्ट्रीय राजमार्ग

यह अप्रैल 1540 की बात है। हुमायूँ अपनी किस्मत आजमाने और शेरशाह से दोबारा दो-दो हाथ करने कन्नौज के निकट बिलग्राम आ धमका, भारी लाव-लश्कर के साथ। वह गंगा के इस किनारे पर आकर ठहर गया। शेरशाह ने भी गंगा के दूसरे किनारे पर अपना शिविर लगाया और उसकी चारों ओर मिट्टी की दिवारें खड़ी कर दी।

यह शेरशाह का जानामाना पुराना सुरक्षा प्रबंध था। अब उसे अपने प्रबलतम राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी से एक बार टक्कर लेनी थी। इसलिए वह हर प्रकार से सावधान था। शेरशाह को यह शुभ समाचार मिला कि आखिर खवास खाँ ने उस बागी चैरों को मार गिराया है। यह सुनकर पूरे अफगान शिविर में दुगने हर्ष की लहर दौड़ गई। शेरशाह ने तब प्रसन्नतापूर्वक खवास खाँ को तुरंत वापस आ जाने का संदेश भेजा। खवास खाँ अपने लश्कर सहित महारथ नगर से कन्नौज की दिशा में चल पड़ा।

जब शेरशाह को अपने उसे विजयी सेनानायक खवास खाँ के लश्कर के काफी करीब आ जाने की सूचना मिली तो उसने बादशाह हुमायूँ के पास अपना संदेशवाहक भेजकर कहलाया कि – ‘मैं इधर गंगा पार डेरा डाले बैठा हूँ। आप बादशाहे-हिंद हैं। आपमें तय करने की कुव्वत है, तय कर लें। अगर आप नदी पार करना चाहें तो इधर लड़ाई हो सकती है। और अगर आप चाहें तो मैं नदी पार कर आपकी तरफ आ सकता हूँ और उस किनारे पर आपसे दो-दो हाथ कर सकता हूँ।

संदेशवाहक ने बादशाह हुमायूँ के डेरे पर पहुँचकर जब युद्ध का ये संदेशा उसे सुनाया तो हुमायूँ को ये मुगल आन-बान-शान के खिलाफ एक बड़ी तौहीन वाली बात लगी और अदूरदर्शिता के कारण हुमायूँ शेरशाह के उस शब्दजाल में फँस गया। तब उत्तेजना की हालत में शेरशाह के प्रति घोर घृणा प्रकट करते हुए हुमायूँ ने उस संदेशवाहक से कहा- ‘वो शेर खाँ…अपने आपको बहुत तीसमार खाँ समझता है ? जाकर उसे कह देना कि अगर वो नदी से कुछ कोस दूर चला जाए तो मैं वहीं आकर उससे लड़ूँगा।’

संदेशवाहक गंगा नदी पार करके वापस शेरशाह के पास पहुँचा। उसने बादशाह हुमायूँ की कही बात शेरशाह को कह सुनाई। सुनकर शेरशाह मुस्कुराया। उसने अपनी फौज को पीछे हटने का हुक्म दिया। शेरशाह की फौज जल्द ही डेरे तंबू उखाड़कर कई-कोस पीछे चली गई। जब शेरशाह की फौज पीछे चली गई तब हुमायूँ ने नदी पर एक पुल बनवाकर बकायदा नदी पार की। मुगल फौज लश्कर-दर-लश्कर गंगा पार कर पुल के जरिए इस पार आने लगी।

उधर शेरशाह के एक अमीर हमीद खाँ काकर ने उस स्थिति में शेरशाह को सलाह दी कि – ‘इससे पहले मुगल फौज पूरी तरह नदी पार करे, आपको तुरंत हुमायूँ पर हमला बोल देना चाहिए।’ इस पर शेरशाह ने इंकार करते हुए कहा – ‘अब पाक परवरदिगार के फजल से मेरी फौज भी हुमायूँ की फौज से उन्नीस नहीं है। मैं इस वक्त अपना वायदा नहीं तोडूँगा। मैं चाहूँ तो इनपर अभी बेशक हमला कर सकता हूँ और उसका फायदा भी अफगानी को मिलेगा। मगर ऐसे में मुगलों के मन में फिर से अपनी ताकत का मुगालता रह जाएगा कि अरे! वह तो शेरशाह ने हम पर बिना हमारे तैयार हुए इस बार भी छल-फरेब से अचानक हमला कर दिया इसलिए हम हार गए।…हमीद खाँ साहब! इस बार मैं चाहता हूँ कि मुगलों और हमारे बीच बकायदा आमने-सामने की जंग हो। मैं खुले मैदान में अपनी फौज को खड़ा करके हुमायूँ से बकायदा जंग करूँगा। धोखे से काम इस बार नहीं लूँगा। मैं चाहता हूँ कि अबकी बार खुदा हम दोनों में किसी एक के हक में अपनी रजा जाहिर कर दे।’

कुछ कोस दूर चले जाने पर अफगान सैनिकों ने अपने शिविर के आगे पहले की तरह सुरक्षात्मक-दीवार खड़ी कर ली। कुछ ही दिन में खवास खाँ भी अपनी सेना सहित शेरशाह से आ मिला। जिस दिन शेरशाह से वह मिला उसी दिन शेरशाह ने अपनी सेना को कमरबंदी कर कूच करने का हुक्म दे दिया।

हुमायूँ की सेना को रसद पहुँचाने वालों को शेरशाह के एक विशेष फौजी दस्ते ने मार्ग में घेर लिया। जो भी सामान हुमायूँ बादशाह की सेना के लिए आ रहा था सब छीन लिया गया। शेरशाह के सैनिकों ने 300 ऊँट और बैलों का वह काफिला पकड़ लिया और उन्हें घुमा-फिराकर ये अफगान कैंप में ले आए।

17 मई 1540 ई. को दोनों फौजें एक दूसरे के आमने-सामने युद्ध के लिए खड़ी हो गई। बिलग्राम का मैदान। पीछे बहती गंगा। उसके पीछे कन्नौज का इलाका। युद्ध के मौदान में आमने-सामने डटी हुई मुगल और अफगान फौजें। दोनों संख्याबल में लगभग बराबर-बराबर। हुमायूँ की फौज में हाथी, घोड़े पैदल और तोपखाने में कुल मिलाकर 40,000 सैनिक। लगभग इतने ही सैनिक और संसाधन शेरशाह की फौज में भी दुश्मन से आरपार का मुचैटा लेने के लिए मचलते हुए।

शेरशाह ने अपनी फौज इस प्रकार खड़ी की थी – सबसे आगे सिपहसालार खयार खाँ का हरावल दस्ता था। उसके पीछे मध्यभाग में शेरशाह सूरी खुद घोड़े पर सवार, युद्ध के लिए पूरे जिरह बख्तर और लोहे के टोप के साथ, मुस्तैद था। शेरशाह के साथ हैबल खाँ नियाजी, जिसे आजम हुमायूँ की उपाधि मिली हुई थी, मसनदे आली ईसा खाँ सरावनी, कुतुब खाँ, लोदी, हाजी खाँ, बुलंद खाँ, समरस्त खाँ, सैफ खाँ सरवानरी, बिजली खाँ और दूसरे मोअज्जिज अफगान सरदार घोड़ों की पीठ पर सवार थे। सबके हाथों में नेजे-ढालें या नंगी तलवारें मजबूती से थमी हुई थी। सबके सब जिरह बख्तरबंद थे। शेरशाह की फौज के दाहिने हिस्से में शेरशाह का बहादुर बेटा जलाल खाँ सूर मुख्य सेनानायक था। जलाल खाँ के साथ ताज खाँ, सुलेमन खाँ किरानी, जलाल खाँ जलोई, मियाँ अयूब कलकापुर सरवानी, गाजी मुसली और दूसरे कई युद्ध कुशल सरदार थे। शेरशाह की बाईं ओर उसका बड़ा बेटा आदिल खाँ सूर, राय हुसैन जलवानी और अन्य लोग थे। जब पूरी सेना शेरशाह की इस व्यूह रचना के अनुसार सज गई तब शेरखाह ने आगे निकलकर अपने सभी सरदारों को अपने सामने खड़ा किया। फिर उसने बुलंद आवाज में उन्हें इस तरह संबोधित किया जिससे कि उसकी सेना में दूर तक उसका स्वर सुनाई दे सके।

शेरशाह ने कहा-‘मेरे बहादुर साथियो! मैंने पूरी ताकत लगाकर तुम लोगों को जंग के लिए तैयार किया है। मैंने लड़ाई के लिए जो अब तक तुमसे जबर्दस्त कवायद कराई है वो आज ही के दिन के लिए तुम्हें तैयार करने के वास्ते कराई थी। आज आया है वो इम्तेहान का दिन। आज तुम्हें अपने सच्चे फौजी होने का सबूत देना है। मैं शेरशाह सूरी आज इस जंग के मैदान में ये ऐलान करता हूं कि तुममें से जो भी लड़ाई के मैदान में अच्छा काम करेगा मैं उसको उसके साथियों से ऊपर फौरी-तरक्की दूँगा। बोलो क्या कहते हो?’ शेरशाह के सरदार अदब से उसे सुनकर खामोश खड़े रहे। पीछे खड़ी फौज में अनेक अफगान सिपाहियों ने हुंकार भरी। कई स्वर एक के बाद एक फौज के मध्य से पूरे जोश के साथ उभरे- ‘महाबली बादशाह सलामत ने हमारी हमेशा हिफाजत की है। आज हम उनके लिए जान लड़ा देंगे।’

‘हुजूर शेरशाह शाहे-आलम हमारे अजीम रहनुमा हैं। उनकी हम पर बेपनाह इनायतें हैं। हम मर जाएंगे मगर दुश्मन के सामने से पीछे न हटेंगे।’

‘आज आया है दिन हमारे आका के लिए जाँनिसार करने का। हम दुश्मन को कुचल कर रख देंगे।’

‘शाहे अफगान जिंदाबाद! जिंदाबाद!!’

‘शाहे हिंद शेरशाह! जिंदाबाद!! जिंदाबाद!!!’

शेरशाह ने दोनों हाथ उठाकर फौज को शांत कराया और कहा- ‘साथियो! अपने इस जज्बे को अपने दिल में संभालकर रखो। अपनी ताकत को अपने बाजुओं और पाँवों में मजफूज रखो। अब ये दुश्मन को सबक सिखाते वक्त ही तुम्हें खर्च करनी है। खुशबाश! पाइंदाबाद!’ फिर शेरशाह ने अपने सभी एकत्रित सरदारों को हुक्म दिया कि वह अपने-अपने सिपाहियों के पास जाएँ और वहीं ठहरे। शेरशाह ने तब घोड़ा दौड़ाकर एक सिरे से दूसरे सिरे तक अपनी उस जोशीली फौज का एक जोशीला मुआयना किया। उसके बाद वह फौज के मध्य भाग में अपने मरकजी मुकाम पर वापस आ खड़ा हो गया। युद्ध के मैदान में दोनों सेनाएँ बड़ी देर तक खामोश खड़ी रही और प्रतिपक्षी की ओर से पहल की प्रतीक्षा करती रही। हवा रूकी हुई थी। आकाश में बादल छाए हुए थे। अफगान पक्ष आसमान की ओर देखता हुआ मना रहा था कि चैसा की तरह इस बिलग्राम में भी बरसात हो जाए।

सामने मिर्जा हुमायूँ की विशाल फौज खड़ी थी। फौज का मध्यभाग में पीछे की ओर एक शाही हाथी पर सवार बादशाह हुमायूँ अपनी फौज का होसला बढ़ा रहा था। उसके दाहिने बाजू की फौज की कमान उसके भाई मिर्जा असकरी के हाथों में थी जो कि एक घोड़े पर सवार जिरह बख्तर के साथ लैस था। हुमायूँ की फौज का बायाँ हिस्सा उसके दूसरे भाई मिर्जा हिंदाल के नेतृत्व में था। अनेक अमीर और मुगल सरदार अपनी-अपनी फौजी टुकड़ियों के साथ हुमायूँ की फौज में शामिल थे। इस फौज में आगे की ओर हुमायूँ का तोपखाना पंक्तिबद्ध हो खड़ा था। उसके पीछे उसकी घुड़सवार फौज तैयार थी। इधर शेरशाह की सेना में आगे खड़ा हरावल दस्ता खवास खाँ के नियंत्रण में उसके आदेश की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। खवास खाँ ने अपने चुस्त-दुरूस्त घुड़सवार दस्ते को समझा रखा था कि हमें अचानक हमला करना है और तोपों का मुंह खुलने से पहले ही उन्हें ठंडा कर देना हमारा अव्वल मक्सद होगा। शेरशाह के रिसाले में कई घुड़सवार अचूक तीरंदाज भी थे। उन्हें मुगल तोपचियों पर चुन-चुनकर तीर चलाने का हुक्म दिया गया था।

घंटाभर बीत जाने के बाद शेर खाँ के हरावल दस्ते को आखिर वह मनचाहा मौका मिल गया। कुदरत भी लगता था शेरशाह सूरी का ही साथ दे रहा था। अचानक बिलग्राम के उस मैदान में धूल भरी आँधियाँ चलने लगीं। हवा का रूख गंगातट की ओर खड़ी मुगल फौजों की ओर था। अंधड़ के चलते ही हुमायूँ के तोपची कुछ गफलत में आ गए। वह अपना गोला बारूद और दूसरा साजो-सामान झुक कर पीछे घसीटने लगे। अभी वे सँभलते कि तेज बारिश आ गई। तोपची और विचलित हो गए।

उसी समय खवास खाँ ने अपनी तलवार हवा में उठाकर मुगलों की ओर झुका दी और अपने घुड़सवारों को ललकारा- ‘यलगार!!!’ और इसी के साथ उसका वो हरावल दस्ता द्रूतगति से दुश्मन की ओर हमलावर हो गया। सन-सन-सन-सन करके अनेक तीर छूट गए। कई मुगल तोपची उनकी जद में आ गए। यह देखकर मुगल घुड़सवार भी अपना धैर्य खो बैठे। वह तोपों की अग्रिम रक्षापंक्ति तोड़कर उनके बीच से निकलकर शेरशाह की फौज की ओर दौड़ पड़े। मुगल तोपखाना इस तरह बिना दगे निष्प्रयोज्य हो गया। ठन-ठन-ठन-ठना-ठन करके तलवारों से तलवारें टकराने लगीं। दोनों ओर की फौजों ने तब एक दूसरे पर पूरी तरह हमला बोल दिया। खचा-खच खचा-खच…सिपाहियों पर सिपाही कट-कटकर गिरने लगे। युद्ध का तुमुलनाद सारी फिजाँ में गूँज पड़ा।

यद्यपि खवास खाँ की सेना के अग्रिम दस्ते ने हुमायूँ की सेना की अगली पंक्तियों को नष्ट करके उसमें बड़ी गड़बड़ी मचा दी तथापि शेरशाह की फौज का दाहिना बाजू कमजोर पड़ने लगा। असकरी की फौज का धड़ा उस पर ज्यादा भारी पड़ा। शेरशाह के पुत्र जलाल खाँ के कई अफगान सरदार और सैनिक उस हमले में मारे गए। यद्यपि जलाल खाँ स्वयं और उसके सरदारों में मियाँ अयूब कलकापुर सरवानी और गाजी मुसली अपनी-अपनी जगह वीरतापूर्वक डटे रहे। अब शेरशाह ने देखा कि उसकी फौज का दाहिना बाजू छिन्न-भिन्न हो रहा है और दुश्मन का दबाव उस हिस्से पर सर्वाधिक है तो उसने मदद के लिए उधर स्वयं जाना चाहा, परंतु शेरशाह के साथ के सरदार कुतुब खाँ लोदी ने उनसे कहा-‘मेरे मालिक! आप अपनी जगह को हरगिज न छोड़िए। वर्ना दुश्मन समझेगा कि हमारा ये मरकजी हिस्सा डोल गया है। आप तो सीधे आगे बढ़कर दुश्मन के मरकज में धावा बोलें।’

शेरशाह को अपने साथी की ये बात पसंद आई और उसने अपनी फौज को हुमायूँ की दिशा में पूरी ताकत से आगे बढ़ा दिया। शेरशाह को आगे बढ़ता देख असकरी की फौज का वह भाग जो जलाल खाँ की ओर रूख किए हुए था अब पलटकर शेरशाह की ओर हो चला। दोनों पक्षों में तब जबर्दस्त मुठभेड़ हुई। इस बार अफगान मुगलों पर भारी पड़े। उनके कहर से मुगल घुड़सवार और प्यादे बड़ी संख्या में हताहत होने लगे। अफगानों के सूरमा शेरशाह सूरी को स्वयं विकट युद्ध करते देखकर मुगलों के हौसले पस्त हो गए। उन्होंने देखा कि उनका बादशाह हुमायूँ तो बहुत पीछे एक हाथी के हौदे पर चढ़कर बैठा हुआ था और इधर शेरशाह एक घोड़े की पीठ पर सवार होकर मुगलों के ऊपर बिजली की तरह टूटा पड़ रहा था। दूसरे अफगान सरदार भी पूरे जोशोखरोश से मुगलों से भिड़े हुए उन्हें संभलने का मौका नहीं दे रहे थे। तब इस जोरदार हमले में चोट खाकर हुमायूँ का यह बायाँ फौजी भाग उखड़कर उल्टे पाँव भाग चला। शेरशाह द्वारा इस तरह धकेले जाने पर जब ये मुगल सैनिक प्राण बचाकर भागे तो हुमायूँ की मध्य कमान में भी भगदड़ मच गई।

इधर शेरशाह की फौज के बाएँ बाजू में, जिसमें उसका बड़ा बेटा आदिल खाँ और अन्य सरदार थे, उन्होंने भी अपने सामने की सेना के पाँव उखाड़ दिए। तब तक शेरशाह की दाहिने बाजू की सेना भी संभल गई। मुगल फौज में मची भगदड़ का लाभ उठाकर अफगानों ने मुगल सेना को अब चारों ओर से घेर लिया और गाजर-मूली की तरह काटने लगे। इसके बाद शेरशाह अपने घोड़े पर हुमायूँ के हाथी की दिशा को लक्ष्य करके आगे बढ़ा। वहाँ हुमायूँ अपने हाथी पर अभी तक तो स्थिर था, मगर अपने भागते सैनिकों को वह आवाजें दे रहा था- ‘भागो नहीं मुकाबला करो। ये लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है।’ मगर एक बार जंग में जो कायरता की केंवाच पड़ जाए तो फिर उससे उत्पन्न खुजली और भगदड़ को कौन रोक सकता है ?

हुमायूँ मौके की नजाकत को समझ गया। तब उसने एक घोड़ा मँगवाया। शाही हाथी से मुगल बादशाह उतर पड़ा। और घोड़े पर सवार हो नदी पर बने पुल की दिशा में उसने सरपट दौड़ लगा दी। हुमायूँ के साथ अन्य कई सरदार भी उल्टी दिशा में अपने-अपने घोड़ों पर जान तुड़ाकर भागे। यह देखकर अफगान घुड़सवारों ने उनका पीछा किया। सन-सन-सन-सन। पीछे से तीर चलने लगे। हुमायूँ और उसके घुड़सवार साथी भागते गए। भागते गए। संयोग से कोई तीर हुमायूँ को नहीं लगा और वह जिंदा और सही सलामत अपने सल्तनत द्वारा बनवाए नदी के पुल को किसी तरह पार कर गया। मुगल फौज ने भी पुल के रास्ते नदी पार करना चाही। मगर मुगलिया फौज के भारी दबाव से वह पुल अचानक बीच मे ही अर्राकर टूट गया। कई लोग नदी में बह गए। अनेक सिपाही तैराक होने पर भी नदी में डूब गए और कई पार हो गए। जो पार हो गए वह गिरते-पड़ते कन्नौज की दिशा में भागे। हुमायूँ उनके भी आगे भागता हुआ लुटा-पिटा आगरा निकल गया। बिलग्राम के उस निर्णायक युद्ध में विजयश्री फिर शेरशाह सूरी के हाथ लगी। इस बार शेरशाह की बादशाहत को हिंद में पूरी तरह कायम कर देने वाली जीत थी और हुमायूँ के लिए यह शाही तख्तो-ताज से उसे बेदखल कर देने वाली शर्मनाक हार थी।

जब मुगलों की ओर से शेरशाह निश्चिंत हो गया तब उसने फौरी तौर पर तीन काम किए। एक तो यह कि सरदार शुजात खाँ को रोहतास और आसपास के कुछ बिहारी क्षेत्रों को फौजदार नियुक्त कर दिया। फिर शुजात खाँ को लिखित फर्मान भेजा कि तुरंत ग्वालियर के किले का घेरा डाला जाए। फर्मान ले जाने वाले कासिद को ये हिदायत दी कि इस जंग में शुजात खाँ को बेटा महसूद खाँ मारा गया है। ये बात रोहतास से रवाना होने से पहले शुजात खाँ को न बताई जाए। ऐसा न हो कि बेटे के गम में सरदार शुजात खाँ ग्वालियर कूच में देरी कर दे। फर्मान मिलते ही शुजात खाँ ने अपनी फौज के साथ ग्वालियर को जा घेरा। दूसरे, स्वयं शेरशाह बिलग्राम से गंगा पार कर कन्नौज जा पहुँचा और उसने कन्नौज शहर पर अधिकार कर लिया। फिर उसने अपने एक हिंदू सेनानायक ब्रह्मजीत गौड़ को कन्नौज से एक बड़ी सेना देकर आगरा के लिए रवाना किया। शेरशाह ने ब्रह्मजीत गौड़ को हिदायत दी कि वह बादशाह हुमायूँ का धीरे-धीरे पीछा करेगा। उसे आगरा पहुँचकर वहाँ पर घेरेगा, मगर स्वयं उससे युद्ध नहीं करेगा। ब्रह्मजीत गौड़ अफगानों और हिन्दुओं की मिलीजुली सेना के साथ रवाना हो गया। तीसरा काम शेरशाह ने यह किया कि उसने एक और सेना नासिर खाँ के नेतृत्व में संभल कर पूर्ण नियंत्रण करने और वहाँ शांति एवं सुव्यवस्था बहाल करने के उद्देश्य से भेजी। इसके बाद शेरशाह स्वयं कुछ दिन कन्नौज में रूका रहा। उसने कन्नौज से गुजरने वाली सबसे मुख्य सड़क की बुरी दशा को देखा। स्थानीय लोगों और व्यापारियों को बुलाकर उसने पूछा-‘यह कितनी पुरानी सड़क है?’ किसी ने कहा-‘सैकड़ों बरस पुरानी।’ किसी ने कहा ‘बाबा आदम के जमाने से चली आ रही है ये सड़क।’ एक वेद-पुराणों के जानकार पंडित ने बताया कि-‘ये सड़क नहीं हिंदुस्तान के हृदय की रेखा है।’

शेरशाह को इस तरह आम लोगों ने बताया कि-‘विदेशों से होने वाला वाणिज्य और देश में एक ओर से दूसरी ओर चलने वाला व्यापार सब इसी मार्ग के द्वारा प्राचीनकाल से संचालित होते आ रहा है। अनेक शताब्दियों से नही, बल्कि प्राचीन युग से यह इधर से गुजरते हुए पूर्व दिशा की ओर प्रयाग, काशी, बिहार में पाटलिपुत्र याने कि पटना और बंगाल में सोनारगाँव तक चली गई है। पश्चिम में यह देहली और उससे भी आगे पंजाब में लाहौर तक निकल गई बताते हैं। उधर आगरा से लाहौर तक ये सड़क पहले के राजाओं, सुल्तानों, बादशाहों द्वारा बीच-बीच में कहीं-कहीं मरम्मत कराई जाती रही है। मगर आगरा से कन्नौज के बीच और कन्नौज से प्रयाग के बीच आजकल यह बहुत बुरी हालत में है।’ शेरशाह ने तब यह फर्मान जारी किया कि-‘इस सड़क को सभी शिकदार और हाकिमे-इलाका अपने-अपने इलाकों में खास-तवज्जो दें। इसकी फिलहाल मौजूदा मालगुजारी की रकम से मरम्मत कराए और उस पर हुए खर्च का हिसाब रखें। यह शाही सड़क है। आगे इस सड़क को हम अपनी खास निगरानी में फिर से तामीर करवाएंगे। इस सड़क की अहमियत को देखते हुए आज से हम इसे नाम देते हैं- ‘शाहराहे आजम।’

इस तरह आज जिस राष्ट्रीय राजमार्ग को हम अंग्रेजों के दिए ‘ग्रैंड ट्रंक रोड’ अथवा ‘जी.टी. रोड’ के नाम से जानते हैं, उसके दिन बहुरने की शुरूआत शेरशाह के जमाने में कन्नौज के आसपास से हुई। शेरशाह सूरी कन्नौज के आसपास की अन्य प्रशासनिक एवं राजस्व वसूली संबंधी व्यवस्थाएं सुनिश्चित करके अपनी विजयी सेना के साथ हुमायूँ की खोज खबर लेने आगरा की ओर रवाना हुआ।


Original Image: The Second Mughal emperor Humayun. Detail of miniature from the Baburnama
Image Source: WikiArt
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork

सुधाकर अदीब द्वारा भी