याद कीजिए पापा
- 1 October, 2015
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- 1 October, 2015
याद कीजिए पापा
स्मृति से अधिक महत्वपूर्ण है विस्मृति
विस्मृति से बड़ा मरहम और कुछ नहीं।
‘याद कीजिए पापा…’ बेटा सामने खड़ा था और उनसे कह रहा था।
खुशी के मारे सुबह से ही असंयत थे अवधेश प्रसाद। प्रसन्नता जब मन में होती है तो वो संसार के कण-कण में भी होती है। कोई बहुत बड़ी खुशी मन को इस तरह प्रभावित करती है कि सारी दुनिया सुंदर लगने लगती है। हर कार्य तब सुखद और मधुर हो जाता है। प्रसन्नता अवधेश प्रसाद के मन में व्याप्त हो चुकी थी। बेटे को एक बार मन भर देख लेने के लिए उनके मन में हूक-सी उठ रही थी। उसे इतने सालों बाद देखकर क्या हाल होगा उनका। सांसे भारी हो चली हैं। देखते ही गले लगा लेंगे। बेटे को पहले गले कब लगाया याद ही नहीं।
ऊपर से वह सामान्य दिखने का सायास प्रयास कर रहे थे। इस कोशिश में उनका व्यवहार अस्वाभाविक हो चला था। पत्नी सब समझ रही थी। उनकी यह अवस्था देखकर मन ही मन मुदित भी थी संभवतः।
‘क्या बात है ? बड़ी सुबह आज तैयार हो गए हो… डॉक्टर की सुबह घूमने की हिदायत के बावजूद तुम हमेशा सात बजे के बाद उठते रहे हो। सुबह चार बजे उठते तो मैंने कभी नहीं देखा तुम्हें। और फंक्शन वाला रेशम का कुर्ता भी निकाला है…’ पत्नी कटाक्ष कर रही है। ‘इसमें बात वाली क्या बात है ? सिल्क का कुर्ता पहनने पर प्रतिबंध लग गया है क्या… या सुबह चार बजे उठना गुनाह घोषित कर दिया है सरकार ने…? नहीं, देख लो…आजकल तो कोई भी कानून बन जाता है…’ स्वर में भरसक नाराजगी घोलने का प्रयास कर रहे हैं अवधेश प्रसाद। असफल प्रयास।
‘और सुन लो मनोरमा…सात साल बाद आ रहा है, केवल इतने भर से बच नहीं जाएगा अजय…मैं कोई बख्शने वाला नहीं उसे। जो नालायक सात साल तक घर की ओर पलटकर भी नहीं देखता, उसके साथ कैसी मुरव्वत। वो तो खुशकिस्मती है उसकी, जो बहू के साथ आ रहा है…वरना मैं तो उसे घुसने भी न देता घर में…’
पत्नी मासूम बच्ची की तरह हँस रही है। उसकी आँखें खुशी की अधिकता से चमकीली हो गई है। वह घर की एक-एक चीज को पोंछकर चमकाने में लगी है।
‘मैं सीरियस हूं मनोरमा, कहे देता हूं…’ बढ़े जतन ये चेहरे पर चिढ़ के भाव ला रहे हैं अवधेश प्रसाद। ‘अरे, देखा तक नहीं आज तक बहू को…फोटो तक नहीं देखी कभी उसकी…उस पर कैसे लाड़ आ रहा है…’ आँखें तरेरकर पूछ रही है पत्नी।
‘उस बिचारी की क्या गलती ? और कौन जाने वही जिद करके अजय को घर वापस ला रही हो ? पर तुम थोड़े ही समझोगी, तुम्हें तो हर बात में हँसी आती है…आदमी गंभीर हो, तब तो दिमाग में घुसे भी कुछ उसके…’
‘कौन जाने?’ पत्नी अब सचमुच गंभीर हो रही है…‘-कौन जाने, हमारे घर-परिवार से कितना जुड़ पाएगी अजय की बीवी…वो तो विदेश में ही पली-बढ़ी है। वो तो खुद किसी बड़ी कंपनी में काम करती है…’
‘मति तो नहीं मारी गई तुम्हारी… अरे भई, बड़ी कंपनी में एग्जिक्यूटिव होने से या विदेश में रहने से संवेदनाएँ मर जाती हैं क्या ? कमाल की बात करती हो तुम। अरे, अनिकेत और पिंकी भी कल को बड़ी कंपनियों में लग जाए तो क्या घर-परिवार से विमुख हो जाएँगे…’ जब से अजय के आने की खबर मिली है, उसके दोनों छोटे भाई-बहन ये खेल देख-सुन रहे हैं, इसलिए उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा। हाँ, भाई और भाभी के स्वागत से जुड़े घर के कामों में वे भी पूरे उत्साह से हाथ बंटा रहे हैं।
‘याद कीजिए पापा…’ बेटा सामने खड़ा था और उनसे कह रहा था।
कह क्या रहा था, बल्कि पूछ रहा था।
‘याद कीजिए पापा…’ अजय कहे जा रहा था, ‘आपने सिर्फ मुझे जलील किया पापा… जब मैं बी.टेक करते हुए होस्टल में पढ़ रहा था तो आपने दो हजार रुपए…बस, दो हजार रुपए महीने मेरे जेब खर्च के बांध दिए थे। इसी में जियो और इसी में मरो। जबकि मेरे कई दोस्त एक शाम के खाने पर पांच हजार खर्च करते थे…’
अवधेश प्रसाद अपराधी की तरह चुपचाप खड़े हैं। कुछ बेचैन हो उठे हैं वे, बेटा बैठ तक नहीं रहा घर में। ऐसी क्या बात है। बैठ कर भी बात हो सकती है।
देश के प्रतिष्ठित और बेहद महंगे कॉलेज से अजय ने बी.टेक की डिग्री ली थी और आगे की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप लेकर सियाटेल चला गया था। वहीं उसे शानदार नौकरी मिल गई थी। पिछले सात सालों से वो घर लौटा ही नहीं था। आया भी था एकाध बार तो मुंबई से होकर वापस चला गया था। घरवालों से मिले बिना। पिछले वर्ष उसने भारतीय मूल की एक लड़की अपूर्वा से विवाह भी कर लिया था और उसके बाद से घरवालों की लगातार बुलाहट को देखते हुए आज अजय अपनी पत्नी के साथ रांची अपने घर आया था। उसकी पत्नी हिकारत भरे भाव चेहरे पर लेकर लगभग अनिच्छा से खड़ी हुई थी।
‘है कोई जवाब आपके पास पापा ? मैं मेस का साधारण खाना खाता था। हफ्ते में एक बार भी होटलिंग नहीं कर सकता था। कपड़े लॉन्ड्री में नहीं दे पाता था, खुद धोने पड़ते थे। याद कीजिए पापा… एक साल इलेक्ट्रोनिक्स प्रोजेक्ट के लिए बीस हजार क्या माँगे…आपने इतनी पूछताछ की, मानो मैं रुपए कॉलेज को न देकर खुद ही हजम कर जाऊँगा। उस पर से हर समय आपके लेक्चर…ऐसा मत करना…वैसा मत करना…इससे दोस्ती करना….उससे लड़ाई मत करना….टीचर्स को रिस्पेक्ट देना…बादाम खाना….अरे दो हजार रुपए में बादाम खाने के बाद एक मूवी या छोटी-सी पार्टी के भी पैसे नहीं बचते थे…
‘मैं तो पापा कभी आता ही नहीं यहाँ… पर एक बार आपको दिखाना जरूरी था कि आज मैं क्या हूँ…और वो भी कैरियर की शुरूवात में ही। आज मैं मोहताज नहीं हूँ आपका। रांची एयरपोर्ट पर भी मैं आपकी किराए की नॉन ए.सी. खटारा कार में नहीं बैठा…बल्कि बीएमडब्ल्यू में बैठा, जिसका इंतजाम मेरी कंपनी ने किया था…खुद सियाटेल में मेरे पास अपना पेंटाहाऊस और शोफर-ड्रिवेन कार है…याद कीजिए पापा आपने मुझे होस्टल में सड़ी सी साइकिल खरीद कर दी थी… जबकि मेरे दोस्त हाईटेक गाड़ियों में उड़ते फिरते थे…कई बार आप अचानक ये जाँच करने मेरे कॉलेज आ जाते थे कि मैं ठीक से पढ़ रहा हूँ कि नहीं…यहाँ किसी ने कभी मेरे बारे में नहीं सोचा…जबकि मेरे दोस्तों के घर वाले रोज उनसे फोन पर और वेब-कैमरा पर उनका हालचाल पूछते थे। अरे आपने तो एक बेसिक फंक्शन वाला मोबाइल तक नहीं दिया मुझे।’ अजय का चेहरा सख्त था और स्वर कठोर।
अवधेश प्रसाद एकदम चुप थे। पत्नी अवाक थी और स्तंभित भी। बेटे को याद कर तकरीबन रोज एक बार रोने वाली मनोरमा की आँखों में आँसू की एक बूंद भी नहीं थी। छोटा बेटा अनिकेत इस तमाशे को आश्चर्य से देख रहा था। पिंकी सहमकर सोफे के पीछे दुबक गई थी। अजय बिना रूके बोल रहा था। किसी ने उसे रोका नहीं। किसी के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला।
अवधेश प्रसाद याद करने की कोशिश करने लगे। अजय मेधावी था, किंतु उसे टेक्नॉलजी पढ़ाना उनके बूते से बाहर की बात थी। उस पर से देश का इतना बड़ा इंजीनियरिंग कॉलेज। उन्हें याद आने लगा कि एजुकेशन लोन के लिए बैंक के चक्कर लगाते-लगाते उनकी चप्पलें घिस गईं। जीवन भर की कमाई उनका दो कमरों का छोटा सा फ्लैट भी बंधक रखना पड़ा। चार साल की पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए उन्हें घर के खर्चों में कितनी कटौती करनी पड़ी और किस-किस के सामने उन्हें हाथ-पैर नहीं जोड़ने पड़े! कभी उधार और कभी पी.एफ. के पैसों से उन्होंने खर्च चलाया किंतु बेटे को भनक भी न लगने दी। उन्हें याद आने लगा कि अपनी कमीज फट जाने पर कई महीनों तक वे पैबंद लगाकर काम चलाते रहे, किंतु अजय के जेब-खर्च के लिए दो हजार रुपए अनिवार्य रूप से भेजते रहे।
अजय बीस हजार की बात कर रहा है। याद आने लगा उन्हें कि उनके गाल-ब्लैडर के ऑपरेशन की निहायत जरूरत के बावजूद वे उसे टालते रहे क्योंकि बेटे को उस साल अलग से बीस हजार रुपए भेजने पड़ गए थे। कितना दर्द उठता था उन्हें, पर लंबे समय तक वे सहते रहे। हाँ, अचानक अजय के कॉलेज पहुँच जाने की बात। उन्हें याद आने लगा कि पूरा परिवार अजय को अपनी सांस के साथ याद करता रहा और कई बार उससे मिलने के लिए इतना बेचैन हो जाते थे कि पैसों की कमी के बावजूद बस पकड़कर उसके पास पहुँच जाते थे। तेरह-चैदह घंटे की बस की तकलीफदेह यात्रा में उनका शरीर साथ नहीं देता था। इतनी तकलीफ उठाकर आने-जाने के बाद कई बार उनके पैरों और कमर में भारी दर्द उठ जाता था। वे बीमार पड़ जाते थे और तीन-चार दिन दफ्तर भी नहीं जा पाते थे।
पता नहीं कितनी देर हो गई थी। अजय खड़े-खड़े ही उन्हें एक के बाद एक नई बात बता रहा था। उन्हें पिछले तीन दिन से उत्सव की तरह की जा रही तैयारियों का भी ध्यान हो आया। अजय की माँ ने कितने तरह के तो खाने बनाए थे। गठिया के मारक दर्द के बावजूद वो जुनून की तरह बेसन के लड्डू, खुरमा और अनरसा बनाने में जुटी थी। छोटे भाई-बहन काम में ऐसे जुटे थे मानो उन्हें कोई खजाना मिलने वाला हो…! उन्हें लग रहा था कि जैसे एक युग बीत गया है। कोफ्त हुई उनको कि लड़का क्या याद दिला रहा है और उन्हें क्या याद आ रहा है। कोई संगति ही नहीं। क्या हो गया है उन्हें ? उनकी तंद्रा तब टूटी जब अजय अपनी पत्नी के साथ बाहर जा चुका था। बाहर कार में बैठते हुए भी अजय की तेज आवाज उन तक पहुँची…‘मुझे पता है पापा…आपको कुछ याद नहीं आएगा…’
‘ठहरिए…’ रोकना चाह रही है बदहवास मनोरमा अवधेश प्रसाद को। घबराई हुई आवाज है मनोरमा की।
‘इसके सिवा कोई चारा नहीं रहा मनोरमा…’ गेंदे के ताजे फूलों का हार हाथ में लिए खड़े हैं अवधेश प्रसाद। अभी-अभी लौटे हैं बाजार से। थकी और टूट चुकी आवाज में कह रहे हैं- स्मृति से अधिक महत्वपूर्ण है विस्मृति। विस्मृति से बड़ा मरहम और कुछ नहीं! पता नहीं क्या-क्या भुला देता है। बाबूजी मरे थे, तो लगा कि अब जीवन खत्म हो गया। माँ नहीं रही। लेकिन देखा तो विस्मृति के कारण सब सामान्य हो गया। कितनी बार ऐसे अवसर आए कि दुनिया समाप्त नजर आई, कोई रास्ता ही नहीं होता था उन कमियों को भरने का या उन्हें दूर करने का। पर धीरे-धीरे सब मन से दूर हो गया। कितनी तकलीफें, कितना दुख… समय के साथ सब से उबर गए। मन में विस्मृति का उपकरण कहीं है तो, लेकिन अजय के मामले में काम ही नहीं करता। हर क्षण मन और आँख में रहता है बेटा मेरा। भुलाया ही नहीं जाता वो मुझसे। पूरे एक साल पहले ठीक आज ही के दिन वो हमसे मिलकर गया था। अब अगर ये मान लूं मनोरमा कि आज के दिन वो मर गया था हमारे लिए…तो शायद उसे भुला सकूँ।
हल्की सी चीख निकली है मनोरमा के मुँह से। पत्नी के झपट्टा मारकर रोकने तक वो अजय की फोटो पर हार चढ़ा चुके हैं। पत्नी का कलेजा मुँह को आ गया है, क्योंकि अजय को याद कर युग जैसे बीते इतने सालों में आज पहली बार रो रहे हैं अवधेश प्रसाद। शायद जवान बेटे की मौत का दुख है। हुमच-हुमच कर रो रहे हैं।
Original Image: Joyful Father
Image Source: WikiArt
Artist: Vasily Perov
Image in Public Domain
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