तुम कितनी महान हो!

तुम कितनी महान हो!

आज भी किरण बता नहीं पाती कि वह राजेश की ओर कैसे और क्यों खिंचती चली गई। यह उसी के लिए नहीं, राजेश के लिए भी एक रहस्य है–रहस्य। मगर उसे तो इतने से ही संतोष है कि राजेश इतने अर्से के बाद भी उसके निकट उतना ही है, जितना वह बराबर चाहती रही।

शैशव की चुहलबाजियाँ जब मिटती जा रही थीं तो एक दिन किरण ने टोक दिया–“राजू! जीवन की यात्रा बड़ी लंबी होती है, कभी साथ तो नहीं छूटेगा?”

राजेश चौंक पड़ा। ‘क्या किरण इतनी बड़ी हो गई कि इतनी सारी बातें जान गई–जीवन…यात्रा…लंबी और जाने क्या-क्या! आश्चर्य…आश्चर्य!’

किरण बड़ी होती जा रही है–उम्र में और मस्तिष्क में भी। राजेश तो उससे बड़ा था ही। फिर अकसर ऐसी बातें हो जातीं। हँसी से भरे दिन होते और सुमधुर भावनाओं में फैलती-सिमटती रात।

बात यह तब की है जब राजेश विश्वविद्यालय का एक छात्र था और किरण की माँ के मकान में किरायेदार के रूप में रहता था।

फिर दिन बीते, माह बीते और साल बीते।

किरण हाई स्कूल की देहरी पार कर विश्वविद्यालय में दाखिल हुई और राजेश अपनी आखिरी डिग्री लेकर संसार की ओर मुड़ा।

ग्रीष्मावकाश में घर जाते समय उसने आश्वासन दिया–“छुट्टी के बाद यहीं लेक्चरर बन जाऊँगा। फिर सोच कैसा!” स्टेशन से जब गाड़ी खुली तो राजेश की आँखों में मुस्कुराहट थी और किरण की आँखों में आँसू और लज्जा भी।

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घर पहुँचते ही राजेश के पैर तले से मिट्टी सरक गई। विधवा माँ के दुलारे बेटे की शादी पक्की हो गई है। माँ का एकमात्र सहारा, उसका हँसी-खुशी का एक ही प्रेरक। इनकार करता है तो माँ का स्वप्न-सौध चूर-चूर होकर धरातल पर आ गिरता है और स्वीकार करता है तो किरण के बचपन से बनते हुए सपनों के खिलौने टूट जाते हैं। हाय राम! वह क्या करे, किससे कहे! अजीब उधेड़बुन। एक बार ‘ना’ कहने की वह भूमिका ही बना रहा था कि माँ के सूखे हुए चेहरे की तड़प देख वह सहमकर चुप हो गया।

फिर एक दिन वह भी आया जब राजेश अपनी तथा किरण की तमाम भावनाओं को कुचल कर नई दुलहन लेकर अपने घर लौट आया। माँ के चेहरे पर हँसी देखने को उसने अपनी दुनिया लुटा दी। दिल की दुनिया कुछ और थी और आँखों के सामने जो नई दुनिया बनी वह कुछ और ही रही। उसकी आखिरी कोशिश रही कि उसकी दिल की दुनिया तक किसी की पैठ न हो मगर नारी की आँख की चातुरी से वह दूर न भाग सका।

उस दिन कुसुम ने अपने पति से पूछ ही दिया–“आपको हो क्या गया है? बराबर खिन्न रहते हैं। आखिर मुझसे कोई पर्दा कैसा?”

राजेश उससे अपने मन की बातें छुपा न सका। थोड़ी में सारी बातें कह सुनाईं।

कुसुम सारी कहानी सुनती गई, सुनती रही। मन में जाने कितनी भावनाएँ आईं और गईं। संसार के सामने जो उसका अपना है वह शायद सचमुच उसका अपना नहीं…तो फिर…फिर…इससे क्या? वह तो उनकी हो चुकी है। उनका सुख-दुःख उसका अपना सुख-दुःख है। फिर यह तर्क-कुतर्क क्या? चिंता कैसी?

बातें समाप्त होते ही उसने झट कहा–“किरण आपके हृदय के समीप रहे, यही मेरी इच्छा है। आपकी खुशी मेरी अपनी खुशी है। फिर सोच कैसा!”

राजेश को विश्वास न हो रहा था कि कुसुम ऐसी बातें कह रही है। वह आँखें फाड़-फाड़ उसे देख रहा था। मगर कुसुम निश्चल रही। उसके मस्तिष्क में कोई भी उलझन नहीं। राजेश का तनाव कम हो रहा है, इससे वह खुश हो रही है। अपनी सत्ता को उसने पति के चरणों में मिटा दिया। उसके बलिदान का सही मूल्यांकन शायद राजेश भी न कर सका।

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राजेश के विवाह का पता पा किरण की क्या मनोदशा हुई, इसका आभास उसकी माँ तक को न मिला। आँखों में आँसू रह-रह कर उमड़ पड़ते मगर वे आँखों में ही छिप जाते। उसके हृदय की वेदना को यदि कोई जान पाता तो शायद समझ पाता कि उसके रंगीन महल की मीनारें इतनी ऊँची उठ चुकी थीं कि उन्हें बिना पूरा किए यों ही छोड़ देना किसी भी शिल्पी के बूते की बात न थी। मगर नारी के हृदय-तले जो त्याग की प्रकृति है, वह किसी भी असंभव को संभव बना सकती है। राजेश के पत्र उसके पास आए थे। उसने सारा वृत्तांत लिखा था और अंत में कुसुम के विचारों से उसे अवगत भी करा दिया।

किरण को राजेश और कुसुम की सहानुभूति पाकर एक सहारा मिल गया। उसने योजना बनाई कि एम. ए. की डिग्री लेकर वह कहीं अध्यापिका हो जाए। अविवाहित रहते हुए ही वह जीवन बिता दे।

परंतु माँ को यह मंजूर न था। वह चाहती थी कि किसी का घर बसाकर उसी की होकर रहे। ऐसे जीवन कितने दिन चलेगा? जब किरण ने माँ की एक भी न सुनी तो उसने राजेश से विनती की। राजेश ने उससे विवाह करने का आग्रह किया। मगर किरण को किसी की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं।

यों ही वर्षों गुजर गए मगर माँ ने आग्रह करना न छोड़ा और एक दिन बेटी को अपने आँसू और विधवा-जीवन की बेबसी दिखाकर राजी कर ही लिया।

फिर भी किरण ने राजेश से अनुमति माँगी। वह भला क्या जवाब देता? अनुमति दे दी, मगर शर्त यह रखी कि वह बीते हुए कल को भूलकर पति को अपनाकर अपने नए जीवन को पूर्ण रूप से अंगीकार करे।

किरण ने ‘हाँ’ तो कर दी मगर उसके नारी-सुलभ हृदय को यह मंजूर न रहा। नए जीवन की पहली रात में ही उसने अजीत बाबू को अपनी सारी कथा कह सुनाई और अंत में यह भी कह दिया–“शरीर तो आपके हाथों का खिलौना है मगर मन तो उसी आराध्य देव के चरणों में अर्पित है जिसे इस जीवन में पाने की मेरी अब कोई भी अभिलाषा नहीं।…फिर भी कोई बात नहीं। यदि कुसुम इस बात को अपनी छाती-तले दबाकर जीवन बिता सकती है तो आप ही इसकी फिक्र क्यों करते हैं? विधि का विधान तो अब टलने से रहा।”

परंतु किरण ने यहीं भूल की। कुसुम नारी है और अजीत पुरुष। एक संसार की ज्वाला को अपनी छाती की शीतलता से ढँककर ठंढी राख बना देती है और दूसरा उस ज्वाला को छूते ही खुद प्रज्वलित हो उठता है। अजीत के लिए यह पीड़ा असह्य थी। वह तड़प उठा, तड़पता रहा और कुछ दिनों तक तड़पकर सदा के लिए चिता पर सो गया।

उसकी मृत्यु के उपरांत किरण ने राजेश को पत्र लिखा–“अजीत बाबू मुझे एक बेटे और एक बेटा की निस्सहाय विधवा माँ बनाकर सदा के लिए इस नश्वर संसार से उठ गए। पहली ही रात मैंने अपनी सारी कहानी उनसे कह दी और कुछ भी छिपाने की जरा भी कोशिश न की। वे इस धक्के को बर्दाश्त न कर सके। जितने दिन जीवित रहे, घोर अशांति में रहे, फिर चिर-शांति की खोज में चिर-पुरुष की तरह इस धाम को छोड़कर स्वर्ग सिधारे! माँ को गए भी कुछ वर्ष बीत गए। अब मैं छाँह ढूँढ़ रही हूँ। दो नादान बच्चों को जिलाना है। क्या आप वरदहस्त देंगे?”

किरण की शादी के बाद राजेश ने उसे पत्र लिखना छोड़ दिया था। सोचा था, दोनों के नए जीवन में वह दीवार बनकर क्यों खड़ा हो? मगर हाय! वह क्या सुन रहा है! कुछ क्षण के लिए आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो उठा। मूर्च्छा-सी आ गई।

कुसुम ने झट पत्र उठाकर पढ़ा और रो पड़ी। जब शांत हुई तो बड़ी आजिजी से कहा–“जाइए, आज ही जाइए। बच्चों के साथ किरण को यहीं लेते आइए। हम सब साथ रह लेंगे। जाइए, अभी ही जाइए।

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काँटे की तरह सूखी हुई किरण की सूनी माँग देखकर राजेश के मन में कितनी भावनाएँ उठी होंगी या एक असीम निस्सहाय अवस्था में राजेश को पाकर किरण की क्या मनोदशा हुई होगी–यह भला कौन आँक सकता है? सिर्फ काली-काली दीवारों ने किरण को कहते यही सुना–“राजेश, मैं कहाँ जाऊँ, किधर जाऊँ? यहीं एक कन्या-विद्यालय में अध्यापिका हो गई हूँ। किसी तरह दिन कट ही जाएँगे; आप कभी-कभी आकर सुध ले लेंगे। हाँ, एकबार आपके घर अवश्य चलूँगी और कुसुम जीजी के चरणों पर सिर रखकर यही पूछूँगी कि जीजी! तुम कितनी महान हो!”

उदय राज सिंह द्वारा भी