रेवती

रेवती

पतरी में कितरी लिखूं, हित री चित री बात,
इतरी नितरी ऊपजै, जितरी लिखी न जात।

दो पन्नों की चिट्ठी में लगभग एक ही जैसी बात, बार-बार घुमा-फिरा कर, लिखी रहती। पढ़कर ऐसा लगता था जैसे किसी ने कपूर की डली पर लपेटा हुआ कागज खोल कर सामने रख दिया हो। यादों की सुगंध से मन सुवासित हो उठता। एक बात हर चिट्ठी में लिखी रहती थी, ‘तुम्हारी बहुत याद आती है। एक बार आ जाओ, तुम्हें देखे बहुत दिन हो गए। तबीयत भी ठीक नहीं रहती है।’ अंत में लिखा रहता था, ‘थोड़ा लिखा है, बहुत जानना, पत्र को तार समझ कर फौरन रवाना हो जाना, तुम्हारी बड़ी माँ।’

बड़ी माँ यानी दादी जी, अस्सी वर्ष से भी अधिक की उम्र में, सबसे दूर, गाँव में अकेले कैसे रह लेती थी, वही जानती थी। दूसरों को यह जानने की फुर्सत नहीं थी। पूछने पर बड़ी माँ कहती, ‘शहर में, इतने लोगों के बीच भी मैं अकेली-जैसी रहती हूँ। गाँव में गिनती के, थोड़े से लोग हैं, फिर भी घर और मन भरा रहता है।’ भरा हुआ मन हो, चाहे खाली मन हो, बुढ़ापे में दूर रहते अपनों की याद सबको सताती है। अकेली, बूढ़ी औरत को तो रह-रहकर आती है और घड़ी-घड़ी दुःख दिए बिना नहीं मानती है।

पूरे साल में मुश्किल से एक बार, कुछ दिनों के लिए, गाँव जा पाता था। बड़ी माँ से मिलने के लिए भी और घर-मकान को संभालने के लिए भी। पिछले वर्ष यह भी संभव नहीं हो पाया। बड़ी माँ की शिकायत लाजिमी थी, बिल्कुल वाजिब। ट्रेन से उतर कर गाँव की बस में सवार हुआ तब मौसम की फुहारें गरज-बरस कर स्वागत कर रही थीं। बस चली, उसके थोड़ी देर बाद ही फुहारों ने भारी बरसात का रूप ले लिया। काले घनघोर बादलों के घिरने से, दिन का उजाला अंधेरे में तब्दील हो गया। बस की तेज हेड-लाइट में सड़क मुश्किल से कुछ कदम तक नजर आती थी। मौसम के बिगड़े मिजाज का बस के ड्राइवर को तजुर्बा था। बहुत धीरे-धीरे बस चला रहा था, वह। बस के सामने के कांच पर बरखा के पानी की मोटी धारा को वाइपर इधर से उधर हटा रहे थे। कांच पर जमी हुई भाप की धुंध को कपड़े से पोंछ कर बार-बार साफ करना पड़ता था। सामने से आती हुई दूसरी गाड़ी को हेड लाइट आँखों को चैंधिया देती थी, तब ड्राइवर ब्रेक मारने पर मजबूर हो जाता। मैंने मन ही मन हिसाब लगाया, दिन ढले गाँव पहुँचना था, अब देर रात या उसके बाद ही पहुँचना हो सकेगा। बिचारी बड़ी माँ इंतजार करती-करती थक कर सो जाएगी, उसे जगाना पड़ेगा। और अगर सोई नहीं होगी तो जागती हुई बैठी राह देख रही होगी, मन ही मन राम-राम जपती हुई।

मैं बड़ी माँ के बारे में सोचने लगा। बड़ी माँ ने अपने जीने के तौर-तरीकों के साथ कभी समझौता करना सीखा ही नहीं। बचपन के वैधव्य को बुढ़ापे तक अपने सख्त विचारों और मजबूत इरादों के बल पर काटा था, उसने। किसी को कुछ भी कहने का, कभी मौका नहीं दिया। अपने हाथों से धोयी हुई झक सफेद वायल की साड़ी में, चंदन की तरह सुगंध से भरी उसकी पावन काया को दूर से देख कर मन में श्रद्धा का भाव उमड़ पड़ता था। शौच और छूआछूत का उसको बहुत विचार रहता था। छोटी सी चाँदी की थाली और कटोरी-गिलास में, अपने हाथों से पकाया हुआ सादा खाना खाती थी। घर में बढ़ते हुए वैभव और बच्चों की भीड़ में उसको बजाय सुविधा के असुविधा महसूस होने लगी थी। दूसरों को कष्ट दिए बिना, चुपचाप अकेले गाँव में, रहना कबूल कर लिया उसने। यह तो सिर्फ हमारे कहने की बात थी कि वहाँ उसको अपने तरीके से, अपनी जिंदगी जीने का आराम था। बड़े-बूढ़ों की तकलीफों को अपने आराम के तराजू पर तौलने का रिवाज होता है।

साल-छः महीने बाद हम बीच-बीच में गाँव जाते, बड़ी माँ से मिलने। हमारे आने का समाचार सुनते ही उसकी बूढ़ी काया में नए प्राण भर जाते। जिस दिन हम पहुँचने वाले होते, उस दिन वह पलक-पांवड़े बिछाए, शबरी माई की तरह हमारे आने की बाट देखती रहती। हमारे लिए, हमारी पसंद का गरम खाना बनवाती और रसोईदार को देर तक रोक कर रखती। हमें इन सब बातों का अहसास होता, फिर भी हम राह में घूमते-फिरते, पिकनिक मनाते हुए गाँव पहुँचते। जरा भी नहीं सोचते कि विलंब हो जाएगा और जब तक हम नहीं पहुँचेंगे तब तक वह आश-निराश के बीच झूलती, लंबी-लंबी सांस लेती रहेगी और अपना मन खराब करती रहेगी। हम पहुँचते तब हमें देख कर वह खुशी और उत्साह से पागल जैसी हो जाती। वहाँ रहने वाले घरेलू कर्मचारियों को आवाज दे कर पुकारती, हमारे लिए सुख-सुविधा जुटाने के लिए उनको इधर-उधर दौड़ाती, पूरे घर को सर पर उठा लेती। बस में बैठे-बैठे मैं सोच रहा था कि, साल दो साल में, किसी मौके अथवा वैसे ही जब कभी बड़ी माँ हमसे मिलने, हमारे साथ रहने, शहर आती थी तब हम उसका स्वागत इस तरह उत्साह के साथ कभी नहीं करते थे। हमें तो उसके आने से खुशी तक नहीं होती थी, यह सोचकर कि हमारी थोड़ी सी असुविधाएँ बढ़ जाएंगी। मेरी आँखों में इस ख्याल से नमी-सी छा गई।

जिसके पास उसके अपने नहीं रहते हैं, उसके पास भगवान परायों को अपना बना कर भेज देता है। बड़ी माँ के पास गाँव और मुहल्ले की औरतें आती रहतीं। चैदह-पंद्रह वर्ष की एक लड़की के साथ बड़ी माँ का मन विशेष रूप से मिल गया था। वह बड़ी माँ के पास ही पड़ी रहती, उसका छोटा-मोटा काम कर देती और उसका खाना बनाने में भी मदद कर दिया करती। हम जब गाँव जाते, तब बड़ी माँ उसको पहले से बुला लेती। हमारा ख्याल रखने के लिए सबसे अधिक भाग-दौड़ उसी को करनी पड़ती। हमारे अपने की खुशी में वह भी उसी तरह पागल हो जाती, जैसे बड़ी माँ होती थी। वह हम सब के साथ इस तरह घुल-मिल जाती, जैसे हमारे परिवार की ही सदस्य हो। लड़की का नाम रेवती था। उसके माँ-बाप नहीं थे, भाई और भाभी के पास रहती थी। बड़ी माँ की दो पन्नों की लंबी चिट्ठियों को वही लिखा करती थी। भाव-विचार बड़ी माँ के होते, भाषा और लिखावट रेवती की। लिखावट के साथ-साथ अपनी अक्ल और समझ के मुताबिक बातें भी जोड़ती जाती वह। बड़ी माँ अपने हाथों से मुश्किल से एक पोस्टकार्ड जितना लिख पाती थी। पिछली बार हम गाँव गए तब बड़ी माँ ने बताया कि रेवती के घरवाले उसका विवाह करने की सोच रहे हैं, लेकिन पैसों की तंगी आड़े आ रही है। मेरी आँखों ने रेवती का बदन टटोला, वह बच्ची नहीं रही थी। मेरे मन में ख्याल आया, अच्छा है, अगर दो-चार वर्ष रेवती का ब्याह नहीं हो, वह रहेगी तो बड़ी माँ को भी आराम रहेगा। बस मैं बैठे-बैठे मुझे अपने स्वार्थ भरे ख्यालों के लिए अपने आप पर शर्मिंदगी महसूस होने लगी।

बौछारें हल्की पड़ीं तब मौसम के रंग में, रात का अंधेरा मिल चुका था। हल्की, बूँदा-बाँदी के बाद आसमान पूरी तरह से खुल गया था। बस की खिड़कियों से ठंडी हवा के झोंके भीतर आने लगे। बाहर चारों ओर पसरा अंधेरा बस के अंदर भी झांकने लगा। अंधेरे को चीरती हुई बस की हेडलाइट की रोशनी में काली सड़क दूर-दूर तक साफ दिखाई पड़ने लगी। ऊपर आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट के साथ, चमकती हुई बिजलियाँ आड़ा-तिरछा जाल बना कर धरती की तरफ कड़क के साथ दौड़ लगा रही थीं। उनकी चमक से दूर-दूर तक फैला इलाका उजाले से नहा उठता था। लगातार इतनी देर तक बिजलियों को कड़कते हुए देखना, मेरे लिए नया अनुभव था। मेरे भीतर भय सा छाने लगा। बस ने रफ्तार पकड़ ली। मेरी आँखें लग गईं।

आँखें खुली, तब रात आधी से भी अधिक गुजर चुकी थी। बस सड़क के बीच खड़ी थी, चल नहीं रही थी। आगे रास्ता गहरे पानी में डूबा हुआ था। वहाँ एक पुल था, जो टूटा हो सकता था। पानी के निकलने तक, दिन का उजाला होने तक, बस को वहीं खड़ा रहना पड़ता इसलिए बस को लौटा कर ले जाने के बारे में सोचा जा रहा था। उस जगह से लगभग एक घंटे का ही था, मेरे गाँव का रास्ता। लौट कर जाना मूर्खता होती। वहीं उतर कर सवेरे आसानी से किसी दूसरी बस से अथवा किसी दूसरी तरह गाँव पहुँचा जा सकता था। बस लौटने लगी तब मैंने उतर जाने का फैसला किया। सड़क के पास थोड़ी दूर पर छोटी सी प्याऊ थी, जिस पर मंदिर जैसा एक मंडप बना था और लाल झंडा फहरा रहा था। पास ही एक छोटा कोठरीनुमा घर भी था। वहाँ पहुँच कर मैंने दरवाजा खटखटाया। भीतर से आवाज आई, ‘दरवाजा खुला है।’

जमीन पर कंबल बिछाए एक बूढ़ा आदमी आधा लेटा, आधा बैठा हुआ था। बुझी हुई चिलम पास ही जमीन पर पड़ी थी। मेरे बिना बताए ही वह बोला, ‘सवेरे से पहले पानी नहीं निकलेगा, कौन से गाँव के हो भाया।’ मेरे बताते ही, वह मुझे पहचान गया। गाँव और शहर के लोगों में यही फर्क होता है। गाँवों में लोग एक-दूसरे को फौरन पहचान जाते हैं, शहरों में पहचान कर भी नहीं पहचानते। बूढ़े आदमी ने मुझे कंबल दी, कहा, ‘सो जाओ।’ मैंने मना कर दिया, बस में सो चुका था, मैं। बूढ़े ने चिलम की पेशकश की, मैंने हाथ के इशारे से मना कर दिया। बात चलाने की गर्ज से मैंने पूछा, ‘बाबा, इस इलाके में बिजलियाँ इतनी जोर कड़कती हैं, कहीं गिरती नहीं है क्या?’

बूढ़ा बोला, ‘बिजली तो सब जगह इतनी ही जोर से कड़कती है। तुम शहरवालों का उसकी तरफ ध्यान नहीं जाता है।’

मैंने कहा, ‘इतनी देर तक, इतनी जोर कहाँ कड़कती है बिजली, शहरों में?’ बोल कर मैं खुद अपनी नादानी पर झेंप गया।

बूढ़ा हँसकर बोला, ‘आज विज्ञान का बोलबाला है, छोटे बच्चे भी जानते हैं कि बिजली क्यों चमकती है, बादल क्यों गरजते हैं।’ जानकारों की तरह बातें कर रहा था वह, बोला, ‘पुराने वक्त की एक बात बताता हूँ, उससे तुम नए तरीके से अंदाज लगा सकोगे कि बिजली क्यों चमकती है और उसके कड़कने से डर क्यों लगता है।’

उत्सुकता के साथ मैंने अपनी कंबल उसके पास खिसका ली। बूढ़ा बोला, ‘हजारों साल पहले हमारे महर्षियों ने जो वैज्ञानिक गवेषणाएँ की, वे आज के विज्ञान की तुलना में किसी प्रकार से कम नहीं थीं। जीवन की अल्पता और दीर्घता के रहस्य को जान लेने के बावजूद आज का विज्ञान उसका उपयोग कहाँ कर पाया? विकास के नाम पर जीवन को सिर्फ विध्वंस की ओर ही तो ले जा रहा है। यह तो तुम भी मानोगे कि विज्ञान की खोजों ने आदमी को जितना सुख दिया है, उससे अधिक दुख और तकलीफें उसके लिए तैयार की हैं।’

बात सच थी। बूढ़ा आगे बोला, ‘बरसात की इस रात में शहर से दूर तुम गांव में अपनी दादी के पास दौड़ कर जा रहे हो, इसमें कोई नई बात नहीं है। अपने पूर्वजों के प्रति सदियों से हर जाति और हर देश के लोगों के मन में श्रद्धा रही है। अज्ञात कारण वाले सुख और दुख दोनों को मनुष्य अपने पूर्वजों के प्रसाद और रोष का फल मानता आया है। ग्रहों को भी वह अपने भाग्य और कर्म का नियंता मानता है। उसका विश्वास है कि शुभ और अशुभ, कल्याण और अकल्याण सब ग्रहों के प्रभाव से और पूर्वजों के तुष्ट और असंतुष्ट होने से होता है।’ तरीके से कही हुई बूढ़े की बात से असहमत होने की वजह नहीं थी। उसे मानते हुए मैंने अपना सिर हिलाया।

ग्रहों की स्थिति और उनके प्रभाव के विषय में वैज्ञानिकों और महर्षियों की धारणाओं में विशेष अंतर नहीं है। लेकिन स्थूल अध्ययन के पश्चात् विज्ञान जितना जान पाया है उससे अधिक हमारे ऋषि अपने अनुभव, विचार और सूक्ष्म चिंतन के द्वारा जानते थे। सृष्टि के समस्त कार्य-कलापों को वे मानव के विकास और कल्याण के साथ जोड़ कर देखते थे। धर्म और दर्शन संबंधी उनके सूत्रों में मानव मात्र के हित की भावना होती थी। वे कोरे वैज्ञानिक सूत्र मात्र नहीं थे, जो मनुष्य के जीवन की एक साधारण पहेली तो हल कर देते हैं लेकिन उसे दूसरी बड़ी और गूढ़ पहेली के सामने ले जा कर खड़ा कर देते हैं।

बूढ़े के गूदड़े जैसे कपड़ों से उसके इतने ज्ञानवान होने का जरा भी पता नहीं चलता था। पता चलता तो मैं उसे पहले ही प्रणाम करता। अब चुपचाप सुनने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं था।

बूढ़ा बोला, ‘काश्यप संहिता में लिखा गया एक आख्यान सुनाता हूँ। प्रजापति ब्रह्मा ने काल, देव, असुर, मानव, वनस्पति आदि की सृष्टि की। असुरों में प्रविष्ठ होकर क्षुधा ने देवों और मनुष्यों का भक्षण करना शुरू कर दिया। असुर कन्या दीर्घजीह्वी मनुष्यों और देवों को खाने लगी। देवों ने स्कंद से प्रार्थना की ‘भगवान दीर्घजीह्वी को रोकिए, वह हम सबको खा जाएगी।’ स्कंद ने अपनी बहन रेवती को दीर्घजीह्वी का नाश करने के लिए भेजा। रेवती ने आकाश में चमकने और कड़कने वाली विद्युत का रूप धारण किया और दीर्घजीह्वी का नाश कर दिया। रेवती के विद्युत रूप को देखकर असुरों में भगदड़ मच गई। वे देवियों और मानुषियों के गर्भ में जाकर छिप गए। रेवती वहाँ भी ढूंढ़-ढूंढ़ कर उनका संहार करने लगी। जो पुरुष और स्त्री अधर्म का विवेक नहीं रखते, उनको असुर मान कर जातहारिणी खा जाती है। रेवती को स्कंद देव के परिवार का छठवां नक्षत्र माना जाता है। प्रसव के छठवें दिन, छठी का पूजा रेवती की पूजा है। रेवती का प्रकोप अधर्म के कारण होता है। काश्यप संहिता के रेवती कल्प में लिखा है,- ‘अधर्मस्याति संवृद्धया रेवती लभते अंतरम, रेवती से बचने का एकमात्र उपाय है धर्माचरण। जनश्रुति में यह भय कि रेवती याने विद्युत पाप करने वालों पर गिरती है और उनका नाश करती है, इसी आधार पर है। जब आकाश में बिजली कड़कती है तब हमें उससे डर लगता है। यह हमारे लिए चेतावनी स्वरूप होता है कि हमें पाप-कर्म छोड़ देने चाहिए।’

बूढ़ा बोल कर चुप हो गया। गढ़े में धंसी हुई उसकी आँखें मेरे चेहरे पर पड़ने वाले प्रभाव को देखने लगीं। मैं कुछ नहीं बोला, तब वही बोला, ‘यह उपाख्यान सिर्फ धर्म-कथा नहीं है, इससे बड़ी गहरी बातें स्पष्ट होती हैं। कथानक एक शैली है, बात को कहने और समझाने की कला, जिसके माध्यम से कथाकार अपनी बात को दूसरों के मन में बैठा देता है। रेवती कल्प भी ऐसी ही कथा है। रेवती ही वह ऊर्जा या विद्युत है जो प्राणशक्ति के रूप में सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इस बात के पीछे छिपे सत्य को कमोवेश वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। प्राणशक्ति का गलत प्रयोग जीवन के नाश का कारण बनता है, उसका संप्रयोग जीवन-प्रवाह और प्रजनन को पुष्ट करता है। कुत्सित विचार और कर्म अधर्म होते हैं, सदाचरण और संयमपूर्ण जीवन ही धर्म है। असुर रोग हैं, जो कुपथ्य और असंयम से उत्पन्न होते हैं। रेवती याने प्राणशक्ति रोगों का नाश और भक्षण करती है। इसलिए मनुष्य को नियम और संयम से जीना चाहिए। कश्यप ने भी कहा है- ‘एक बात याद रखना, जातहारिणी स्वयं कभी नहीं आती है, मनुष्य के दुष्कर्म ही उसको बुलाते हैं।’ जो व्यक्ति अपने कर्मों से दूषित है उसको पूर्वजों के पुण्य या देवताओं की कृपा भी नहीं बचा पाती है।’

बात बहुत सच्ची थी, मैंने अपने अंतर्मन में विचार किया और सिर हिलाया। जिज्ञासा को शांत करने के लिए सुयोग्य व्यक्ति सामने मौजूद था, मैंने पूछा, ‘आप कहते हैं कि अधर्म के परिणाम स्वरूप होने वाले दुखों से बचने के लिए देवताओं की कृपा का आश्रय लेना व्यर्थ होता है। जब देवता मनुष्य का दुख दूर नहीं कर सकते हैं, तब उनकी पूजा, अर्चना और परिचर्या करने से क्या लाभ है?’

पहली बार हँस कर बूढ़ा बोला, ‘देवता किसी की रक्षा करने स्वयं नहीं आते हैं, परंतु जो शरणागत होकर, प्रायश्चित की भावना से उद्धार की याचना करता है, उसे वे सुमेधा प्रदान कर सकते हैं, जिसके द्वारा वह अपने कर्मों का सुधार कर सकता है।’

बात चलती है, तब कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है। मैंने सोचा सचमुच रेवती ही वह प्राणशक्ति है, जो हर जगह, हर स्थान पर मौजूद है, वही मनुष्य के धर्माधर्म का फैसला करती है, उसे दंड देती है और सदाचरण करने की प्रेरणा भी।

बूढ़ा आगे बोला, ‘धर्माचरण की प्रवृत्ति के लिए हर आदमी के मन में विचार आता है कि वह अपने लिए एक गुरु की खोज कर और उसकी बताई हुई राह पर चले। मैं तो यही कहता हूँ कि आदमी मंत्र भले ही दस जप ले लेकिन गुरु सिर्फ एक ही बनाए वह भी अपने भीतर वाले को। बाहर का गुरु खोजने में वक्त लगता ही है, गलती भी हो सकती है। अपने भीतर इंसान को सच्चा गुरु मिलता है और अविलंब मिल जाता है।’

दिन का उजाला झांकने लगा। बूढ़ा बोला, ‘अब पानी उतर गया होगा, सबेरे वाली बस के आने का समय भी हो गया है। तुम जाने की तैयारी करो।’ मैं उठ खड़ा हुआ। जाते-जाते मैंने बूढ़े को झुक कर प्रणाम किया।

बूढ़ा बोला, ‘जाते हुए बाहर प्याऊ पर बने सिद्धि बुद्धि विनायक के मंदिर पर माथा टेकते जाना।’

मैं ठिठक गया। बहुत दिनों पहले इस मंदिर के बारे में और उसकी महिमा के बारे में किसी ने मुझे बताया था। उसका दर्शन सिद्धिदायक और बुद्धि-विवेक को प्रखर करनेवाला होता है, यह भी कहा था। लेकिन मन के आलस्य और मंदिर की स्थिति की पूरी जानकारी नहीं होने की वजह से दर्शन नहीं कर पाया। मैं बोला, ‘बाबा, बहुत दिनों से इस मंदिर के दर्शन की लालसा मन में थी। ठौर-ठिकाना मालूम नहीं था इसलिए वंचित रहा। आज आपकी कृपा से अनायास दर्शन मिल रहा है।’

बूढ़ा बोला, ‘मंदिर और देव स्थान का दर्शन तब तक नहीं मिलता है जब तक उसके अधिष्ठाता देवता की कृपा नहीं होती है। उसे दर्शन देना होता है तब वह किसी भी बहाने बुलाकर दर्शन दे देता है। और जब उसकी कृपा नहीं होती जब द्वार पर आए दर्शनार्थी को भी अप्रत्याशित बाधा के कारण लौट जाना पड़ता है, वह अनुभूत बात है।’

बूढ़े को पुनः प्रणाम कर मैं निकल पड़ा। प्रभात की सुरम्य बेला में सिद्धि बुद्धि विनायक के मंदिर में धृत का दीप जल रहा था। मरुभूमि के उस उजड़ प्रांतर में स्थित देव प्रतिमा चरणों में ताजा हरी दुर्वादल का ढेर पड़ा था जो किसी आश्चर्य के सरीखा था। अपने हाथों से देव प्रतिमा के चरण दबा कर अपना सिर छुआ कर मैंने अपने मन में शांति का अनुभव किया।

लगभग एक घंटे बाद मैं गांव में बड़ी माँ के पास बैठा था। बड़ी माँ रात भर जाग रही थी। रेवती भी सारी रात उसके पास बैठी थी। मुझे देखकर वह बोली, ‘भाई जी आ गए हैं, मैं जल्दी से अपने घर हो आती हूँ। आकर इनके लिए गरम चाय नाश्ता बना दूंगी।’

रेवती के जाने के बाद बड़ी माँ ने बताया कि रेवती का संबंध तय हो गया है। अगले कुछ महीनों बाद उसका विवाह होगा। फिर धीरे से बोली, ‘बेटा, रेवती के हमारे ऊपर बड़े उपकार हैं। उसके उपकारों का बदला कभी नहीं चुकाया जा सकता है, मैं भी नहीं चुका पाई। मैं नहीं रहूँ तो तुम लोगों से जितना बन पड़े उसकी मदद अवश्य करना।’ बड़ी माँ की बूढ़ी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर मैंने उसको भरोसा दिलाया कि मैं ऐसा ही करूँगा। नहा-धोकर तैयार हुआ तब तक रेवती अपने घर हो आई थी और उसने मेरे लिए गर्म चाय नाश्ता भी बना लिया था। उम्र में छोटी थी रेवती, लेकिन बातें बड़ों जैसी करती थी। बड़ी माँ ने कहा, ‘बेटा, यह मेरा बहुत ख्याल रखती है। मुझे किसी भी काम को हाथ नहीं लगाने देती है। यह ससुराल चली जाएगी, तब मेरा क्या होगा, बुढ़ापे के शरीर के हजार दुश्मन होते हैं, कब कोई रोग-बीमारी घर ले, कौन जानता है। मेरे गोडों में दर्द रहता है और सूझना भी कम हो गया है।’ रेवती मेरी तरफ देखकर हँसी, मानो कह रही हो कि अस्सी वर्ष की उम्र में यह सब तो अच्छे स्वास्थ्य की निशानी होती है। बोली, ‘माँ जी आप चिंता मत कीजिए, आपको कुछ नहीं होगा। मैंने मंडीवाले महंत जी से पूछा था, उन्होंने बताया कि डोकरी को कुछ नहीं होगा, बीमारी या बुढ़ापे की तकलीफों से नहीं मरेगी। कभी मरी तो, बिजली गिरने से भले ही मर जाए।’

बड़ी माँ बोली, ‘चल हट बावली कहीं की, बुजुर्गों जैसी बातें बनाती है। अभी तो तू मरी भी नहीं, और भूतनी बनती है।’ रेवती हँसी, ‘मेरी माँ भी यही कहती है कि बेंत भर की डाबड़ी, गज भर की जबान। मैं बहुत चखचख करती हूँ, इसीलिए।’

बड़ी माँ का ध्यान रेवती की बातों की ओर नहीं था, लंबी सांस लेकर बोली, ‘भगवान चलते हाड-गोड़ से उठा ले उसी में भलाई है।’

रेवती ने बड़ी माँ के गोडों पर हाथ रखा दिया, धीरे-धीरे दबाती हुई बोली, ‘माँ जी, ऐसा मत कहिए, बड़े बूढ़े ठंडक का ठांव होते हैं, उनसे घर में बरकत होती है। बूढ़े माँ-बाप तो तीर्थ के समान होते हैं।’ रेवती कह बड़ी माँ से रही थी, लेकिन समझा मुझे रही थी। बरसे सो मोह, ढलके सो नेह, बड़ी माँ की आँखों की कोर सुन कर गीली हो गई।

मैं थका हुआ था। दोपहर का खाना खाते ही आँख लग गई, संध्या के समय रेवती तुलसी बिरवै पर दीया जलाती, धूप करती और भजन गाती थी। संध्या पूजा के बाद रेवती बड़ी माँ का गोड़ पकड़ कर पास बैठ गई। संसार के संबंध और निर्यात की आधीनता के बारे में अपनी अक्ल और समझ के अनुसार ज्ञान की बातें बताने लगी। उम्र में उससे बहुत बड़ी, बड़ी माँ, सब कुछ जानते हुए भी ऐसे सिर हिलाने लगी मानो, पहली बार ज्ञान की बातें सुन रही हो। मैं उठकर वहाँ पहुँचा तब रेवती कह रही थी, ‘मिनख के मन के भीतर तो भगवान भी नहीं झांक सकते हैं माँजी, आप किसी के मन की कैसे जान सकती हैं।’ उसकी गूढ़ बात सुनकर मैं आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सका। बात शायद मेरे बारे में ही हो रही थी, बड़ी माँ, बोली, ‘देख तो, यह कहता है कि इस बार बहुत जल्द आएगा। लेकिन मैं जानती हूँ कि अगले बरस के पहले यह नहीं आएगा।’ बड़ी माँ के शब्दों में दर्द भरा था, बुढ़ापे की काया को वर्ष और महीना कैसे आता है, तब मैं नहीं सोच पाया था। बड़ी माँ मुझसे कभी कुछ नहीं माँगती थी। मैं जाता तब खुद ही, अपने मन से गर्म शाल, सफेद वायल के कपड़े का थान, काठ की खड़ाऊं आदि ले जाता। रेवती के लिए कभी कुछ ले गया, याद नहीं आता। लौटते समय उसके साथ में चंद रुपए थमा देता, जिसे वह बहुत संकोच के साथ, बार-बार ना कहते हुए ले लेती और मेरा मान रखती। कभी पूछता कि तुम्हें क्या चाहिए, तुम्हारे लिए क्या लाऊँ, तब हँसकर जवाब देती, ‘भाईजी, बस आप जल्दी आ जाना।’ रेवती ने अपने लिए कभी कुछ नहीं माँगा। अपनों पर अहसान करके भूल जाना, छोटे का स्वभाव होता है। बड़ों की आदत होती है अपने ऊपर किए हुए अहसान को याद नहीं रखना। लौटते वक्त रास्ते में यही सोचता रहा।

बड़ी माँ के साथ वही मेरा आखिरी मिलना था। उसके बाद मैं बड़ी माँ से नहीं मिल पाया। उसके हठात प्राणांत की सूचना पाकर उसकी पार्थिव देह को कंधा देने के लिए ही गाँव पहुँच पाया। जीवन के आखिरी क्षणों में रेवती बड़ी माँ के पास मौजूद थी। मृत्यु के नितांत अकेले पलों में उसी ने साथ निभाया था। आसन्न मृत्यु के मुख में उसी ने तुलसी दल और गंगाजल डाला और भूमि पर दाब-घास के आसन पर लिटाया था। अपनों की तरह वे सारे कर्तव्य किए थे, जिनको करने का फर्ज मेरा बनता था। दुख और लज्जा के मारे मुझे उससे यह भी पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि राम की राह देखते-देखते शबरी माई की आँखें मुंदी, तब उसके मन में क्या भाव आया। उसकी जबान पर राम का नाम आया या फिर मेरा नाम रटते-रटते ही उसने आँखें बंद कर ली। बूढ़े माँ-बाप की मृत्यु त्यौहार के समान होती है। बड़ी माँ के सारे कार्य हमने श्रद्धा के साथ किए। हर जगह, हर कार्य में रेवती बिन किसी आलस्य के दौड़ती-भागती रही। बड़ी माँ का सारा कारज करने के बाद, उसकी इच्छा के और श्रद्धानुसार सबको कुछ देकर हम लौट आए। रेवती के हिस्से का कुछ भाग हमने बाद में, उसके विवाह के अवसर पर देने के लिए अपने पास रख लिया।

विधि का विधान होता है। बड़ी माँ के गुजरने के कुछ महीनों बाद रेवती का विवाह हो गया। कहावत है कि बेटी जेठ के भरोसे नहीं जायी है, लेकिन गरीब ब्राह्मण के घर बेटी, सच में जेठ के भरोसे ही जन्म लेती है। गांव भर के जेठ आगे आते हैं तब उसके हाथ पीले होते हैं। बेटी और बैल में तो जरा भी फर्क भी नहीं होता है। हाथ पकड़ कर जिसके साथ कर दिया जाता है, दोनों चुपचाप उसी के पीछे-पीछे चले जाते हैं। इधर-उधर की मदद जुटा कर, रेवती का ब्याह, उसके घरवालों ने बड़ी उम्र के एक दूज वर लड़के के साथ कर दिया, जिसकी पहले से ही दो संतानें थी। बाल-बच्चों वाले संपन्न घर में खाने-पीने की कोई तकलीफ नहीं थी। गरीब की बेटी के लिए इतना-सा सुख काफी होता है, वह मिल जाए तो फिर उसे किसी और सुख की लालसा नहीं होती है। रेवती के विवाह में हमने भी मदद की लेकिन उसके उपकारों के जितना बड़ा दिल, हमारा नहीं हो पाया। हमने जो भी किया, वह इस तरह किया, मानो उसका अहसान चुकाने के बजाय, हम उस पर कोई अहसान कर रहे हों। समय और स्वार्थ आदमी के सोच को बदल देता है। इसे ही अकृतज्ञता कहते हैं और अहसान को भूल जाने से भी बड़ी अकृतज्ञता होती है किसी के प्रेम को भूल जाना।

रेवती से फिर दुबारा कभी मिलना नहीं हो पाया। सुनने में आया कि उसके ससुराल वाले ने उसे कभी नहीं भेजा। यह भी हो सकता था कि भाई-भाभी ने उसे बुलाया ही नहीं। ससुराल जाने के बाद बेटी नजरों की ओट हो जाती हैं। गरीब की बेटी का ससुराल तो, वह मसानों में जाती है, तभी छूटता है। रेवती के हाथों में लिखी हुई बड़ी माँ की चिट्ठियों को आज भी देखता हूँ तब उन्हें सिर से छुआता हूँ। उनमें कस्तूरी-चंदन की सुगंध आती है। रेवती का स्मरण हो आता है तब मन में लज्जा का अहसास होता है। अकृतज्ञता भी एक दुराचरण होती है, मगर इस कलियुग में उसका दंड देने के लिए रेवती कभी नहीं आती है। मन रीता-रीता सा हो जाता है, बूढ़े बाबा की कही हुई बात याद आती है। कृतज्ञता रहित हृदय वैसे ही होता है, जैसे जल-शून्य जलाशय और शिव-शून्य शिवालय।


Original Image: Old Woman Peeling An Orange
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Artist: Edward E. Simmons
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