संगिनी

संगिनी

गाड़ी से उतर कर भोला पैदल ही घर की ओर चल पड़ा। स्टेशन से थोड़ी ही दूर पर तो उसका गाँव है, जहाँ चारों ओर लहलहाते अरहर के खेत हैं, पीली-पीली सरसों फैली है, हरे-हरे चने फूले हैं, और उस हरियाली के बीच, अँगूठी के नगीने के समान बसा हुआ है उसका छोटा-सा, आठ-दस छप्पर के घरों का गाँव ललितपुर!

अपने जन्म के बाद से अब तक के इक्कीस वर्ष उसने इसी गाँव की भूमि में लोट कर, इसी की रज में खेल कर, और इसी के वृक्षों की छाया में विश्राम कर के काटे थे। उसे याद आया, आज से 6 माह पूर्व, जब शहर जाने की बात उसने अपनी वृद्धा, विधवा माँ से कही थी, तो अनायास ही वह कितनी उदास हो उठी थी। उसकी बूढ़ी कमजोर हो आई आँखों में अपने आप ही फल-फल कर के आँसू उमड़ आए थे, तब वह कितना विह्वल हो उठा था। उसने एक बार सोचा कि अपनी माँ को अकेली छोड़कर वह कहीं नहीं जाएगा! इस छोटी-सी दुनिया में अपना कहने को उसके लिए माँ है, श्यामा है और सलोनी-सी रूपा है! साढ़े तीन व्यक्तियों के उस घर में शांति अपने पंख फैलाए पड़ी रहती, सुख अपना डेरा डाले रहता, परंतु अभाव की आँधियाँ कभी साथ न छोड़तीं–वह गरीब था!

अपने अभाव की बात सोचते ही वह उदास हो गया। दो साल पहले की एक-एक घटना उसकी पलकों के आगे थिरक उठी…तब उसके पिता जीवित थे! एक दिन मिरजई पहन, बटुए में कुछ सुपारी-तमाखू भरकर, पैरों में जूते डाल और हाथ में लाठी लेकर कहीं जाने को तैयार हो कर उन्होंने उसकी माँ से आकर कहा था कि वे श्यामा को देखने जा रहे हैं!

सुन कर उसका अंग-अंग पुलक से भर उठा था, उसके रोम-रोम से प्रसन्नता फूट पड़ी थी और वह न जाने कितना विभोर हो उठा था। श्यामा की आकृति उसकी आँखों में डोल गई…गाँव भर उसके रूप पर मुग्ध था–बड़ी-बड़ी मृगी जैसी आँखें और कनपटी से कुछ हट कर वह काला तिल उसके सौंदर्य में चार चाँद लगा देते थे। एक दिन इसी श्यामा को लेकर वह अपने पड़ोसी साहू से लड़ बैठा था! श्यामा को अपने घर ले आने की उसकी बड़ी तमन्ना थी, और जब उसने सुना कि उसके पिता श्यामा को देखने जा रहे हैं, तो वह खुशी से झूम उठा!

पिता के चले जाने के बाद माँ ने अधरों में मुस्कुरा कर उसे यह बात बताई थी–उन्हें बहुत पहले से मालूम जो था कि वह श्यामा को बहुत प्यार करता है, और इसी से बहुत रोकने पर भी, उसकी विहँसती मुस्कान माँ की आँखों से छिपी न रह सकी थी! उस दिन जब वह खेत पर गया तो उसका वहाँ तनिक भी मन न लगा। रह-रहकर एक विचार उसके मस्तिष्क में कौंध आता…श्यामा के विषय में उसके पिता क्या निर्णय करेंगे?…अगर वे तैयार न हुए तो वह उनसे लड़ पड़ेगा, क्योंकि वह श्यामा के बिना बिल्कुल नहीं रह सकता! उसने सबसे पहले उसे पनघट जाने वाले रास्ते में देखा था, तभी से उसे लगन हो गई थी कि वह उसे अपनाकर ही रहेगा। अपने पिता से कह कर वह उसे अपने साथ लिवा लाएगा…तब उसके उस छोटे से घर की रौनक न बढ़ जाएगी? जब उसने अपनी माँ के आगे अपना प्रस्ताव रखा तो माँ बहुत प्रसन्न हो उठी थी। कितने दिन की मुराद उनकी पूरी होने जा रही थी, और उन्होंने कह-कह कर आरजू-मिन्नत करके, हाथ-पैर जोड़ कर पिता को भी राजी कर लिया था, और अब उसके पिता श्यामा को देखने गए हैं–इस विचार मात्र से उसका अंग-प्रत्यंग मानो फड़क उठा। उसने कल्पना की मानो श्यामा उसके घर आ गई है और लोग उसके भाग्य की सराहना कर रहे हैं! उसे लगा वह उसके बहुत निकट खड़ी है, उसकी भावभरी मूक दृष्टि ही सब कुछ कह डालना चाहती है, और उन मदमाती आँखों की उस चितवन से आकुल होकर वह उसके सिर पर हाथ फेरने लगता है।

गोधूलि अभी दूर थी! वह मचान पर बैठा श्यामा के ही विषय में सोच रहा था–अचानक उसका जी ऊबने लगा, वह कूद कर मचान से नीचे उतर आया और अपने घर की ओर चल पड़ा। कुछ दूर जाकर उसने देखा, रामू की गाय उसके खेत की मुँड़ेर पर खड़ी थी, पर उसने ध्यान नहीं दिया–आज वह श्यामा के स्वागत की तैयारी करने जा रहा था!

घर के द्वार पर पहुँच कर उसे अपने पिता की लाठी कोने में टिकी दिखाई पड़ी। अनायास ही उसके मुख पर भावों की लहरें घुमड़-घुमड़ कर आने-जाने लगीं, उसका हृदय धक-धक कर उठा, पल भर को पैर काँपे और तब वह जल्दी से अंदर घुस गया। आँगन में हुक्का पीते हुए उसने अपने पिता को देखा, उसकी प्रश्न भरी निगाहें उनकी ओर उठीं। उन्होंने भी उसका आशय समझ कर धीरे से मुस्कुरा कर उसकी पीठ थपथपाते हुए उसे वह शुभ संवाद सुनाया था! वह वहाँ अधिक देर न रुक सका–कुछ देर में ही उठ कर बाहर नीम के पेड़ के नीचे पड़ी टूटी-सी चारपाई पर जा बैठा। श्यामा उसके विचारों की केंद्र थी और आशाओं की प्रतीक! उसके विषय में सोचते-सोचते वह स्वयं ही मुस्कुरा उठता, और जब उसे भान होता कि वह अकेला बैठा है, तो वह कितना झेंप जाता था।

और इतने अरमानों के बाद एक दिन वह श्यामा को अपने घर लिवा ही लाया! श्यामा भी चुपचाप, अपनी पलकों की कोरों में आँसू दबाए उसके साथ चली आई, बार-बार मुड़कर वह पीछे देखती…जहाँ उसका जन्म हुआ, बचपन बीता, वहाँ से छुड़ा कर यह अनजान, अपरिचित उसे कहाँ ले जा रहा है? उसकी ओर देखकर वह मुस्कुराया और बहुत प्यार से उसकी पीठ थपथपाने लगा था!

श्यामा उसके घर आ गई, तो उसका अधिक समय उसके पास ही बीतने लगा। रात में न जाने कब तक वह श्यामा से बातें करता रहता, उसका मुँह ऊपर को उठा कर न जाने कितना प्यार उँड़ेल देता उस पर, उसकी आँखों में झाँकता और बहुत स्नेह से उसके माथे का चुंबन लेकर वह अपनी चारपाई पर जा लेटता! इसी प्रकार व्यग्रता और संतोष के बीच दिन आए, और चले गए।

एक दिन, जब वह खेत पर था, रामू के लड़के ने दौड़ते हुए जाकर हाँफते-हाँफते उसे बताया था कि श्यामा ने रूपा को जन्म दिया है। वह प्रसन्न होकर जल्दी-जल्दी घर आया…रूपा को देखकर उसका मानस पुलक से भर उठा था–बिल्कुल श्यामा जैसा रूप, वैसी ही नशीली आँखें और उतना ही ऊँचा मस्तक! उसने झुक कर उसके माथे को चूम लिया था!

उसकी श्यामा!

उसकी रूपा!

छप्पर से छाये उस छोटे से घर में मानो आकाश से सुख की वर्षा हो गई हो! उसे याद आया, पड़ोसी साहू जब उसे बधाई देने आया तो उसकी आँखों में ईर्ष्या का भाव कितना स्पष्ट था, जिसे देखकर वह मुस्कुरा दिया था–तीखी, उपेक्षा भरी मुस्कान! और तब रूपा उस छोटे से आँगन में खेल कर, उछल-उछल कर, भूमि पर लोट-लोट कर धीरे-धीरे बड़ी होने लगी थी! पिता देख-देख कर बहुत प्रसन्न होते, खेत पर से लौटते, तो सीधे रूपा के पास पहुँचते, उसे खिलाते, उससे बातें करते और घंटों बैठे रहते जब तक माँ बुलाने न आ जातीं। तब वे रूपा को प्यार कर, उसके सिर पर हाथ फेर उनके पीछे-पीछे चले आते और चारपाई पर लेटकर कुछ देर आराम करते। जब वह काम पर से लौटता, तो आँगन में पिता के पास बैठकर कुछ देर उनसे बातें करता, पर उसका मन श्यामा के पास जाने को अकुलाता रहता, रूपा को खिलाने को मचलता रहता! पिता उसकी व्यग्रता जब समझ जाते, तो मुस्कुरा देते, और तब वह कितना झेंप जाता था!

भोला ने ठंढी साँस ली और इधर-उधर देखा! अभी तो वह स्टेशन से आधी ही दूर आ पाया था। उसने अपनी चाल तेज की। सामने से काले-काले बादल झूमते चले आ रहे थे, कहीं पानी न बरसने लगे, सोच कर वह जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने लगा। ठंढी हवा का एक झोंका आकर उसके शरीर से टकरा गया–उसके बदन में सिहरन-सी हुई, उसने अपने चारों ओर निगाहें फेरीं अभी गाँव दूर था। एक लंबी साँस खींच कर वह लंबे-लंबे डग भरने लगा–विचारों की टूटी हुई शृंखला फिर जुड़ गई।

गर्मी के दिन थे वे! भोला के सिर में दर्द था। उसके पिता अकेले ही खेत पर चले गए थे उस दिन। दोपहर को बारह बजे जब उसकी माँ रोटी लेकर जाने लगी, तो वह चारपाई से उतर कर नीचे आ गया और माँ के बहुत रोकने और मना करने पर भी वह उस तपती दुपहरिया में पिता के लिए रोटी लेकर खेत की ओर चल दिया था। रास्ते भर वह अपने पिता के विषय में सोचता चला जा रहा था कि अब वे वृद्ध हो चले हैं, दिन-दिनभर उनका खेत पर काम करना किसी भी प्रकार युक्ति-संगत नहीं है। उसने मन-ही-मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह अब और उन्हें इस प्रकार तन नहीं तोड़ने देगा, वह अब स्वयं रोज़ खेत पर जाएगा…रोज़ जाएगा!

कुछ दूर पर उसका खेत दिखाई पड़ने लगा पर हल चलाते हुए उसके पिता उसे नज़र न आए। जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता हुआ वह अपने खेत की मुँड़ेर पर जा पहुँचा–हल एक ओर पड़ा था, उसके पिता वहाँ न थे। उसने निगाह फैलाकर चारों ओर देखा–सामने रामू के खेत के किनारे आम के पेड़ के नीचे कुछ लोग जमा थे। उसका शरीर ज्वर से तप रहा था और रामू उन्हें लोटे से पानी पिलाने के प्रयास में संलग्न था। वह दौड़कर अपने पिता से लिपट गया। उन्हें लू लग गई थी! किसी तरह उन्हें लेकर घर आया, दौड़ा-दौड़ा वैद्य जी के पास गया। उन्होंने भी अपनी मूछों पर ताव देकर कुछ देर सोचा, फिर एक लंबा-सा नुस्खा बता दिया साढ़े ग्यारह रुपए का। साढ़े ग्यारह रुपए! उसने एक बार सोचा, और लौटकर माँ के पास पहुँचा। माँ के सब गहने गिरवीं रखे जा चुके थे, एक पैर की पायल भर बची थीं। आँखों में आँसू भरकर वह उन्हें भी उठा लाया।

वैद्य जी ने दवा दी, दो बार आकर देखा, तो चार रुपए फ़ीस के भी माँगे और सुबह होते-होते पायल गिरवीं रखकर लाए हुए सोलह रुपए खतम हो गए, परंतु ज्वर से बेसुध पिता वैसे ही पड़े रहे। उन्होंने आँख खोल कर देखा तक नहीं! अकुला कर उसने वैद्य जी के पैर पकड़ लिए, वैद्य जी ने शब्दों के जाल में लपेट कर सांत्वना दी…पर उसका सतत प्रयास और माँ की लाखों चिरौरियाँ, विनतियाँ, मनौतियाँ भी प्रयाण करते प्राणों को रोकने में समर्थ न हो सकीं। दोपहर आते-आते उसी प्रकार ज्वर में तपते हुए, लाल-लाल आँखों में वेदना का सागर लिए हुए उसके पिता ने दम तोड़ दिया। वह सूनी-सूनी-सी निगाहों से देखता रहा–खोए-खोए से मन से उसने चिता में आग दी और जब वह धू-धू कर के जल उठी, लपटें उठ-उठ कर आकाश को छूने लगीं, तो वह फूट-फूट कर रो पड़ा था। धैर्य का बाँध टूट गया और उसकी पगली आँखों से टप-टप कर आँसू चू पड़े थे! पिता की तेरही हुई और महाजनों के दूत उसके सिर पर यमराज के दूतों के समान आकर सवार हो गए। महीने भर में ही वह सब खेत और जमीन बेच कर शहर चला गया था नौकरी की तलाश में…हाँ, नौकरी की तलाश में…और अनायास ही अपने जाने का दृश्य उसकी पलकों के आगे साकार हो उठा।

जब उसने अपनी विधवा वृद्धा माँ से शहर जाने की बात कही थी, तो अनायास ही वह कितनी उदास हो उठी थी। उसकी बूढ़ी, कमजोर हो आई आँखों में कितने आँसू एक साथ उमड़ आए थे, और तब वह कितना विह्वल हो उठा था! उसने एक बार सोचा भी कि वह अपनी माँ को यहाँ अकेली छोड़ कर कहीं नहीं जाएगा, श्यामा का वियोग उससे सहन नहीं होगा, परंतु समय की निर्बाध गति में किसी का हस्तक्षेप नहीं हो सकता। उसे शहर जाना ही पड़ा। जाते समय वह श्यामा से लिपट कर उसकी गर्दन में हाथ डाल कर कितना व्याकुल हो गया था। श्यामा ने भी मौन रह कर आँखों से आँसू बहा कर उसे विदा दी थी। और रूपा को प्यार करते समय तो वह बिल्कुल विक्षिप्त-सा हो गया था। रूपा की भोली आँखें कुछ समझीं, और कुछ नहीं, पर उनमें उदासी अवश्य छा गई थी।

चलते समय माँ के चरणों में झुक कर उसने विदा माँगी थी और माँ की आँखों से गर्म-गर्म आँसू की बूँदों ने टपक कर मानो उसे आशीर्वाद दिया था। पैरों में पिता के जूते पहन कर, उन्हीं की लाठी सँभालकर वह शहर जाने वाली सड़क पर चल पड़ा था। गाढ़े का कुर्ता, गाढ़े की धोती और एक अंगोछा–यही उसकी संपत्ति थी!

दोपहर को वह शहर जा पहुँचा। वहाँ की चमक-दमक के बीच वह पागलों-सा खड़ा रह गया। इतनी सारी छोटी-बड़ी सड़कें…इतने ढेर से बिजली के खंभे, लाल पगड़ी बाँधे पुलिस के सिपाही, सड़कों पर फिसलती मोटरें, दो पहिए वाली साइकिलें, तीन पहिए वाला रिक्शा वहीं चौराहे पर वह घंटे भर तक खड़ा सोचता रहा कि किधर जाए। फिर धीरे-धीरे वहाँ से चलकर वह एक स्थान पर आकर खड़ा हो गया, यहाँ उसके चारों ओर गाँव की सी हरियाली थी, कुछ-कुछ वैसा ही दृश्य था–यह सब्जी मण्डी थी।

एक मेम साहब की तरकारियों का टोकरा उठाए वह उनके पीछे-पीछे उनके बँगले तक गया, न जाने कौन-कौन सी गलियों और सड़कों के बीच होता हुआ वह वहाँ जा पहुँचा था, उसे सब कुछ भूल-भुलैया सा लगता था। बँगले पर पहुँच कर मेम साहब ने ‘बैग’ में से निकाल कर एक रुपया उसके हाथ पर रख दिया, तो उसे लगा, शहर में पैसा कमाना कितना आसान है।

वहाँ से चला तो हैरान था कि कहाँ जावे, कुछ देर फाटक पर खड़ा सोचता रहा, फिर लौट पड़ा। मेम साहब अभी तक बाहर किसी से बातें कर रही थीं, उसे देखकर चौंक पड़ी। उसने बड़ी अनुनय-विनय की और तब बड़ी दया करके उन्होंने उसे बीस रुपए, खाने-कपड़े पर माली रख लिया था। बीस रुपए। उसकी आँखों के आगे नोटों की गड्डी नाच उठी, वह जल्दी से सब का कर्जा अदा कर देगा और अपने खेत छुड़ा लेगा!

आज छ: महीने बाद वह अपने गाँव जा रहा है। उसका हाथ अपने कुर्ते की जेब में पहुँच गया। बड़े-बड़े मोतियों की माला उसके हाथ में आ गई–यह माला वह श्यामा के लिए लाया है। ऐसी ही एक माला वह रूपा के लिए भी लाया है, मेम साहब से उसने पाँच दिन की छुट्टी ली है…वह फिर वापस जाएगा?

उसने अपनी आँखों को फैला कर देखा–दस क़दम की दूरी पर उसके गाँव के छप्पर वाले घर दिखाई पड़ने लगे थे। अब वह आतुर हो कर जैसे भागने लगा!

धीरे से दरवाज़ा खोलकर वह अंदर घुसा–माँ सामने चारपाई पर बैठी चावल बीन रही थीं, उसे देखते ही उठ खड़ी हुई। उसने झुक कर उनके चरण छुए, तो उन्होंने घसीट कर उसे अपने अंक में भर लिया। माथे पर, आँखों पर, ग्रीवा पर न जाने कितना प्यार किया और उसने विभोर हो कर माँ के अंक में अपना मुँह छुपा लिया।

थोड़ी देर बाद माँ चौके में चली गईं, तो श्यामा के पास पहुँचा। श्यामा ने आँखें उठा कर उसकी ओर देखा, न जाने कितने शिकवे भरे पड़े थे उन निगाहों में! भोला ने झुक कर रूपा के गले में लाल-लाल मूँगों की वह माला डाल दी–रूपा का रूप जैसे निखर उठा। उसने उसका माथा चूम लिया।

अब वह फिर श्यामा की ओर मुड़ा। श्यामा वैसी ही आँखों से, निगाहों में गिला भरकर उसकी ओर देख रही थी। भोला मुस्कुराया। उसने धीरे से अपनी जेब में हाथ डाल कर बड़े-बड़े नीले मोतियों का माला बाहर निकाल ली और उसके निकट जाकर प्यार से श्यामा के सिर पर हाथ फेरा। श्यामा की आँखें जैसे तृप्त हो चली थीं। अचानक भोला उसके गले से लिपट गया। उसके मन का आवेग आँखों में छलछला आया। उसने उस माला को हाथ में लेकर पल भर देखा, और धीरे से श्यामा के गले में डाल कर मुस्कुराया।

श्यामा का रूप कंचन की तरह निखर आया। भोला को वह इतनी प्यारी लगी, इतनी प्यारी कि उसने प्यार से उसे पूर दिया और तब श्यामा ने पंचम स्वर में रँभा कर उसके प्यार का प्रत्युत्तर दिया। उसकी बड़ी-बड़ी मृगी-सी आँखों में चमक आ गई थी, कनपटी से कुछ हट कर वह काला तिल उसी प्रकार उसकी सुंदरता में चार चाँद लगा रहा था और भोला की पहनाई हुई नीले मोतियों की माला गले में बँधी खूँटे की रस्सी को अब भी अपने अंक में लपेटे पड़ी थी।


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