अनारो

अनारो

यों तो नीलकंठ बाबू अपने गाँव की पूरी परिसंपत्ति बेचकर पक्के शहरी हो गये थे, पर गाँव के प्रति उनके मोहग्रस्त भावसूत्र टूटे नहीं थे। हम रोज प्रातःभ्रमण के बहाने पार्क में मिलते, टहलते, बतियाते और बतियाते टहलते। उम्र के इस अंतिम पड़ाव पर हम दोनों अपनी पिछली जिंदगी के सूत्रों को बार-बार सुलझाते-उलझाते, जीने के नये सिरे से बहाने तलाश करते। अपने-अपने अनुभवों का विनिमय उसी बहाने का एक सलीका भर था। उसी दौरान नीलकंठ बाबू कभी गाँव के खेत-खलिहान, धानरोपनी, धनकटनी, बरसात, कादो-कीचड़, हल-महन्तर, छमाही, ढार तपावन, देवीथान, ठाकुरबाड़ी, घर-आँगन, गुरुपिंडा-चकचंदा आदि सैकड़ों प्रसंगों-आसंगों की चर्चा बड़े मनोयोग से कर लेते। मैंने उनसे कहा भी कि नीलकंठ भाई! जब गाँव-जमीन से आपका इतना जुड़ाव अब भी है तो फिर आपने उसे बेचा ही क्यों? ‘मेरे सवाल पर वे सोच में पड़ गये थे।’ चेहरे पर असमंजस की विवश रेखाएँ उभर आयी थी। बोले-‘जो परिसंपत्ति मेरे बाद की पीढ़ी के हाथों आने के पहले ही नष्ट हो जाती, उसके समाधान के तौर पर उन्हें बेच देना ही हमें उचित लगा। …अब तो खैर, जो होना था हो चुका, अब उस पर सोचना क्या?’

बात बहुत साफ नहीं हुई थी, शायद नीलकंठ उसे साफ-साफ कहना भी नहीं चाहते थे, इसलिए मैंने बात का रुख बदलते हुए कहा- ‘तो ठीक है, लेकिन अब तो लगता है कि आप अधिक गँवई हो गये हैं।’

‘हाँऽ… तपेश्वर भाई! ऐसा है कि परिसंपत्ति बिकी है, पर उसकी अनुभूति मेरी साँसों में बसी है। वहाँ के लोग-बाग, गलियाँ, कुएँ, चैबारे, तालाब, आहर, आरी-कियारी, माटी सभी मेरे भीतर जीवित हैं। मेरा घर बिका है लेकिन उसके आँगन, बरामदे, खपड़ेपोश कमरे, टूटी दीवारें सभी मुझे बुलाती हैं। जानते हो तपेश्वर भाई! मेरी माँ ने, पैखानाघर के सामने वाले छप्पर उजाड़ कमरे में आम की गुठली डाली थी, बहुत वर्षों पूर्व अभी तो वह गुठली, भरपूर युवा हो गई थी, खूब फलदार। उसकी सोंध मुझे बुलाती है, ऊधो! ब्रज बिसरत नाहिं…।’

नीलकंठ का गला भर आया था, आवाज भर्राई-सी हो आई थी। उस दिन फिर वे चुप हो गये थे।

इसी प्रकार दिन बीत रहे थे। अवकाशप्राप्त जीवन में तो अवकाश ही अवकाश होता है, जब तक साँस चलती रहे, अवकाश की कमी नहीं रहती। हमलोग, लेकिन काफी सक्रिय थे, इस मायने में कि अब भी लिखते-पढ़ते, सभा-सोसायटियों के कार्यकलापों में भाग लेते। नीलकंठ बाबू कुछ अधिक सक्रिय थे। इधर उनकी लिखी गई किताबें प्रकाशित हुई थीं, शहर के साहित्यिक परिवृत्त में उनका विशेष मान था। नीलकंठ जितने भावुक थे, उतने ही व्यावहारिक भी।

कुछ दिनों के बाद की बात है, प्रातःभ्रमण के दौरान वे काफी चहक रहे थे। बिना पूछे ही उन्होंने बताया कि परसों उनके गाँव से एक आदमी आया था, उनके एक दिवंगत बालमित्र का बेटा। उससे सारे हालचाल मालूम हुए।

नीलकंठ ने बताया- ‘जानते हैं तपेश्वर भाई! गाँव में अब मेरे हम उम्रों की संख्या लगभग शून्य पर आ रही है, बस दो-चार ही बचे हैं। शायद उनसे मिलना या उनके साथ मिल-बैठना अब मुमकिन नहीं। मैं गाँव जाऊँगा तभी न! या फिर वे आयें, दोनों ही स्थितियों की कोई संभावना नहीं। खैर, वे जीएँ और स्वस्थ रहें, यही कामना है। वे ही तो मेरे भाव सूत्र हैं। यों तो गाँव का कण-कण जीवंत व्यक्तित्व उभारता है मेरे मन में, पर जीवित व्यक्तियों के भावसूत्र तो प्राणवंत होंगे नऽ!’

और एक विचित्र तृप्ति की उजास जैसे उनके चेहरे पर छा गयी। हम पार्क के एक बेंच कर बैठे थे। नीलकंठ आँखें बंद किये बैठे तो पटना के एक पार्क में थे पर उनका मन अपने गाँव की गलियों में खिलंदड़ बना अठखेलियाँ कर रहा था। बेंच पर अर्धपद्मासन में बैठे नीलकंठ मानो ध्यानस्थ हो गये थे। पाँच-दस मिनट बीत गये… सहसा नीलकंठ की बंद पलकों से आँसू ढलक पड़े। मैं चैंका, हल्क से उनके कंधे थपकिया और कहा- ‘यह क्या बंधु! आप तो सो रहे हैं! ऐसा भी क्या भई, आँखें तो खोलिए।’ नीलकंठ बुदबुदाए-‘कुछ नहीं तपेश्वर भाई! माँ की याद आ गई थी।… भनसा में मेरे लिए दूध पिठ्ठी बनाते चूल्हे की आँच तेज करती…।’

और उन्होंने आँखें खोली दीं- कुछ क्षण डबडबायी आँखों से इधर-उधर देखा, फिर लंबी गहरी साँस ली और  बोले – ‘क्या करे तपेश्वर भाई! जब-जब खुदी में डूबता हूँ, माँ, गाँव और मेरा  बचपन एक साथ उभरते गड्डमड हो जाते हैं। जितना सुख मिलता है, उतनी ही पीड़ा भी…।’

सहसा भक से उनका चेहरा खिल उठा और वे चहके- ‘हाँ, तपेश्वर भाई! गाँव के लड़के से पूछताछ के दौरान मालूम हुआ कि अनारो अभी जीवित है। उसे देखे सात-आठ साल हो गये हैं। पहले हर साल जब भी गाँव जाता था, अनारो को एक नजर देख लेता था… अब तो शायद ही भेंट हो, पिछले दिनों वह विधवा भी हो गई थी… बेचारी…!’

नीलकंठ द्रवित हो उठे। अनारो नाम से किसी चरित्र की पहली बार चर्चा कर रहे थे सो मैं पूछ बैठा-‘यह अनारो कौन है भाई! आपने तो कभी बताया नहीं पहले! बड़े छुपेरुस्तम निकले यार! अनारो तो लगता है आपकी लरिकाई की प्रीत है! क्यों?’

‘अरे नहीं भाई, वैसा कुछ नहीं है… बस यों ही…’

‘बस यों ही क्या?! कुछ-न-कुछ तो है… मन की गहराई में कुछ  खरोंच… कोई खलिश- यों अगर ना बताना चाहें तो और बात है…।’

‘वैसा कुछ नहीं है बंधु! कोई इश्क-विश्क का मामला नहीं है, हो भी नहीं सकता था। वह ठहरी दूसरी जात की और फिर उम्र में भी मुझसे एक साल बड़ी।’

‘तो उससे क्या हुआ इश्क में जात और उम्र कहाँ से आ गयी? वह भी बस हो जाता है…।’ नीलकंठ मुस्कुराये और बोले- ‘क्या बात है तपेश्वर भाई! लगता है दिल चोट खाया हुआ है!’ मैंने भी तुर्क-ब-तुर्क जवाब दिया- ‘अरे भाई! इसमें क्या है! दिल अगर दिल है… धड़कता है, तो कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी तौर पर आएगा ही… और दिल अगर आएंगा तो उसे सर्दी-खाँसी-जुकाम तो होगा ही…।’

नीलकंठ ठहाका लगा बैठे। बात आई-गई हो गयी।

लेकिन वह मुद्दा किसी युवा हृदय से जुड़ा नहीं, दो वरीय नागरिकों का परिपक्व खुमार था। हम थे दौर, गुजरे जुमाने झेल आये थे- फिर लंबी ज़िंदगी जी आये थे हम… हम दोनों सत्तर के पार थे और इस उम्र तक अगर कोई अनारो, किसी के उल्लास और उमंग का माध्यम बनी रहती है, तो निश्चय ही उसे महत् होना चाहिए। सो, एक दिन फिर, प्रातःभ्रमण के दौरान नीलकंठ बाबू से मैंने पूछ लिया- ‘तो, अनारो देवी अब कैसी हैं नीलकंठ भाई?’ नीलकंठ अकचकाए- ‘क्या मलतब! वह ठीक ही होगी अपने घर… फिर, आप क्यों पूछ रहे हैं उसके बारे में?’

‘नाराज ना हों नीलकंठ भाई! बस यों ही जी किया तो पूछ लिया। आप तो जानते ही हैं कि उम्र के जिस दौर में हम आप हैं, वहाँ जुविनाइल एफ्यूजन की कोई बात नहीं हो सकती, फिर भी बीते दिनों की कोई बात या घटना अगर हमारे तारुण्य को जगा जाती हो, तब तो कायदे से उसे तवज्जो दिया ही जाना चाहिए।’

नीलकंठ गंभीर हो गये और बोले- ‘लगता है बंधु कि आपकी भी कोई दुखती रग झनझना उठी है!’

‘वैसा ही समझ लीजिए। आपकी अनारो के बारे में जानने की बड़ी इच्छा है…।’

‘क्यों भला?’

‘इस क्यों का जवाब तो मैं ठीक-ठीक नहीं दे सकता, लेकिन हो सकता है कि अनारो की तरह ही कोई सितबिया मेरे जीवन में भी हो – और फिर खूब जमेगी, जब मिल बैठेंगे दीवाने दो।’

‘तो अब बुढ़भस की सूझी है तपेश्वर जी को!’

‘काहे का बुढ़भस यारे! बूढ़ा तो शरीर हुआ है, मन की कुलाँचे घटी हैं क्या? वो सामने देखिए हरसिंगार को, जितना ही पुराना हुआ है, उतना ही खिलता है, फुलाता है और धरती को श्वेत-कुसुंभी पुष्षों से पाट देता है। प्रौढ़ सरसता ही वास्तविक रस दशा है बंधु! रस यहाँ छलकता नहीं, रिसता है… उफनता नहीं, सान्द्र होता है… उमड़-घुमड़ कर बरसता नहीं, मन्द्र फुहार से भीतर तक भिंगोता है।… और तब एक अपार्थिव सुगंध भर उठती है, हरशूँ, ठीक वैसे ही, जैसे तप्त धरती पर वर्षा की पहली फुहार से माटी का सोंधापन मुखर होता है।’

‘वाह! वाह! तपेश्वर भाई! आप तो कवि हैं – इतने वर्षों तक मैं साहित्य और शास्त्र पढ़ता-पढ़ाता रहा, लेकिन अब तक यह सब नहीं सूझा था… वाह! भाई वाह! क्या बात है! लरिकाई की प्रीति और प्रौढ़ावस्था में उसकी स्मृति, जैसे पहली फुहार से बिथुरी माटी सोंधाई! आह!! क्या बात कही है!’

‘हमें शर्मिंदा मत कीजिए नीलकंठ भाई! अब बस भी कीजिए… यह जो भी सीखा है, आपसे ही सीखा है, नहीं तो मेरे जैसे इतिहास के गड़े पन्नों में उलझे रहने वाले अध्यापक की क्या बिसात!’

‘चलिए… माना; लेकिन अभी तो आप इतिहास में तरुणाई तलाश रहे हैं, अनारो तो इतिहस ही है न तपेश्वर भाई!’

‘वही सही, लेकिन उसके बारे में आप कुछ खुलासा तो करें! जिसके नाम की ही यह तासीर है कि वह नीलकंठ नाथ को साराबोर कर दे और तपेश्वरनाथ उसके छींटे में ही ऊब-डूब होने लगे, तब किस्साए दीदार का क्या होगा!’

नीलकंठ हुमस पड़े- ‘आपने तो मुझे लगभग पैंसठ-सत्तर साल पीछे पहुँचा दिया है तपेश्वर भाई! स्मृतियाँ जो भी बटोर सके, मैं आपको बताऊँगा। वैसे, एक बात कहूँ तपेश्वर भाई! अनारो और मेरे बीच घटनाओं का कोई सिलसिला नहीं, विशुद्ध भाव सत्ता है- जो भी है, सब एब्सटैªंट है। थोड़े तफसील से बताता हूँ। बीच-बीच में आप चाहें तो सवाल कर सकते हैं, ताकि मैं स्मृतियाँ कुरेद सकूँ।’

‘हाँ…हाँ… क्यों नहीं इर्शाद…!’

‘हाँ, तो बात सन् 1934-34 से शुरू होती है। उन दिनों मैं कोई सात-आठ साल का रहा हूँगा। माँ-पिताजी मुझे साथ लेकर गाँव चले आये थे। हमारे साथ मेरी एक चचेरी बहन शची भी थी, वह मेरी माँ के साथ ही रहा करती थी और मुझसे एक साल बड़ी थी। पिताजी गाँव के जमीन्दार थे, मालिक और इस नाते घर के चैका-बर्तन के लिए, पूर्वजों द्वारा बसाये गये तीन परिवारों में से एक परिवार था अनारो के मामा यानी दादी का। तीनों कामगारों के परिवार पंद्रह-पंद्रह दिनों की पारी बांध कर घर काम-धाम करते थे, खाना माँ अपने बनाती थी।

हमारे गाँव पहुँचने के पहले ही दिन अनारो की मामी आयी थी और उसी के साथ अनारो भी। अनारो को देखकर हमें बहुत अच्छा लगा था। वह तुरत शची के साथ घुल-मिल गई थी। मैं था तो बदमाश और शातिर, पर जाने क्यों अनारो के साथ छेड़खानी नहीं कर पाया और वही मुद्रा आजीवन बनी रही। घघरे-चोली में अनारो बड़ी मासूम लगती। गहरी साँवली, गोल-मटोल, छरहरी, पूअे से गाल, बड़ी-बड़ी बोलती आँखें, धप सफेद दाँत जिनमें आगे के दो दाँत थोड़े बड़े- बीच में कुछ अधिक फाँक लिये, अनजानी स्थिति से भरे-भरे होंठ, मृदुल-मीठी आवाज… कुल मिलाकर वह मुझे भा गई थी। उस उम्र में जितना और जैसा भाना हो सकता था, उतना तो भा ही गई थी।

शची, मैं और अनारो मिल-जुलकर खेलने लगे थे, दौड़-धूप वाले खेल नहीं, बैठकर खेलने वाले खेल, खासकर गाना-गोटी, चैकबित्ता, और पचीसी। गाना-गोटी  खेलने में तो अनारो बेजोड़ थी।’

‘यह गाना-गोटी का कौन-सा खेल है भाई?’ मैं पूछ बैठा।

नीलकंठ अकचकाए-  ‘अब पूरे तौर पर तो याद नहीं है, फिर भी बताता हूँ। उसमें बस छोटी-छोटी गोटियाँ होती थीं, पत्थर या गंगटी के टुकड़े। तलहथी में उन्हें रखकर अंदाज से ऊपर उछाला जाता था और तलहथी से जमीन पर धप्पा मारते हुए तलहथी की पीठ पर उन्हें लोका जाता था, फिर उन्हें उछालकर तलहथी में लोका जाता था। जितनी गोटियाँ आयीं उन्हें तीन-तीन के ग्रुप में बायीं हथेली पर रखा जाता। अनेक गोटियाँ जमीन पर गिर जाती थीं, पहली ही उछाल में, उन्हें भी बटोरना होता था। बटोरने का खास तरीका था, वह यह कि दाहिनी तलहथी में बची गोटियों में से एक को अंगूठे और तर्जनी से पकड़ पुन: उछाला जाता और लोका जाता, लेकिन उछालने-लोकने के गैप वाली अवधि में जमीन पर गिरी गोटियों को एकाएक कर या सामूहिक रूप से हसोता या उठाया जाता। इस तरह तीन-तीन गोटियों के तीन ग्रुप जब बायीं हथेली से एकत्र हो जाते, तब बची हुई गोटी को पुन: अंगूठे-तर्जनी से उछाला जाता और लोक कर खेल का एक दौर पूरा किया जाता। कहीं भी      चूक हुई तो खिलाड़ी दाँव-गँवा जाता और दूसरा खिलाड़ी अपना दाँव शुरू करता।’

‘अरे बाप रे! यह तो बड़ा कंप्लीकेटेड खेल है। आपको इतना याद कैसे है नीलकंठ भाई!’ मैंने टिप्पणी की।

‘शायद इसलिए तपेश्वर भाई कि वह खेल अनारो से जुड़ा हुआ है, जिसमें मैं बराबर फिसड्डी बना हारता रहा और अनारो जीतती रही, शची सेकंड होती थी।’

मैं नीलकंठ बाबू के स्वर कंपन से काँप गया। लगा कि वह प्रौढ़ व्यक्ति जो कैरियर के लिहाज से सफलतम रहा है, कहीं-न-कहीं मन हारा है। जो भी हो, मैंने बात आगे बढ़ाई- ‘आखिर ऐसा क्या था अनारो में कि वह बराबर जीतती रही?’

‘उसकी हथेली की पीठ, जब उँगलिया सटाकर वह हथेली को उलटती तब गहरी हो जाती थी। उसकी लंबी कोमल उँगलियाँ पीछे की ओर हल्की मुड़ जाती थीं और खेल के पहले ही दौर में अधिकांश गोटियाँ उसके कब्जे में आ जातीं और फिर बड़ी चपलता से वह शेष गोटियाँ बटोर लेती। शची की हथेली छोटी थी, इसलिए वह भी मुकाबला नहीं कर पाती। मेरी हथेलियों की पीठ तो बहुत कड़े थे, कभी-कभी तो एक गोटी भी नहीं टिकती उस पर। तब शची मुझे चिढ़ाती और अनारो मुस्कुरा भर देती है। फिर भी हार निश्चित होते हुए भी मैं पूरे दौर में बैठा रहता। जानते हैं तपेश्वर भाई क्यों?’

‘भला मैं क्या जानूँ! आप ही बताइए!’

‘गोटियों को उछालते, बटोरते, लोकते अनारो का चेहरा बार-बार नीचे-ऊपर उठता, साथ में आँखें भी नीचे-ऊपर उठतीं, खुले होठों के साथ, और वह भंगिमा मुझे बहुत भाती, इसलिए मैं मुग्धभाव से निहारता रहता। जानते हैं तपेश्वर भाई, अभी भी वह भंगिमा अपने समस्त वर्णक्रम से मेरे मानस पटल पर कौंध रही है और मैं भीतर-भीतर विभोर हो रहा हूँ।’

बोलते-बोलते नीलकंठ बाबू चुप हो गये। आँखें बंद ओठों से कुछ बुदबुदाते, जाने वे अतीत के किन पलछिन में जी रहे थे। कुछ मिनटों बाद नीलकंठ ने आँखें खोलीं और बोले- ‘माफ कीजिए तपेश्वर भाई! मैं कुछ बह गया था।’

इसमें माफी मांगने की कोई बात नहीं भाई मेरे, यह तो लरिकाई की प्रीत भलि! कैसे करी छूटे वाली बात है। मुझे तो तज्जुब इस बात पर हो रहा है कि अनारो वाला मसला, आपके जीवन का बाजाप्ता अफेयर क्यों नहीं बना!’

‘इसलिए कि मैं लगातार गाँव में रहा नहीं, बस डेढ़-दो साल बाद ही पढ़ाई के लिए शहर आ गया। फिर अनारो जब बारह-तेरह साल की थी, तभी उसकी शादी हो गयी।’

‘तो यों कहिए कि इश्क जब तक परवान चढ़ता, तब तक उसके पर कुतर गये!’

‘वैसा भी नहीं है बंधु! मैंने पहले भी आपको बताया है कि अनारो के साथ मेरा कोई संबंध कभी रहा ही नहीं। इसलिए उसके विवाह में मेरे लिए कुछ शाॅकिंग नहीं था।’

‘तब फिर आज इतनी शिद्दत से क्यों याद कर रहे हैं इस सिलसिले में!’ 

‘वो तो आपने पूछ लिया तो बता रहा हूँ।’

‘चलिए… वही सही, फिर आगे क्या हुआ?’

‘होना क्या था?… हम अपनी ज़िंदगी जी रहे थे। छुट्टियों में मैं गाँव जाता। गाँव में मेरी अपनी व्यस्तता थी, उन्हीं व्यस्तताओं के कुछ लम्हें अनारो के लिए भी आरक्षित होते। हम बड़े होते जा रहे थे… और एक दिन हमने महसूस किया कि हम जवान हो गये हैं। अनारो का घर हमारे घर के पास ही था और हमारी छत पर से उसकी गली, घर और घर का दरवाजा साफ दिखता था। विवाह होने के बाद भी अनारो यहीं रहती थी, क्योंकि उसका विवाह पति के घरजमाई बनने की शर्त पर हुआ था।

युवा होने की गंध अचानक हमारे नथूनों को आप्यायित कर गई थी। हुआ यों कि बड़े दिनों की छुट्टी में जब मैं गाँव आया तो एक दिन जैसे ही धूप की तलाश में मैं घर से बाहर निकला, बाध (शौच) से लौटती अनारो पर नजर पड़ गयी। बाध जाने-आने का रास्ता मेरे घर के सामने ही से था। साड़ी-ब्लाउज में समायी अनारो प्रस्फुटित पुष्प सी दिखी, सारे अंग-प्रत्यंग, हाव-भाव-भंगिमा एक शालीन आभा-सी निखरी थी। हम अचानक आमने-सामने थे। प्रणाम करते उसकी सटी हथेलियाँ उठीं, तो साथ में नजरें भी उठीं, मैंने भी प्रणाम स्वीकार किया और क्षणभर को आँखें टकाती, स्थिर कुछ तलाश करती, जुड़ी रहीं, फिर वह आगे बढ़ गयी- ना उसने कुछ कहा और न मैंने। अब, आँखों के मौन संभाषण को आप चाहे जो समझें!’

मैं अपनी छत के खास कोने पर सुबह-शाम बैठता-खड़ा होता, तो अनारो अपने घर के चबूतरे को लीपते-पोतते, बैठीं चावल-दाल बिनती या कभी अपनी माँ के बालों से जूएँ निकालती या अपने बालों से निकलवाती या ऐसा ही कुछ-न-कुछ करती नजर आती और मैं उसे मुग्धमन देखा करता। मेरे देखने या छत पर होने का एहसास अनारो को भी था, क्योंकि उस दौर में वह बार-बार छत की ओर निहारती। संभव है कि अगर मैं प्रयत्न करता तो अनारो का कामोपभोग कर लेता, शायद वह इनकार भी नहीं करती। परंतु मैं कहूँ तो क्या कहूँ! अनारो को देखकर मुझमें वासना जगती ही नहीं थी। उत्तेजना के बजाय एक शीतल-सौम्य भाव दशा व्याप्त हो जाती। ऐसा नहीं कि उसकी देहयष्टि मुझे आकर्षित नहीं करती। उसके यौवन भार, मत्तगमंद-चपल गति, सौकुमार्य, चिक्कण मांसलता और सौगन्धिक मादकता से जबर्दस्त खिंचाव था, मैं खिंचता भी; पर मेरी सेंसुअलिटी, सेक्सुअलिटी के बजाय एक अजीब-सी तृप्ति में बदल जाती।’ मैंने टोका, ‘नीलकंठ भाई! आप किस दुनिया की बात कह रहे हैं? आप बैरागी तो हैं नहीं!’

वे बोले, ‘मैंने कहाँ कहा या क्लेम किया कि वैरागी हूँ; बल्कि मैं लपंट किस्म का व्यक्ति हूँ, लेकिन जाने क्यों अनारो के सामने आते ही वह लंपटता ठिठक ही नहीं जाती, हवा हो जाती…।’ ‘चलिए, वहीं सही… मान लेते हैं।’ मैंने टिप्पणी की।

‘ताज्जुब मुझे भी है तपेश्वर भाई, पर और स्पष्टीकरण मैं दे ही नहीं सकता; क्योंकि वह है ही नहीं मेरे पास। अच्छा एक प्रसंग बताता हूँ, आप स्वयं अंदाज लगा लीजिए- उन दिनों मैं बी.ए. फाइनल में था। ठीक दशहरे के दिन गाँव आया। मुख्य सड़क से मेरा गाँव दो-तीन किलोमीटर अंदर की ओर है। बस से जहाँ उतरता था गाँव जाने के लिए वहाँ पर एक हनुमान मंदिर, एक विशाल वटवृक्ष और एक कुआँ भी था- शीतल मीठे जल भरा। उधर से कस्बाई हाट-बजार जाते लोग, कुछ देर जरूर सुस्ताते थे वहाँ, इसलिए दो-तीन छोटी-मोटी दूकानें भी हुआ करती थीं वहाँ पर, दशहरे और मोहर्रम में वहाँ अच्छा-खासा मेला लग जाता था।

सो, बस से मैं कोई बारह-एक बजे उतरा होऊँगा। तब तक भसान के लिए जाने वाली दुर्गामूत्र्ति वहाँ तक आ चुकी थी। मेला अपने तुमार पर था। बंदर-बंदरियां वाले गोल पर काफी भीड़ थी। मैं गाँव जाने के लिए उस गोल के पास से गुजरा तो वहीं अनारो पर नजर पड़ी। आँखें मिलीं, मौन संभाषण-विनिमय के साथ और वह भी गाँव लौटने को पलटी। अब हम दोनों साथ-साथ गाँव की ओर लौट पड़े, लेकिन अगल-बगल नहीं, आगे-पीछे। उसकी मत्त्गयंत गति की मंथर चंचलता, कटि की चपलता, नितंब-जघन के कंपन और हवा के झोंके से बिछलते-आँचल और बिखरती लटें, तिस पर बार-बार पीछे मुड़-मुड़कर उसका सस्मित देखना, सहसा तो मुझे उत्तेजित कर गया, लेकिन फिर सहसा ही उफान बैठा भी। ना अनारो रुकी और ना मैं तेज चला, बस दस-पाँच कदम पीछे चलता मैं अनारो की पृथुल मदिर चाल में डूबता-उतराता गाँव के निकट तक पहुँचा। तब अनारो ने गति तेज की और मैंने धीमी। लगभग आधे घंटे हम सब चले, पर हृदय की धड़कनों के अलावा कोई बोल नहीं फूटे। अब इसे आप क्या कहिएगा!’

‘यकीन तो नहीं होता नीलकंठ भाई! लेकिन आप कहते हें तो मान लेता हूँ। आप दोनों बीस-इक्कीस वर्ष के भरपूर युवा रहे होंगे, फिर भी ऐसे अनासक्त!’

‘नहीं तपेश्वर भाई! अनासक्त तो हम नहीं थे, पर शायद एक-दूसरे की पहल की प्रतीक्षा में हमारी आसक्ति देहभोग में तब्दील नहीं हो सकी। चलिए यह भी अच्छा हुआ…।’ ‘हाँऽऽ… ठीक कहा आपने, और मुझे लगता है कि इसीलिए अनारो देवी आज भी आपकी जेहन में हैं।’

‘हो सकता है… अब आगे सुनिए! मेरे एम.ए. पास करते-करते अनारो माँ बन चुकी थी। आँखों-आँखों में ही मैंने उसे बधाई दी थी, अनारो से उस मानस सहचर्य के दौरान मैंने बराबर कामना की थी कि मेरा विवाह वैसी ही किसी लड़की से हो और जानते हैं तपेश्वर भाई, वैसा ही हुआ भी। विवाह के बाद जब श्रीमतीजी के साथ मैं गाँव गया था, तब अनारो उससे मिलने आयी थी। दोनों को गले मिलते देख मैं तो धक्-सा रह गया- इतना साम्य! अंतर सिर्फ यह था कि श्रीमतीजी थोड़ी स्थूल थीं। बाकी सब वैसा ही लगता कि अनारो का भावरूपान्तरण ही मेरी पत्नी का विग्रह बना है! अब, इसे आप क्या कहेंगे तपेश्वर भाई!’

‘कुछ नहीं भाई साहेब! आपसे सिर्फ ईर्ष्या ही हो सकती है। हाँऽ, लेकिन मेरी चिंता यह हो रही है कि कहीं भाभीजी के साथ भी आपका व्यवहार अनारो की तरह ही तो नहीं रहा!’

‘अरे नहीं बंधु, मालिनी को तो अनारो की क्षतिपूर्ति भी करनी थी… सो…।’

और हम दोनों के ठहाके गूंज उठे। उस दिन काफी लंबा सेशन चला था अनारो प्रकरण का। सुबह के साढ़े नौ बज चुके थे, सो हम पार्क से लौट आये। मैं कुछ असमंजस में था। मुझे लगता था कि नीलकंठ बाबू, अनारो को फँसाने के सिलसिले में अपनी असफलता को छिपाने के लिए इतना तुरी बांध रहे हैं। गाँव में ऐसे सेक्स रिलेशंस तो सामान्य होते हैं। मैंने भी भोगा ही है। फिर नीलकंठ ठहरे जमींदार के बेटे और अनारो उनके कामगार की बेटी नीलकंठ तो उसे सहज ही हथिया सकते थे। पर अनारो इनके हत्थे चढ़ी नहीं। लेकिन नीलकंठ तो वैसा नहीं मानते। और फिर अपनी पत्नी से उसकी तुलना करते हैं। यह तो बेजा है। कहाँ कुलीन घराने की पत्नी और कहाँ वह कामगार की छोकरी!

अगले दिन टहल लेने के बाद जब हम बैठे, मैंने अपने मन की गाँठ खोल दी। नीलकंठ नाराज तो नहीं हुए, पर उन्होंने बड़ी दृढ़ता से कहा-

‘चारित्र्य किसी खानदान की बपौती नहीं तपेश्वर भाई, वह व्यक्ति का निजी संस्कार है। अनारो की समवयस्क अन्य लड़कियाँ भी थीं गाँव में और उनमें से कई के खुले सेक्स स्कैन्डल्स भी मुझे मालूम हैं। एकाध से मेरा पाला भी पड़ा है, पर अनारो उन सब से अलग थी। गाँव के रंगीन मिजाज, मनचले छोकरों ने अनारो को भी अपने आईने में उतारना चाहा, बारहाँ कोशिश की, पर कोई सफल नहीं हो पाया।’

मैंने प्रश्न किया, ‘यह आप कैसे कह सकते हैं?’

‘साफ है, सेक्स स्कैन्डल्स की आभा निर्विकार हो ही नहीं सकती और अनारो के चेहरे की दीप्ति मैंने कभी मद्धिम नहीं पायी। और फिर किसी युवा ने उससे अपने संबंध के बारे में बताया भी नहीं, जबकि वैसे अन्य सेक्स रिलेशंस के किस्से, चटखारे ले-लेकर लोग सुनाते थे। अनारो अपवाद है तपेश्वर भाई, यह आप मानिए।’

‘चलिए मान लेते हैं, पर आप क्यों चूके?’

‘मैं चूका नहीं, पर मैंने उसके देहभोग का प्रयत्न ही नहीं किया- लेकिन हमारे दृष्टि विनियम साक्षी हैं कि हम अंतरंग रहे। यह अंतरंगता ही हमारी पूँजी रही, अन्यथा अनारो मेरी पत्नी की सखी नहीं बन पाती!’

‘आपका कथन व्यावहारिक प्रचलन के अनुकूल तो नहीं है, फिर भी मान लेते हैं।’ ‘एकाध प्रसंग और बतलाते हैं, तब आपको शायद यकीन हो जाए! पहली घटना तो पटना की ही है। एक दिन, शायद रविवार था, मैं बाथरूम से बाहर आया तो मेरी पत्नी ने बताया- ‘आपकी बाल सखी आयी है। बड़ी बीमार है बेचारी!’

– ‘कौन आयी है? बाल सखी कौन?’ मैं अकचकाया।

– ‘अरे, अनारो आयी हैं, गाँव से अपने पिताजी के साथ। वह आपकी बाल सखी ही न है?’

मैं झेंपा तो मालिनी मुस्कुराई और बोली- ‘हम सब जानते हैं… अनारो ने हमें आपके बारे में सब बताया है… कैसे गाना-गोटी, चैकबित्ता आप, शची दीदी और अनारों के साथ खेलते थे… और यह भी कि एक बार आपने अनारो को मारने के लिए हाथ उठाया था, तब वह बेबसी से आँखें उठाकर सकपका गई थी और आपका गुस्सा उसकी आँखों में उलझकर ठंढा पड़ गया था। कहिए कि गलत है?’

मैं बोला कुछ नहीं, जल्दी से बाहर चला आया। अगले कमरे में अनारो लेटी थी। उसने फिर वही बड़ी-बड़ी आँखें उठाकर मेरी ओर देखा… एक स्मृति उभरी। मैंने पूछा- ‘कैसी हो?’ बोली- ‘ठीके हिअई!’ और बस एक पीर भरी मुस्कान के साथ उसने आँखें झुका लीं। अनारो का बाप दरसनी बाबूजी से बात कर रहा था। उसी से मालूम हुआ कि अनारो के यूटेरस में तकलीफ है, कल्ल अस्पताल में दिखलाना है। फिर आगामी पंद्रह-बीस दिन हम उसके संपर्क में रहे। अनारो का आॅपरेशन हुआ, हमसे जितना बन  पड़ा, हमने किया। मालिनी ने भी अनारो का खूब ख्याल रखा। कोई कलुष नजर आया आपको? अगर अनारो और मेरे बीच कोई कलुष होता तो क्या मालिनी इतनी सहजता से देखभाल कर सकती थी?’

अब दूसरा प्रसंग लीजिए। बहुत वर्षों के बाद, जब मैं बड़े दिनों की छुट्टियों में अकेले गाँव गया, मेरे घर के पूरबी कोने पर सफेद साड़ी में लिपटी एक महिला, मेरे मकान की दीवार पर ही उपले थापती नजर आयी। जब मैं वहाँ पर पहुँचा, वह जमीन पर गोबर-कटुआ मिला रही थी। कदमों की आहट सुन उस महिला ने सिर उठाकर देखा- मैं ठिठक गया-वह अनारो थी। उसके घने सफेद बाल बया के घोंसले से फैले थे, फिर भी आँचल से ढँके वहीं सिंदूर की गहरी रेखा और ललाट पर बड़ी-सी लाल बिंदिया, आँखें वही बड़ी-बड़ी सफेद – कुछ बोलती सी। रंग कुछ गहरा गया था, गाल भी थोड़े पिचके थे, चेहरे पर हल्की झुर्रियाँ भी उभरने लगी थीं। मैं एकसठ का था, तो वह भी तो बासठ की थी।

सहसा मुझे देखकर उसकी आँखें मुस्कुरायीं। उसने गोबर सनी हथेली से लटें सँवारे और हाथ जोड़ प्रणाम किया। प्रणाम स्वीकार करते हुए मैंने ही पूछा-

– कैसी हो अनारो!

– ठीक हिओ, अपने कहऽ…

– देख ही रही हो सामने तो हैं…

हल्की स्थिति के साथ फिर उसने पूछा- दुल्हिन भाभी भी अइलथिन हे?

– नञ्, हम अकले…

– बड़का बाबूजी, मालिक जी चल गेलथिल…

– हाँऽ…

– अभी रहबऽ नऽ…

– हाँऽ… दू-चार-दस दिन…

वह मुस्कुराई और बोली- तोर आदत नञ् गेलो हऽ…

मैं चैंका, पर कुछ कहता कि उसके पहले ही अनारो उपले थापने में लग गयी। वह मेरी उससे आखिरी बातचीत थी। जब तक गाँव पर रहा, और बाद में भी जब गया अनारो से दृष्टिभाष ही होता रहा। आँखों-आँखों की वह लगभग साठ वर्षों की वार्ता मेरे अंतस् की पूँजी है, तपेश्वर भाई!’

और नीलकंठ बाबू चुप हो गये। वे कहा करते थे कि ‘अनारो और मेरे रिश्ते का स्वरूप क्या है, मैं नहीं जानता; कुछ है भी, यह कहना भी मुश्किल है। पर इतना सच है कि आज भी उसके बारे में जान-सुनकर मन आप्यायित हो उठता है।

… और कई महीनों बाद, एक दिन जब नीलकंठ बाबू प्रातः भ्रमण के लिए आये, तब उनका चेहरा बुझा-बुझा सा था और आँखें शून्य में निहारतीं। मैंने पूछा-

‘क्या बात है नीलकंठ भाई! आज बड़े उदास लग रहे हैं!’ वे शून्य में निहारते बोले- ‘तपेश्वर भाई! गाँव से जुड़ाव का मेरा आखिरी भाव सूत्र भी टूट गया।’

‘क्या मतलब?’ 

‘अनारो नहीं रहीं…।’


Image: Autumn landscape Village 
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अमरनाथ सिन्हा द्वारा भी