सौंदर्य-संगीत

सौंदर्य-संगीत

“उसका घड़ा भर गया है शायद। उसने मेरी ओर देखा। मैं उसकी ओर देख रहा था, फिर भी लगा कि कोई नई घटना हो गई हो। वह मुस्कुराई। क्यों? इसलिए कि उसका यौवन यही आज्ञा देता है।”

कमल का फूल पूरी तरह से खिल गया था! भौंरे कुछ गुनगुना रहे थे और सूर्य के हल्के प्रकाश में उसकी छाया पानी पर नृत्य कर रही थी। उसके चारों ओर छाए हुए पत्तों पर पानी की कुछ बूँदें चमक रही थीं! एक अधखिला फूल पास बैठा-बैठा संभवत: थक गया था। उसने चुपचाप अपना सिर पत्ते के एक कोने पर झुका लिया था!

जो कुछ सत्य है, उसका वर्णन न जाने कितने शब्दों में कितनी तरह किन-किन व्यक्तियों ने किया है। पर कमल का सौंदर्य आज भी वैसा ही बना हुआ है–वही रूप, वही रंग, वही सौंदर्य!! कवि की वाणी अमरता प्राप्त करती है या सौंदर्य कवि को अमर बना देता है? कवि की वाणी अमर है और सौंदर्य की आत्मा भी!

प्रकृति की एक और कृति! रहस्य की प्रतिमा सौंदर्य का साकार रूप! संभवत: इसीलिए वह अधिक नजदीक है, अधिक आवश्यक है।–सामने पनिहारिन चली आ रही है! जीवन की छाया में यौवन आतिश्य ग्रहण करता है, तो व्यक्ति मुस्कुरा उठता है। जब ब्रह्मा द्वारा रचित सृष्टि में व्यक्ति की अभिव्यक्ति सौंदर्य का उद्घाटन करती है, तो कवि की वाणी और ब्रह्मा की सृष्टि दोनों सार्थक हो जाते हैं! हल्के गुलाबी रंग की चुनरी ओढ़े, सिर पर पीतल का चमकता हुआ घड़ा लेकर वह चली जा रही है! कुछ सोच रही है! उसके यौवन की बहार उसकी काया में समा नहीं सकेगी; तभी तो उसके गोलाकार स्तनों के चारों ओर एक महामूर्ति की स्थापना हो गई है! इस चारों ओर की सृष्टि में व्याप्त जो संज्ञा है, वह कुछ दिनों के पश्चात् स्तनों का दुग्ध पान करती हुई ब्रह्मा से एक बार और सौंदर्य सृजन करने का आग्रह करेगी!

संगीत की काँपती हुई आवाज में जैसे कोई जनप्रतिनिधित्व करने वाला लोकगीत उसके आँचल को बार-बार छू-छू जाता है! बड़ी-बड़ी आँखों से वह कुछ सूक्ष्म गति से देखती हुई चली जाती है। जैसे वह कुछ खो बैठी हो और ढूँढ़ना चाहती हो; पर उसे अपनी चीज मिल नहीं रही हो। जैसे पूनम की रात में चाँदनी एकत्रित होकर अपने प्रकाश में उस सुंदर पनिहारिन के सौंदर्य में चार चाँद लगा रही हो!

उसके बाल लहरा रहे हैं, जैसे फूल! उड़ने पर चमकने वाले सुंदर जुगनूँ, जैसे भोर का अदृश्य होता हुआ सितारा! उसके केश बार-बार घूम-घूम कर उस पर छा जाते हैं, उसे इसकी परवाह नहीं है। संभवत: वह किसी घोर चिंता में निमग्न हो! उसका तृषित-अतृप्त यौवन जैसे असंतुष्ट हो और वह तुष्टि पाने के लिए पानी लाते समय चिंताओं से पिंड नहीं छुड़ा सकी हो!

उसकी पायल बज रही है! उसके वस्त्रों को हवा में उड़ते देखकर लगता है जैसे पवन का इस प्रकार का कार्य कोई खास मतलब रखता है, कुछ कहना चाहता है!

गोरी का यौवन जैसे चंचल होकर छितर जाना चाहता हो। पूछना चाहता हूँ, तुम किसी की प्यास बुझाने आई हो अथवा पानी भरने! तुम्हें तुम्हारे प्यारे गीतों की सौगंध है, सच कहो!

मैं जानता हूँ कि वह कुछ भी उत्तर नहीं दे सकेगी और चुपचाप मुस्कुरा देगी। उसकी इसी मुस्कुराहट में जीवन की हार छिपी हुई है और मौत की विजय भी! उसके कदम बढ़ते चले आ रहे हैं!

तालाब में कमल काँप रहा है। मेरे मन के भावुक डोरे भी काँप रहे हैं, एक रंगीन सुंदर जाले का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें तड़पना भी जीवन की जीत है। उससे छुटकारा पा जाना संभवत: संसार की सबसे दयनीय स्थिति!

पानी डब्-डब् करता है, जैसे किलकारी भर रहा हो। गोल घूम जाने वाले वृत विशाल होते जा रहे हैं, विशाल होते जा रहे हैं–और उसके बाद वे नष्ट हो जाते हैं!

तुम्हारा सौंदर्य, तुम्हारे सौंदर्य की मादकता क्या इसी प्रकार घूम-फिरकर नष्ट हो जाने के लिए है पनिहारिन?

उसका घड़ा भर गया है शायद। उसने मेरी ओर देखा। मैं उसकी ओर देख रहा था। फिर भी लगा कि कोई नई घटना हो गई हो। वह मुसकराई। क्यों? इसलिए कि उसका यौवन यही आज्ञा देता है। इसलिए कि काँपते हुए कमल के चारों ओर भौंरे चक्कर लगाते हैं! इसलिए कि पानी घड़े में समा जाने से पहले शोर करता है, चीत्कार भरता है!

“पनिहारि-ए–लो!” मैंने आकाश की ओर देखकर कहा! एक लोकगीत याद था। किसी पनिहारिन को देखकर ही किसी जन-कवि ने इस गीत का निर्माण किया था। उसका चमत्कार वास्तव में कितने गजब का था, पनिहारिन ने मेरी ओर देखा। संभवत: वह आँखों में ही याचना कर रही हो, जरा यह घड़ा मेरे सिर पर रखवा दो न! मैं उठा। शीघ्रता से घूम गया। बूट चरमर कर रहे हैं। अपनी सुसज्जित वेशभूषा में मैं उसके समीप उसकी ओर एकटक देखता हुआ चला जा रहा हूँ। जैसे स्वर्ग अचानक मेरे समीप आ गया हो कि उसमें मेरा प्रवेश करना मुश्किल हो गया हो! मैं उसके समीप जाकर खड़ा हो गया। मुस्कुरा कर, अपने सिर पर आ जाने वाले बालों को पीछे की ओर झटक कर, मैंने कहा–“पनिहारि–ए-लो!” वह खड़ी हो गई, अपने घड़े की ओर फिर झुक गई! मैंने अनजाने में ही कह दिया, ‘अच्छा!’

पालिश से चमक रहे मेरे जूते पानी में चले गए! मैंने घड़ा उठाया। उसके सिर पर रख दिया। छाती के समीप जाते-जाते मेरे साथ उसके वक्ष-स्थल को छू गए। एक सिरहन शरीर में काँपी, मैं व्यवस्थित हो गया। होठ जैसे कुछ न कहना चाहते हुए भी खुल गए। मैंने कहा “पनिहारिन?”

उसने सुना नहीं। वह चली गई। पर उसका प्रत्येक आगे बढ़ने वाला कदम मेरे प्रत्येक शब्द को सुनने के लिए आतुर था! मैं क्या कहूँ, मैं समझ नहीं सका!

कमल के काँपते हुए होठों को मैं प्रत्येक दिन देखने जाता। उसके चारों ओर मँडराते हुए भौंरों को मैं बधाई देता। कितने सौभाग्यशाली हो तुम! पनिहारिन रोज पानी भरने आती है! कभी-कभी मैं उसके सिर पर उसका घड़ा रखवाने में मदद भी कर देता हूँ; पर कमल को जिस प्रकार भौंरे चूम सकते हैं। मैं वैसा नहीं कर सकता। शायद आदमी को ऐसा करना भी नहीं चाहिए।

एक दिन!

बरसात हो चुकी थी। मैं तालाब के किनारे बाँसुरी बजा रहा था! मिट्टी की गंध कुछ अधिक आकर्षक हो गई थी। पनिहारिन आज भी पानी भरने आई थी। सुनसान। मैंने साहस करके कहा–

पनिहारिन?

हाँ!

तुम रोज यहाँ पानी भरने आती हो?

हाँ!

मुझे तुम रोज देखती हो न?

हाँ!

तुम्हें बुरा तो नहीं लगता, पनिहारिन?

मेरा नाम राधा है!

राधा, तुम्हें बुरा तो नहीं लगता?

क्या?

मैं तुम्हें चुपके-चुपके देखा करता हूँ।

नहीं!

पनिहारिन?

नहीं, राधा!

राधा!

हाँ!

जिस दिन तुम देर से आती हो। मुझे अच्छा नहीं लगता।

क्यों?

मैं नहीं जानता राधा! एक बात बताओ!

हुम्…

इस कमल पर ये भौंरे क्यों मँडराते हैं?

मैं नहीं जानती!

तुम बहुत सुंदर हो राधा!

वह चुप!

राधा, कुछ बातें करो!

क्या?

तुमने पानी भर लिया?

हाँ!

उठवा दूँ।

हुम्!

एक कंपन। मैंने उसके सिर पर घड़ा रख दिया।

राधा, तुम क्या सोचती हो?

कुछ भी तो नहीं।

नहीं, कुछ न कुछ अवश्य सोचती हो!

देर हो रही है। मैं जाती हूँ।

राधा! मैं तुम्हें अच्छा नहीं लगता?

ऐसा नहीं।

तुम उदास क्यों हो राधा?

‘वे’ बहुत बीमार हैं।

मुझे धक्का-सा लगा! ‘वे’ का अर्थ होता है–उसका पति! मैं चुप हो गया। उसे एक आदमी की कितनी चिंता है। सौंदर्य चिंतन भी करता है, विधि की कैसी विडंबना है। ओह!

दो दिनों के बाद!

उसने कहा–

‘उन्होंने’ मुझे तुमसे बातें करते देख लिया है।

क्या कहा?

कुछ नहीं। कहते थे : किसी से बात की, तो जहर खा लूँगा!

इतने ओछे आदमी हैं तुम्हारे पति देवता!

छि:, कैसी बातें करते हो। वे बहुत अच्छे हैं।

और, मैं? मैं कैसा हूँ?

तुम भी बहुत अच्छे हो।

तुम, राधा, किसी एक को धोखा देना चाहती हो।

तुम भी ऐसा कहते हो परदेसी!

ठीक कहता हूँ।

तुमसे मिलने नहीं आई, तो तुम भी जहर खा लोगे?

चेहरे पर भोलापन काँपकर विलीन हो गया!

मैं समझा नहीं, सुझे क्या उत्तर देना चाहिए। मैंने अनजाने में ही कह दिया “हाँ”!

उसके बाद तीन दिन तक वह नहीं आई। मैं उसके सौंदर्य को एक बार चुनौती देना चाहता था। देख–यह है तेरा रूप, यह तेरा यौवन! यह है तेरी जिंदगी, जो मुझे भस्म किए जा रही है। मैं जहर खा लूँगा, समझी। मैं तुझे प्यार करता हूँ। दीपक से पतंगा मिल नहीं पाता है, तो अपना सिर पीट कर समाप्त हो जाता है, समझीं! मैं कहना चाहता था। पर वह न आई, न आई! जैसे रात पिघलती गई और उस ठंढी बर्फ पर मैं अकेला खड़ा रहा। कमल के फूल खिलते; मुर्झा जाते। भौंरे दूसरे फूल पर मँडराने लगते। पर, एक पनिहारिन–एक राधा! एक औरत!! एक सौंदर्य-सृष्टि!!!

तालाब के किनारे बैठकर राधा का इंतजार करता हूँ! जाने वह कब आ जाए! सोचता हूँ, उसे अपने पति की अधिक चिंता होगी जो कि मुझसे बात करने पर आत्महत्या कर सकता है। पर, आत्महत्या तो मैं भी कर सकता हूँ! मैंने उसे कहा भी था। उसका पति–नारकीय कीड़ा। ब्रह्मा की सृष्टि पर एकाधिकार चाहता है! नीच, कुत्ता!! मैं उसका गला घोंट देना चाहता हूँ। कदमों की तेजी सड़कें नापती चली जा रही है। आज मेरे सिर पर भूत सवार है। मैं उस सौंदर्य पर एकाधिपत्य जमाने वाले की हत्या कर डालना चाहता था।

राधा का घर मैं जानता हूँ। उसके घर के समीप जाकर मैं पागलों की तरह चिल्लाया ‘राधा!’

एक बूढ़ा नौजवान मेरे सामने आया। वह एक क्षण तक चुपचाप मेरी ओर देखता रहा। धीरे से बुझे हुए स्वर में उसने कहा–वह मर गई!

मर गई? क्यों? कैसे?? कब???–प्रश्नों की विशालता!

मेरे कदम वापस मुड़े गए। मैं जानता हूँ कि वह क्यों मर गई, कैसे मर गई। घर आकर एक बंद कमरे में बिछौनों में अपना सिर छिपा कर मैंने अपने नौकर को आवाज दी। ‘जाओ, सामने वाले तालाब में जितने कमल हैं, इसी समय तोड़ लाओ। जो कुछ होगा, देखा जाएगा। जाओ, देखते क्या हो? मैं कहता हूँ, एक कमल भी बाकी नहीं रहना चाहिए!!’

जैसे मैंने अपने आपको फाँसी के तख्ते पर लटका दिया हो!


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Artist: Ohara Koson
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सत्य द्वारा भी