तोता पंडित

तोता पंडित

जोरावर सिंह का दिमाग एकबारगी खाली हो गया। डी.वाई.एस.पी. के रूप में यह उनका पहला छापा था और पहला ही फुस्स! शहर के बदनाम गुंडे कमाल को दबोचने आए थे। इनफार्मर-विनफार्मर, रेकी-वेकी, लाव-लश्कर हर तरह से चाक-चौबंद मगर पूरा घर फाका। पुलिस के सिपाहियों के बूटों की खट-खट और एक परिंदे की ‘टें-टें’ के सिवा कुछ नहीं।

‘ये कौन बोल रहा है? कमाल!’ जोरावर सिंह ने पूछा।

‘कमाल तो फुर्र हो गया हुजूर।’ पड़ोस के दर्जी शुभान मियाँ ने कहा, ‘यह तो कमाल का तोता है मिट्ठू मियाँ!’

‘अकेले रहता था कमाल? बीवी-वीबी, बच्चे-वच्चे…?

‘अब हुजूर ऐसे लोगों की क्या तो बीवी और क्या तो बच्चे! जब जरूरत पड़ी उठवा ली, मन भर गया छोड़ दो।’

‘हूँऽऽऽ! तो फिर ये तोता कहाँ से आ टपका? शैतान चले गए, औलाद छोड़ गए!’

‘हुजूर ये तोता तो उसकी रखैल रंडी फिदा बाई का है। किसी सेठ की ऐशगाह में जाने लगी तो नज़राना देती गई कमाल को मिट्ठू मियाँ का।’

हवलदार दीन मुहम्मद ने खैरख्वाहो जनाते हुए पिंजरे के पास जाकर खालिश लखनवी अंदाज में आदाब बजायी ‘आदाब अर्ज है मिट्ठू मियाँ!’

‘दूत्त स्साला!’

‘हाय! यह तो वैसा ही हुआ कि आप किसी को माला पहनाने चलें और वह थप्पड़ रशीद कर दे?’ दीन मुहम्मद अप्रतिभ हुए।

‘कुछ पता चला? क्या कहता है कमाल का तोता?’ जोरावर ने पूछा।

‘हुजूर यह तो गाली बकता है।’ हवलदार ने झेंपते हुए कहा,

‘उस साले कमाल ने इस हरामी को आसाम की खालिश मिर्ची खिलाई है।’

‘अब रंडी और गुंडे के पास रह कर यह सीखता भी क्या?’

सिंह को कौतुक सूझा, पिंजरे के पास गए, पूछा, ‘क्यों बे, कहाँ गया दिलावर?’ जवाब में तोते ने ‘हे-हे’ करते हुए कुछ कहा जिसको दीन मुहम्मद ने साफ करके बताया ‘चुप बे हरामी के पिल्ले।’

यह सुनते ही सिंह साहब के दिमाग का पारा ब्वाइलिंग प्वाइंट पर जा चढ़ा, ‘इसी साले को ले चलो।’

सो जनाब, इस तरह मिट्ठू मियाँ अशदपुर थाने लाए गए। मूड एकदम से उखड़ गया था। इस उखड़े मूड को ठीक करने के लिए किसी बिलायती शराब की दुकान से जानीवाकर आया, साहब दो घूंट भरते और पिंजरे को दो लात मारते, मिट्ठू मियाँ हर वार पर ‘अब साले!’ या इससे भी फोहस गाली बकते। उन्हें छड़ी से कोंचा गया। पानी-वानी डाला गया। मिट्ठू मियाँ की गालियाँ बढ़ती गई और साहब का पारा भी। आखिर उन्होंने हुक्म दिया, ‘इस हरामी मिट्ठू मियाँ का एफ.आई.आर. लिखो।’

‘जीऽऽऽ?’ दीन मुहम्मद ने हकलाते हुए पूछा।

‘सुना नहीं? एफ.आई.आर.!’ घोडे़ की पछाड़ी और अफसर की अगाड़ी नहीं पड़ना चाहिए। सो एफ.आई.आर. लिखी गई।

फोनो-फोन दूर-दूर तक खबर फैल गई। एस.पी. साहब पहले तो देर तक हँसते रहे फिर बोले, ‘आप का सिर तो नहीं फिर गया मिस्टर सिंह। तोते पर एफ.आई.आर.! अगर कहीं ऊपर वालों को खबर हो गई कि आपने न सिर्फ तोते पर एफ.आई.आर. किया है, बल्कि उस पर टॉरचर किए जा रहे हैं तो जानते हैं क्या होगा–तोता होगा पिंजरे के बाहर और आप पिंजरे के अंदर!’

सिंह साहब का नशा हिरन हो गया, ‘छोड़ दे रहे हैं सर।’

‘यह नेक काम तो आपको पहले करना चाहिए था महात्मन, अब तो बात फैल गई है। कोई भी आला अफसर पूछेगा, ‘कहाँ है वो आपका अभियुक्त, माने करामाती तोता, आप क्या जवाब देंगे?’

एस.पी. साहब ने आखिर मे कहा, ‘छोड़ने की बात भी भूल जाइए मिस्टर सिंह, अब तो उच्चतम मान की सुरक्षा का प्रबंध कीजिए, तोते को कुछ हो न जाए।’

जेरावर सिंह को नया बोधिसत्व प्राप्त हुआ कि नशा बुरी चीज है, चाहे वो दारू का हो या पोजीशन का। खुद पर लाख-लाख लानतें भेज रहे थे, गुस्से में क्या गलती कर बैठे! अब इस हरामजादे को ‘जेड सुरक्षा प्रदान करनी पड़ेगी। दामाद की तरह रखना पड़ेगा। कौन उठाएगा नाज-नखरे इसके? कौन करेगा देख-रेख इसकी? कहीं मर-मरा गया तो गई नौकरी! दारोगा सुल्तान अहमद जी से पूछा, ‘कौन कर सकता है इसकी हिफाजत?’

ऐसा कठिन सवाल अहमद के सामने कभी आया न था। अभी वे इसका हल सोच ही रहे थे कि द्वारपाल के रूप में खड़े होम गार्ड सनातन मिश्रा ने कहा, ‘हुजूर अपने पंडित जी राम पियारे महाराज!’

‘क्या?’ मिस्टर सिंह की आँखें सिकुड़ी।

‘सर, पुलिस के सिपाही बनने के पहले तोता ही तो पालते थे।’ वहाँ उपस्थित सभी सिपाहियों ने मिश्रा का समर्थन किया, कारण, यह बात सब को मालूम थी कि पंडित राम पियारे महाराज सिपाही बनने से पहले कपाल पर राम-नाम छाप कर और रामनामी ओढ़ कर तोते से सगुन विचारने का काम करते थे। कई सिपाहियों और छोटे-मोटे अफसरों ने भी उनकी सेवाएँ ली थीं। कचहरी के ऐन सामने वे एक चबूतरे पर बैठते। उनके सामने पिंजरे में एक तोता होता और पिंजरे के सामने लिफाफों में छपा हुआ भाग्यफल। मुकदमें में डिग्री होगी या नहीं- जानने वाला पैसा देता, पंडितजी पिंजरे का द्वार खोल देते। तोता पिंजरे से निकल कर कोई लिफाफा खींच कर वापस पिंजरे में लौट जाता।

कुछ एक मामलों में तोते की भविष्यवाणी सही निकली तो उनके श्वसुर, जो किसी आला अफसर के घर पूजा-पाठ करते थे, ने उन्हें पुलिस की नौकरी दिलवा दी। मामला वहाँ भी इतना आसान न था। भर्ती में एक दौड़ दौड़नी थी। अब राम पियारे ठहरे चबूतरे पर बैठने वाले जीव, कभी दौड़े होते तो न दौड़ पाते! पर जैसा कि होता आया है, नियुक्ति राम पियारे जी की ही हुई। कई कंडीडेट कुटमुटाए–यह तो सरासर धाँधली है मगर कुटमुटाने वालों में अंत-अंत तक एक ही जवान टिका रहा–सनातन मिश्र! सनातन मिश्र ही दौड़ में अव्वल आया था। उस लिहाज से नौकरी का पहला हकदार वह था राम पियारे नहीं। सो सनातन मिश्रा का मुँह बंद करने के लिए उसे होमगार्ड में रख लिया गया। जैसा कि होता आया है, हर थाने के अंदर एक मंदिर होता है! अमूमन वह माँ काली या हनुमान जी हुआ करते हैं। पुलिस के सिपाही से लेकर चोर-उचक्के तक अपनी यात्रा में सफल होने की मिन्नत और मनौती करने के बाद ही प्रस्थान करते हैं। असदपुर के इस थाने में भी हनुमानजी का मंदिर था। पंडित राम पियारे नाम मात्र के ही पुलिस के सिपाही थे। उनका असल काम था पूजा करना। किसी रेड-वेड या छापे-वापे में उन्हें ड्यूटी तभी दी जाती, जब कोई छुट्टी पर गया होता। पूजा-वूजा पूरी करते-करते दोपहर हो जाती, तब उनका थाने में पदार्पण होता। बड़े बाबू, छोटे बाबू, मुंसी, हवलदार सभी को प्रसाद और आशीर्वाद प्रदान कर लंच के लिए रवाना करते और अंदर स्टूल पर विराजमान होते। माने राम पियारे गेट के अंदर होते और सनातन मिश्र गेट के बाहर। पंडित होने के नाते क्या बड़े, क्या छोटे सभी उनका सम्मान करते। बस एक सनातन ही अकड़ू खाँ बना दूसरी ओर ताकता रहता। ऐसे में प्यास हो, न हो, पंडित राम पियारे को प्यास लग जाती। बड़े प्यार से सनातन को पुकारते, ‘मिसिर भैया, जरा पानी तो पिलाना। तुम तो जानते हो तुम्हें छोड़ किसी और के हाथ का पानी नहीं पीते हम।’

मिश्रा कुढ़ कर रह जाता। ‘स्साला बेइमान! मेरी नौकरी छीन कर राज कर रहा है। गहरी मुस्की मधुरी बानी, दगाबाज की यही निशानी!’

जेरावर सिंह ने पंडित जी को बुला भेजा, ‘हनुमान जी के साथ-साथ इस तोते की देखभाल का जिम्मा आज से आपका। ख्याल रहे आप दुनिया के सबसे सज्जन सिपाही हैं तो यह दुनिया का सबसे दुर्जन तोता। आप के मुँह से हमने गाली कभी सुनी नहीं और इसे गाली छोड़कर कुछ आता नहीं। यह भी याद रहे कि यह अभियुक्त है और आप सिपाही!’ पंडित राम पियारे परम प्रसन्न हुए–

‘विधि बस सुजन कुसंगति परहीं,
फणि मणि सम निज गुन आचरहीं।

अहोभाग्य मेरा। आपका लाख-लाख धन्यवाद साहब, अपने शुकदेव मुनि की सेवा का हमें अवसर दिया। तोता तो तोता, आपका हुक्म हो तो मैं थाने के सारे पक्षियों को शिष्ट भाषण करना सिखा दूँ।’

पंडित रामपियारे जी परम प्रसन्न हुए। उन्होंने पिंजरे को गंगाजल से धोया और मिट्ठू मियाँ को भी। अपने नाश्ते के लिए भिंगोए चने से थोड़ा चना निकाल कर धोई हुई प्याली में रखा, साथ ही कुछ लाल मिर्चियाँ भी। एक अलग प्याली में पानी रखा फिर हाथ जोड़ कर बोले, ‘अहो भाग्य मेरे शुकदेव महाराज। आप तब तक खाने-पाखाने से निवृत्त हो लें, मैं आपके लिए कुछ और देखता हूँ।’

अपनी मीठी जबान के लिए थाने भर में मशहूर थे पंडित जी। कहते हैं, सपने में भी भूल से किसी को अपशब्द नहीं कहा, फिर मिट्ठू मियाँ तो उनके ‘शुकदेव महाराज’ बन चुके थे। जब तक वे उनके लिए पका हुआ अमरूद ले आते, वे खाने-पाखाने से निवृत्त हो अर्द्धोन्मीलित आँखों के तोता चश्मा हो चुके थे। पंडित जी ने हाथ जोड़कर उन्हें बड़े प्यार और मनुहार से निवेदित किया, ‘महाराज, फल ग्रहण करें।’

‘दुत्त साला!’ तोते ने पंडित जी को पुराने अंदाज में जवाब दिया।

पंडित जी को ठेस लगी। सामने ही थाने की हाजत में गाँधी जी के तीन बंदरों की तरह पकड़े गए तीन बदमाश और ऐन दरवाजे पर उनका चिर शत्रु सनातन मिश्रा बक ध्यान लगाए देख रहे थे। किसी तरह खुद को सँभाला, ‘ऐसा नहीं बोलते। सित्ता राम बोलो बेटा सित्ता राम!’

‘दुत्त साला!’

हाजत के तीनों कैदी और सनातन ताली बजाकर हँसने लगे, ‘वाह बेट्टा! तुमने हम सभी की बेइज्जती का बदला एक साथ ले लिया।’

पंडित जी खिसिया उठे पर धीरज न छोड़ा। अमरूद को अंदर रखा, प्याली में पानी डाला और बाहर चले गए। दारोगा अहमद साहब ने तंज कसा, ‘पंडित जी ने मिट्ठू मियाँ से लेने को शुकदेव महाराज तो बना दिया, अब उसकी गालियाँ छुड़वा दें, तो उन्हें उस्ताद मानें।’

उधर तोते की कीर्ति दूर-दूर तक फैल रही थी। थाने के हर स्टाफ का गालियों से सत्कार करने के बाद उसने हर आगंतुक का सत्कार उसी अंदाज में करना शुरू किया। एस.पी. साहब और पुलिस के कुछ आला अफसर आए उनका भी। एक दिन एस.पी. साहब थाने के मुआयने के लिए आए तो सनातन मिश्रा ने एक कड़कदार फौजी सैल्यूट करते हुए निवेदन किया, ‘सर इजाजत हो तो कुछ अर्ज करूँ!’

‘येस!’ एस.पी. साहब खड़े हो गए।

‘सर, मुझे नहीं लगता कि तोता पंडित कभी इस तोते को सुधार पाएँगे।’

‘क्या बकते हो? कौन है यह तोता पंडित?’

‘वही सर, अपने राम पियारे पंडित सिपाही जी जिन्होंने तोते की गाली छुड़वा देने का बीड़ा उठाया है।’

‘तो तुमलोगों ने आखिरकार उन्हें तोता पंडित बना ही दिया।’ तनिक हँसे फिर पूछा, ‘क्यों नहीं सुधार पाएँगे?’

‘सर तोता पंडित को तो यह भी नहीं मालूम कि तोता किसका वाहन है? जब मर्ज का ही पता न हो तो उपचार क्या होगा!’

‘क्यों पंडित, मिश्रा क्या कहता है?’

‘पंडित झुंझला उठे, ‘सर तोते को तो शुकदेव मुनि ही तो….!’

‘जी ना सर, कामदेव को रामनामी ओढ़ा देने भर से वह शुकदेव मुनि नहीं बन जाएगा।’

‘कामदेव? क्या बकते हो?’

‘हुजूर जिस तरह लक्ष्मी जी का वाहन उल्लू होता है, विष्णु जी का गरूड़, सरस्वती जी का हंस, उसी तरह कामदेव का वाहन तोता होता है।’

‘आय सी! तभी कहें, साले तोते इतने ‘छैला’ क्यों बने रहते हैं!’

‘अब हुजूर जितनी भी गालियाँ हैं, सारी की सारी न भी हों तो अधिसंख्य यौनता से ही उपजी हैं, जैसे साला या माँ-बहन, बेटी-वेटी से जुड़ी गालियाँ…! माने काम-भावना से…।’

‘अरे वाह!’

‘इस तरह गालियों के देवता हुए कामदेव और कामदेव का वाहन है तोता!’

‘क्यों पंडित…?’ एस.पी. साहब ने पंडित राम पियारे से पूछा। पंडित अवाक!

‘हुजूर, पंडित जी से ज्यादा बड़ी ज्ञाता तो रंडीखाने की फिदाबाई निकली, जिसने तोते को सही पीठ यानी काम-पीठ पर प्रतिष्ठित किया था।’

‘हाय! मारेसि मोहिं कुठाव!’ बिलबिला उठे पंडित रामपियारे।

‘ऋषियों-मुनियों को क्या कहा जाए, कभी इसे शुकदेव मुनि कह डाला, कभी कामदेव का वाहन!’

‘सर दुर्जन को सज्जन बनाना तो अपना काम है। अगर मैं, इस क्या नाम के फिदाबाई और कमाल के कोठे के मिट्ठू मियाँ को ‘काम पीठ’ से उतार कर ‘राम पीठ’ पर लाकर शुकदेव मुनि न बना पाया तो…’

‘तो तुम्हारी छुट्टी!’ वाक्य को एस.पी. साहब ने पूरा किया।

पंडित रामपियारे के सामने कठिन चुनौती आ खड़ी हुई थी। समय-समय पर भोजन-पानी देते समय वे तोते को अपने मीठे आचरण से सुधारने और शिष्ट भाषा सिखाने का यत्न करते और तोता था कि उनकी हर कोशिश को दुत्कारता रहता। तोते को ‘राम-राम’ रटाते-रटाते वे एकमेव हो जाते। अब अकेले मिश्रा ही नहीं, हर कोई उन्हें पंडित जी नहीं तोता पंडित कहने लगा था। जब भी तोता उन्हें दुत्कारता, हाजत के कैदी और सनातन ताली बजाते और हुड़के जाते। अगला दिन आता, फिर उसका अगला दिन फिर उसका अगला दिन…। हर दिन विक्रम-बेताल की कथा की पुनरावृत्ति होती। पिंजरे के साथ पंडित जी के आते-जाते सनातन डंक मारता–‘लगे रहो मुन्ना भाई!’ पंडित राम पियारे अगले दिन और भी मीठे अंदाज में तोते को रटाते ‘बोलो बेट्टा सीता राम! पर ‘बेट्टा’ जस का तस- सूरदास की काली कमरी, चढ़े न दूजो रंग!

और लीजिए, राम-राम करते-करते आ गई परीक्षा की घड़ी। पुलिस विभाग के आला अफसरों के जूतों की धमक दूर से ही सुनाई पड़ने लगी। थाने में प्रवेश करते ही वह धमक धीमी पड़ गई कि तोता पंडित की तपस्या में खलल न पड़े। तोते की क्षीण-सी आवाज तोता पंडित की भारी आवाज में दब रही थी–

तोता पंडित–तू साला, तू!

तोता–… …. …..

तोता पंडित–तू हरामी का पिल्ला

तोता–… …. …..

तोता पंडित–मादर … …

तोता–… … …

तोता पंडित–बहन… … …

तोता–… … …

तोता पंडित–तेरी बेटी…!

तोता अब चुप हो गया। लगता था या उसकी गालियों का स्टॉक खत्म हो गया था। अब सिर्फ तोता पंडित की आवाज थी। पहली बार उनके मुँह से गालियाँ बरस रही थी। इतनी सड़ी और फोहस गालियाँ तो मिट्ठू मियाँ को भी न आती होंगी। पता नहीं पंडित जी कामदेव के वाहन पर सवार थे या कामदेव का वाहन उन पर…!


Original Image: The Green Parrot
Image Source: WikiArt
Artist: Vincent van Gogh
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork

संजीव द्वारा भी

‘स्वाल है, हम क्या बचाणा चाहते हैं और क्या बच पाता है। एक-एक कर प्यारी लगने वाली चीजें हमें फेंकनी पड़ती हैं, ताकि गढ्डा हल्का हो, हम भेड़ियों से जाण बचाकर भाग सकें। अब अपणा ही देखो, बची भागवंती, पेट में की निशानी, माने मैं उसकी बेटी लाजो, और...दादा जी का हुक्का। गुजरे जमाने की यादें ताजिंदगी ढोया करे हैं हम जबकि खुद को ही ना ढोया जावे...और यादों को ढोने का जज्बा...? भौत-ई खतरनाक है ये जज्बा भौत-ई खतरनाक! बचा तो पाते नहीं, मुफत में कुछ और गँवा आते हैं हम। हाय रे भाई जित्तू और बूआ नीलू! चाहते तो वे पहले भी भाग सकते थे। तब इन्हें बचा लेते हम मगर वो...पुश्तैनी हुक्का! एक निशानी बचाने के लिए सारी निशानियों को मिट जाने दिया हमने।