सुरख़ाब के पर
- 1 October, 1951
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- 1 October, 1951
सुरख़ाब के पर
हमारी कहानी में कोई सुरख़ाब के पर लगे हुए हैं, ऐसी बात नहीं। लेकिन है यह सुरख़ाब के एक जोड़े के बारे में और यह महज़ कहानी नहीं, आप-बीती है।
सुरख़ाब और चकवा में कोई अंतर नहीं, यानी सुरख़ाब ही चकवा है और चकवा ही सुरख़ाब है, यह कहा जाए तो ज्यादा ठीक होगा। शुद्ध संस्कृत में इसे चक्रवाक कहा जाता है।
जहाँ हमारी कहानी शुरू होती है, चकवा का प्रवेश उसके बहुत बाद होता है। इसलिए फिलहाल उसे छोड़ कर आरंभ पर ही ध्यान जमाता हूँ।
जाड़े के दिन थे और बेकारी की दुपहरी आने पर थी। घर में बैठे-बैठे तबीयत नहीं लग रही थी। इसी वक्त आ पड़े मेरे एक मित्र जिन्हें सुविधा के लिए मि. लाल कह लें। आते ही उन्होंने कहा, “शिकार में चलते हो?”
मैंने कहा, “जरूर।”
यानी सिर्फ इन्हीं दो वाक्यों में शिकार पर चलने का प्रोग्राम पूरी तरह बन कर तैयार हो गया हो, ऐसी बात नहीं। लेकिन सार यही था।
और फिर हम दोनों ने अपनी-अपनी बंदूकें सँभालीं और कई तरह के दर्जनों कारतूस झोले में भर कर चल दिए। बंदूक सँभालने और 8 नंबर से 1 नंबर तक के कारतूस झोले में भर कर मोटर साइकिल पर एक आगे, एक पीछे, सवार हो लेने के पहले खाना खा लिया था, कहना व्यर्थ है।
पहुँचे उस छोटे जंगल के उस पार जो ज़माने से लोहरदगा से लगभग ढाई-तीन मील हटकर ‘बक्सी पतरा’ के नाम से मशहूर है। तीन तरफ जंगल और एक तरफ खुले मैदान से, जिधर दूर-दूर तक धान के खेत हैं और जहाँ-तहाँ ताड़ और बेर के पेड़ व्यर्थ-से खड़े झख मार रहे हैं, घिरा हुआ एक न-छोटा-न-बड़ा तालाब है। यहाँ बराबर पक्षी मिलते हैं ऐसा उन सारे शौकीन शिकारियों का कहना है जो अधिकतर खाली हाथ लौटा करते हैं। हर जानवर अथवा पक्षी के शिकार के लिए अलग-अलग वक्त मुकर्रर होता है, और हर शिकारी इसलिए ही बगैर शिकार मारे वापस होता है कि ऐन वक्त पर वह पहुँच नहीं पाता। वैसे उनके कारतूसों का रोकड़ मिलान किया जाए तो आधे दर्जन के लगभग कम ही निकलेंगे। लेकिन कोई ऐसा कहता नहीं।
मेरा ख्याल है, हमारा तो कर्मण्येवाधिकारस्तु मा फलेषु कदाचन्। फिर अगर शिकार की किस्मत में उस घड़ी मौत नहीं लिखी हो, तो बंदूक का निशाना लगाने वाले का क्या दोष?
घंटा भर गुज़र गया और सभी अच्छे और सफल शिकारियों की तरह हम भी खाली हाथ लौटने की तैयारी करने की सोचने लगे। मैंने तो यहाँ तक राय दी कि रास्ते में अगर बहेलिया मिल जाए तो दो-एक तीतर खरीद कर ले चलें। वैसा ही होगा तो किसी पेड़ से बाँध कर उन्हें बंदूक मार लेंगे।
मि. लाल आशा-निराशा के बीच झूलते हुए इधर-उधर नज़रबाज़ी करते रहे और मैं ‘बिग गेम हंटिंग’ पढ़ता रहा।
और अचानक मि. लाल ने कहा, “वह देखो।”
हमने देखा–आसमान में दो चिड़िया।
“सुरख़ाब का जोड़ा है।”
और हम दम साध कर देखते रहे। मि. लाल मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि यह जोड़ा इसी तालाब में उतर जाए जिसके तीन तरफ सुहाना जंगल है, एक ओर मैदान है, जिधर दूर-दूर तक धान के खेत हैं और जहाँ-तहाँ ताड़ और बेर के सुंदर पेड़ शान से खड़े हैं और जिसके एक किनारे पर हम दोनों बंदूक लिए शिकार मारने को बेक़रार बैठे हैं।
किसी ने लाल की प्रार्थना सुन ली और दुर्भाग्य के मारे दोनों सुरख़ाब तालाब में उतर पड़े।
मि. लाल ने कहा, “तुम मारो।”
मैंने कहा, “नहीं तुम।”
लाल बोला, “मेरा निशाना उतना अच्छा नहीं।”
मैंने भरोसा दिया, “इसी तरह तो निशाना अच्छा होगा।”
अगर आप यह समझते हों, मुझे अपने निशाने पर भी संदेह था तो यह गलत है। मेरा निशाना बराबर अचूक होता है, वैसे, ऊपर कह चुका हूँ, अगर शिकार की मौत नहीं आई हो, तो मेरा क्या कसूर? मैं किसी की तक़दीर तो नहीं बना सकता, मतलब नहीं बिगाड़ सकता!
और मिस्टर लाल ने धड़कते हृदय और काँपते हाथों से बंदूक उठाई और छुप-छुप कर उस ओर बढ़ने लगे जहाँ से सबसे बढ़िया निशाना लगाया जा सकता था। रेंज के बाहर से बंदूक दाग कर एक मात्र लाभ यही हो सकता था कि सुरख़ाबों का जल-विहार समाप्त होकर गगन-विहार आरंभ हो जाता। और मानी बात है कि उनके गगन-विहार में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
उन सारे तरीकों को काम में लाते हुए जिनका व्यवहार आदम के ज़माने से आजतक छिप कर शत्रु पर वार करने के लिए किया जाता है, मि. लाल उस जगह पर पहुँच गए जहाँ कुछ ऊँची-ऊँची घास थी और जहाँ से उन कम्बख्त चिड़ियों के जोड़े को तो बखूबी देखा जा सकता था, लेकिन वे मि. लाल को नहीं देख सकते थे।
और मैं इन तीनों ही देखने वालों की नज़र देख रहा था।
एक सुरख़ाब ने दूसरे सुरख़ाब की चोंच पर चोंच मारी और दोनों ने एक खास तरह की आवाज़ की जो ऐसे मौकों पर सुरख़ाब ही कर सकते हैं।
फिर दोनों आपस में कुछ दूर-दूर हो गए।
शायद मि. लाल दोनों को एक सीध में लेना चाहते थे। लेकिन इसके लिए अधिक इंतज़ार करते तो उनके उड़ जाने का भी डर था।
और अचानक आवाज़ हुई–धाँय।
प्रतीक्षा के इन कुछ ही क्षणों में ऐसी गहरी ख़ामोशी छाई हुई थी कि धाँय की यह आवाज़ बड़ी भयंकर लगी। साथ ही मि. लाल “वह मारा” चिल्लाते हुए बेतहाशा तालाब की ओर दौड़े।
और का, का, का की बड़ी दर्दनाक आवाज़ करता हुआ जोड़े का दूसरा सुरख़ाब उड़ गया। जिसे गोली लगी थी उसने दो-एक बार तड़प कर जान दे दी थी और अब पानी की सतह पर उतरा रहा था।
मि. लाल की खुशी की सीमा नहीं थी। वे अबतक पानी में घुस चुके थे और आगे बढ़ रहे थे।
और मैं ऊपर चक्कर काटते हुए उस सुरख़ाब को देख रहा था जिसकी कातर पुकार हमारे कलेजे को मथे दे रही थी।
हमने कितनों ही को मरते देखा था, कितनों ही को अपने आत्मीयों की मौत पर पछाड़ खाकर बेहोश होते देखा था, लेकिन कभी इतना दर्दभरा करुण क्रंदन नहीं सुना था। पहले जो भी देखा-सुना था वह हमारे बाहरी कानों और आँखों ने। यह पहला मौका था कि यह रोना सीधे मेरे दिल को छू रहा था, छू नहीं रहा था, उसे कुरेद रहा था।
सफलता की खुशी और अभिमान आँखों में और मरा हुआ सुरख़ाब हाथ में लिए हुए जब मि. लाल मेरे पास आए तो मैंने कहा, “लाल, उस दूसरे को अवश्य मारना चाहिए।”
लाल ने कहा, “जरूर। देखो तो कितना बड़ा है, कितना बढ़िया है?”
और वह दूसरा पक्षी जो चाहे नर रहा हो या मादा, अभी भी ‘का, का’ करता ऊपर चक्कर काट रहा था।
लाल ने कहा, “चाहता तो था कि दोनों को एक ही निशाने में ले लूँ, पर हो नहीं सका। खैर, जो मिला, कम नहीं।”
कुछ देर और हमने इंतज़ार किया, यद्यपि यह समझ रहे थे कि उड़ने वाला अब आज और नहीं बैठेगा। लेकिन उसकी तड़पन इतनी थी कि मैंने तय कर लिया था, उसे तड़पने के लिए ज़िंदा छोड़ना गुनाह होगा।
रास्ते में लाल ने कहा, “गनीमत हुई कि यह हाथ लगा, वर्ना बहेलिए से तीतर खरीदना ही पड़ता। पता नहीं, बहेलिया भी मिलता या नहीं।”
बहेलिए के मिलने का मुझे भी पूरा विश्वास नहीं था, और मैंने यह कहा भी।
लाल ने कहा, “तुम इसे अपने घर बनवाओगे या मैं ले जाऊँ। बनवाकर भेज दूँगा।”
मैंने कहा, “तुम्हीं ले जाओ। और भेजने की भी जरूरत नहीं। मुझे सुरख़ाब का मांस पसंद नहीं।”
रात भर मेरे आगे मरते हुए सुरख़ाब की वे व्यथापूर्ण आँखें घूमती रहीं जो बाद में भी खुली की खुली रह गई थीं, और उसके व्याकुल साथी का आर्तनाद रह-रह कर गूँज जाता रहा।
अब अधिक कुछ कहने को नहीं रह गया है। मुझे पूरी तरह विश्वास था कि वियोगी चकवा दूसरे दिन फिर उसी तालाब में अपने साथी की आकुल खोज में अपना टूटा हुआ दिल लिए इधर-उधर तैरता हुआ मिलेगा जिसके तीन तरफ मनहूस जंगल है और एक ओर क्लांत पड़ा मैदान है जिधर दूर-दूर तक उदास धान के खेत हैं और जहाँ-तहाँ ताड़ और बेर के पेड़ चिर-वियोगी-से चुपचाप खड़े आँसू बहा रहे हैं।
दोपहर को वही बंदूकें थीं, वही मि. लाल थे, वही कारतूस थे और बदले हुए हम थे। पहले दिन खुशी से शिकार मारने गए थे, और नहीं जानते थे, क्या मिलेगा, या कुछ मिलेगा भी या नहीं। आज परोपकार के लिए एक पहचाने हुए पक्षी को मारने जा रहे थे–चूँकि उसकी तड़पन मेरे लिए असह्य हो रही थी।
तालाब में अकेले इधर-उधर पागल-से घूमते हुए सुरख़ाब को मैंने अपनी बंदूक का निशाना बनाया।
जब उसे लेकर चले तो लाल ने कहा, “यह अच्छा हुआ कि हम दोनों ने ही एक-एक का शिकार किया। आज भी खाली हाथ नहीं लौटना पड़ा।”
मैंने कहना चाहा, दोस्त, हाथ तो आज भी खाली नहीं है, कल भी खाली नहीं था। लेकिन कल मैं भरा हुआ दिल लेकर लौटा था, आज खाली दिल लेकर लौट रहा हूँ।
और मन ही मन मैंने प्रतिज्ञा की, फिर कभी किसी चिड़िया पर बंदूक नहीं उठाऊँगा।
Image: Headed Duck hunter
Image Source: WikiArt
Artist: Viktor Vasnetsov
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