टाइपराइटर

टाइपराइटर

अंततः मैंने वह पुरानी पोर्टेबिल टाइप मशीन खरीद ली थी।

बात काफी पुरानी है। टाइप राइटर चलन के बाहर नहीं हुए थे। कचहरी, नगरपालिका के बाहर और दफ्तरों में इनकी खटखटाहट गूँजती रहती थी। बहुत दिनों से तलाश में था। नई मशीन की कीमत सुन कर हिम्मत टूट जाती थी। मेरे एक मित्र सक्सेना जी, जो एक टाइप स्कूल चलाते थे, मदद की थी। दरअसल संपादकों द्वारा टंकित रचनाओं की घोषित अघोषित माँग के रवैए से ऐसा अनिवार्य लगने लगा था। यूँ भी मेरे जैसे अचर्चित लेखक की, आप लिखे–खुदा बाँचे वाली, हस्तलिपि से किसे माथापच्ची करने की फुरसत थी। ऑफिस में हिंदी की मशीन थी। पहले पाँच बजने के बाद अपने केबिन में चपरासी से मंगवा कर रचनाएँ स्वयं टाइप कर लेता। नौकरी के पहले बेकारी के दिनों में सीखा गया हुनर अभी याद था। उन दिनों टाइपिंग सीखने का महत्त्व आज के बी.टेक., एम.बी.ए. से कम नहीं था। गली मोहल्लों में टाइप स्कूल होते। जिन्हें इंस्टीट्यूट कहा जाता। ए. एस. डी. एफ. जी. से पाठ शुरू होकर ‘द क्विक ब्राउन फॉक्स जम्प्स राइट ओवर द लेजी डॉग’ पर खत्म होने के बाद गति का अभ्यास भर रह जाता। तीस से चालीस शब्द प्रति मिनट तक की स्पीड पर्याप्त मानी जाती। अक्सर चालीस वालों को कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाती। रोजगार कार्यालयों में इसी के आधार पर रजिस्ट्रेशन होता। तब पचास प्रतिशत प्रेम कथाओं का प्रारंभ टाइप स्कूलों में होता और स्कूल छोड़ने पर समाप्त भी। अनुभवी बुजुर्गों की राय होती यदि नौकरी न भी मिली तो कचहरी के बाहर एक कुर्सी टेबल डाल लड़का कुछ न कुछ तो शाम को कमा कर लौटेगा ही।

परंतु कुछ दिनों बाद लगा कि दफ्तर में ऐसा करना सहकर्मियों की दृष्टि में संदेहास्पद बनना था। लोग समझते मैं कुछ गोपनीय टाइप कर रहा हूँ। एक दो मातहत आकर मदद की पेशकश करते, ‘सर, आप क्यों परेशान हो रहे हैं। मुझे दीजिए। यह वर्मा है ही कामचोर। छोड़ कर चला गया होगा।’ उनको टालना उनके संदेह की पुष्टि करना होता। वास्तविकता से अवगत कराना और भी मुसीबत होती। कवि के रूप में कार्यालय ऐसी जगह कौन कुख्यात होना चाहेगा। आप लाख कहें कि आप कविताएँ नहीं लिखते, आप को कवि मान लिया जाएगा। फिर मौके बेमौके, फेयरवेल, रिटायरमेंट की पार्टियों में कवि के रूप में परिचय और कविता की फर्माइश। लोग मंद-मंद मुस्कराते उपहास भरी नजरों से ‘वाह-वाह’ करते जाते हैं। ऐसे में कौन घोंचू बनना चाहता। बाजार में टाइप करवाने पर रचना की दुर्गति हो जाती। अधिकांश टाइपिस्ट कचहरी, नगरपालिका के बाहर बैठने वाले होते। टाइप होने के बाद मुझे खुद याद करना पड़ता कि मैंने क्या लिखा था। एक साहित्यिक रचनाओं को टाइप करने वाला भी, परंतु उस प्रतिभा संपन्न प्राणी ने मुझे नितांत मूर्ख मान लिया था। शब्द तो शब्द वह मेरे लिखे पूरे वाक्य बदल देता। बड़ी विनम्रता से कहता, ‘भाई साहब, यह वाक्य मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था। अब जो धांसू चीज मैंने लिखी है, लोग पढ़ कर मान जाएँगे आप की लेखनी को।’

सक्सेना साहब के मित्र का पुराना पोर्टेबिल टाइप राइटर देख कर तबीयत खुश हो गई। सलोना, एक दम नया सा दिखता। सक्सेना ने मजाक किया, ‘मेरे मित्र ने मेण्टेन कर के रखा है। कुछ लोग होते ही शौकीन तबीयत के। तुम्हारी तरह लीचड़ और लापरवाह नहीं।’ मैं खिसियाई हंसी हंस कर रहा गया। घर आते समय मन उमंग से भरा हुआ था। दो दिनों का अवकाश लिया। टाइप करने बैठा छोटी मशीन में हाथ खुलने में समय लगना था। तभी पत्नी आ गई, उसने कहा, ‘यह तुम्हारे हाथों के अनुरूप है।’ तिरछी नजरों से देखते हुए वह मुस्कराई। वह अक्सर मेरे मुलायम, पतले हाथों को लेकर छेड़ती रहती- एकदम नाजुक, लड़कियों जैसे हाथ। मैं कृत्रिमता से झुंझलाया, ‘पहले यही हाथ तुम्हे बहुत पसंद थे। होठों से लगा कर…’

‘हिस्स! बच्चे सुन रहे हैं। पहले मैं बेवकूफ थी।’ लगा समय की धूप में सूख गई जमीन में कुछ नमी बची रह गई है, ‘वह तो अभी भी हो।’ उसकी आँखों में लाल कतरे झलकते झलकते रह गए। मन में आया टाइप का काम तो बाद में भी हो जाएगा। परंतु दुबारा देखने पर महसूस हुआ कतरों का कहीं निशान भी नहीं बचा था। वह मुझे लिखते पढ़ते देख वैसे भी चिढ़ती थी। मैं टी.वी. देखता रहता, सोता रहता, यहाँ तक यदा-कदा मेरे ड्रिंक करने पर भी उसे शिकायत न होती। लेकिन रीडिंग टेबिल पर मुझे देख कितने बकाया काम याद आ जाते। वह लिस्ट और थैला लिए आती, ‘देखो सब्जी के साथ एक किलो घी, सरसों का तेल भी खत्म हो गया, लाना है। और हाँ, स्टोर रूम का बल्ब भी बहुत दिनों से फ्यूज है एक ले आना।’

‘बल्ब, घी…? लेकिन कौन जा रहा है सब्जी लेने?’ मैं अचकचा उठता। मेरे सब्जी लाने पर वह लौकी की नरमाई, परवलों के बासी होने और भिंडी के कड़ेपन की शिकायत करती। उसके हिसाब से मुझे सब्जी खरीदना कभी नहीं आएगा। वह जिम्मेदारी उसने अरसे से सँभाल रखी थी। यही नहीं उसने लगभग सभी काम जैसे गैस बुक कराना, बच्चों के स्कूल अथवा जरूरत होने पर उन्हें डॉक्टर को दिखाना, रिश्तेदारी में संबंधों का निर्वाह आदि, जो अमूमन पुरुष करते, उसने ओढ़ रखे थे।

‘क्यों यह मेरा काम है क्या? लोग सब्जी नहीं लाते हैं? घर बाहर के सभी कामों की जिम्मेदारी मेरी ही है?’ वह देर तक बड़बड़ाती रहती। चिख-चिख से उस समय तो मेरा लिखना मुल्तवी हो ही जाता।

नई मशीन की खुशी या अभ्यास की कमी से शुरुआत में उँगलियाँ इधर-उधर पड़ी। पहले सोचा फ्ल्यूड लगा कर काम चला लूँ, लेकिन मन नहीं माना। नया कागज लगाया। टंकित हो जाने के बाद रचना की प्रति देख कर स्वयं मुग्ध रह गया। अब इसे छपने से कौन रोक सकता है। और वाकई एक प्रसिद्ध पत्रिका से दो सप्ताह के अंदर स्वीकृति आ गई। मशीन निश्चित रूप से भाग्यशाली सिद्ध हुई थी। नए-नए उत्साह में पड़ी कई रचनाएँ टाइप कर डालीं। फिर धीरे-धीरे ऊब होने लगी। सोचा जो कुछ समय नया लिखने में लग सकता था वह एक साधारण से काम में जाया हो रहा है। एक लंबे समय तक टाइप तो दूर लिखना पढ़ना ना हो सका।

एक दिन काफी समय बाद टाइप करने बैठा तो मशीन ने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए। एक अक्षर कागज पर पड़ते ही उसका कैरिज खर्र की आवाज के साथ दूसरे सिरे पर भाग जाता। एक भी पंक्ति टाइप न हो सकी। उत्साह मर गया। मैं टाइप स्कूल वाले सक्सेना जी की शरण में गया। उन्होंने बताया उनके यहाँ एक मिस्त्री आता है। वह है तो होशियार लेकिन पूरी तरह से बहरा। उसे इशारे से ही समझाना होगा। मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। कई दिनों बाद डोरबेल बजने पर दरवाजा खोलने पर वह सामने था। उम्र 60-65 या कुछ अधिक, छोटा कद, सफेद बाल, दाढ़ी कई दिनों की बढ़ी हुई। पान और गुटखे से दाँत पीले और काले पड़ गए थे। आँखों पर मोटे लेंशों का चश्मा, घिसी हुइ बहुत पुरानी कमीज और पतलून।

‘साहब, मैं जहूरबख्स। आप के पास टाइप मशीन है। मुझे सक्सेना साहब ने रिपेयरिंग के लिए भेजा है।’ अंदर आकर उसने पुराना ब्रीफकेस खोला। ब्रीफकेस का रंग उड़ चुका था। बताना मुश्किल था कि इसका असली रंग क्या रहा होगा। हैंडिल के स्थान पर सुतली का हुक बनाया गया था। उसके अंदर कई तरह के स्क्रू, पेंचकस, नामालूम से औजार, तेल की कुप्पी जाने क्या क्या भरा हुआ था। यह सामान भी ब्रीफकेस और उसे मालिक की तरह पुराने होने की चुगली कर रहा था। उसने मशीन देखी, ठोकी, पीटी, खोल कर कई पुर्जे अलग किए लेकिन वह ज्यों की त्यों रही। उसने सिर हिलाया, ‘यह ऐसे ठीक नहीं होगी। घर ले जाकर पूरी तरह खोलनी पड़ेगी। काफी वक्त लगेगा।’

मैं आशंकित हो उठा। एक बार भुगत चुका हूँ। एक जिल्दसाज मेरी किताबें, पत्रिकाएँ बाइंडिंग के लिए ले गया था। वे मुझे कभी वापस नहीं मिल सकीं। पुरानी बात है। मैंने एम.ए. किया था। प्रथम श्रेणी आने से उत्साह में भरा हुआ। कुछ रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी थीं। मेरे पास पुस्तकों और पत्रिकाओं का अम्बार था। उस दौर की सभी साहित्यिक पत्रिकाओं के नए, पुराने अंक। कुछ पत्रिकाओं के, ढूँढ़ कर एकत्रित किए हुए प्रथम अंक भी। पत्रिकाओं के हाशिए पर नोट्स और टिप्पणियाँ लिख रखी थीं। मन में कहीं शोध की दबी हुई इच्छा थी। मेरे नौकरी का शुरुआती दौर था। दफ्तर में एक बाइंडर आता था। उसे थोड़ा बहुत काम मिल जाता। मेरे मन में लालच आया। बाजार दर से काफी कम में काम हो जाने की उम्मीद थी। शायद यह भी हो सकता है कि ऑफिस में आगे और काम मिल जाने की उम्मीद में वह पैसे ना ही ले। किताबें ले जाने के बाद अरसे तक वह नजर नहीं आया। बाद में पता चला था कि उसने उसी दिन सभी पुस्तके-पत्रिकाएँ रद्दी में बेच कर शराब पी डाली थी। दूध के जले की कहावत सिद्ध होने जा रही थी। पत्नी कुछ अधिक ही सजग थी। उसे मेरे दुनियादार होने पर कभी यकीन नहीं आया। घड़ी, रेडियो, टी.वी. यहाँ तक कैल्कुलेटर तक रिपेयरिंग के लिए देते उसे उसके पुर्जों के बदल लिए जाने की आशंका सालती रहती। उसने कहा, ‘इसे मशीन घर ले जाने को न देना। जरूर पुर्जे बदल लेगा।’ उसने यह बात सदा की तरह अलग बुला फुसफुसा कर नहीं कही थी। वह जानती थी कि बहरा मिस्त्री उसकी बात सुन नहीं पाएगा। जहूर ने संभवतः होंठों की गति से कुछ-कुछ समझ लिया था। उसने कहा, ‘साहब इससे निशाखातिर रहे। ‘मशीन आपको पूरी तरह ठीक होकर मिलेगी। पुर्जे तो इसके अब आते नहीं। इन्हीं से कोशिश करूँगा।’

मैंने बहाना किया, ‘ऐसी बात नहीं है। लेकिन मुझे कुछ जरूरी काम आज ही करना है।’ पत्नी के सामने मैं अपने को दुनियादार होने के संबंध में किसी संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहता था। जहूर के चेहरे पर मेरी बात न समझने का असमंजस था। वह बोला, ‘मशीन में किसी तरह की शिकायत नहीं होगी।’

मैंने चिल्लाते हुए, ‘आज-आज’ कहने की कोशिश की। लेकिन इसे इशारे से कैसे प्रकट किया जाए नहीं समझ में आया। उसने अपनी ईमानदारी, विश्वसनीयता सिद्ध करने के लिए मेरे कार्यालय, मोहल्ले और शहर के कितने ही संदर्भ दे डाले। लेकिन मुझे बेवकूफ बनाना आसान नहीं था, ‘इससे क्या होता है? क्या वह किसी से लिखवा कर गारण्टी दे सकता है?’ मैंने इशारे से उससे कहा और विजय दृष्टि से पत्नी की ओर देखा।

‘मेरी बेइज्जती होगी। लोग मुझ पर हंसेंगे। कहेंगे, बुड्ढे पर एतबार नहीं किया। लेकिन साहब आप की बात भी गैर वाज़िब नहीं है। यह मिस्त्रियों की कौम होती ही ऐसी है। आप मुझ पर यकीन कर भी कैसे सकते हैं? मशीन कोई दो टके की तो आती नहीं।’ वह बड़बड़ाता जा रहा था। अगले दिन आने को कह कर चला गया। मैं पछताने लगा। आदमी लग तो विश्वसनीय रहा था। उम्र भी तो कितनी थी। पुरानी मशीन लेकर जाता कहाँ? अब पड़ी रहेगी कूड़े की तरह। अगले दिन वह सक्सेना जी की स्लिप लेकर आया। वह मगन था, ‘आपके बैंक के आलम साहब मेरे सगे रिश्तेदार हैं। लेकिन मना कर दिया। इतना भी यकीन नहीं रहा मुझ पर। आखिर आदमी आदमी के ही काम आता है। सक्सेना साहब ने पर्ची दे दी। बहुत दिनों से इनके स्कूल में आ रहा हूँ।’ वह मशीन बॉक्स में रख कर डोरी से बाँधने लगा। तभी मैंने इशारे से पूछा, ‘इसमें खर्चा कितना आएगा?’

वह बुदबुदाते हुए कुछ जोड़ता घटाता रहा, ‘तीन सौ पचास।’ मेरा दिल बैठ गया। पुरानी मशीन में इतने से काम का इतना ज्यादा। सरासर ठग रहा है। मैं उखड़ गया, ‘मुझे नहीं बनवानी। पचास लेने हों तो बोलो।’ वह समझा मैं सक्सेना साहब की पर्ची के बावजूद मशीन उसे नहीं देना चाहता। वह फिर अपनी और सक्सेना साहब की निकटता, आदमी पर विश्वास और अपनी ईमानदारी की दुहाई देने लगा। मैं खीझ गया। सुन वह सकता नहीं था। मैंने उसके हाथ से पर्चा छीनते हुए उस पर पचास रुपये लिख कर उसे दिखाया। वह आश्वस्त करता हुआ बोला, ‘हाँ, अभी पचास ही दीजिए, बाकी बाद में। कोई जल्दी नहीं है।’

‘ओह’ मैंने कागज पर पचास के आगे ‘कुल-बस’ इतना दबाकर लिखा कि कागज फट गया। अब वह कुछ-कुछ समझ रहा था कि मैं उसकी मागी गई राशि नहीं दे सकूँगा। हमारे बीच हील हुज्जत हो रही थी। उत्तेजना, जिद और गुस्से में मेरे होंठों की गति असंगत और लयहीन हो गई थी। इससे उसे समझने में दिक्कत हो रही होगी। वह असमंजस में सिर हिलाता हुआ अनुमान मात्र लगा पा रहा था। उसके कपड़े, शक्ल सूरत और उम्र उसकी माँग के अनुरूप नहीं लग रहे थे। आखिर टी.वी, फ्रिज, वाशिंग मशीन रिपेयर करने वाले नौजवान आते। उसके बंधे रेट होते। यहाँ तक चीजें बनवाएँ या नहीं, उसके आने पर परीक्षण शुल्क देना तो निश्चित था। और यदि वह अपनी बात कटने पर वापस चल देता तो भी गनीमत थी। जैसा एक दाम वाली दुकानों में होता है। उसकी गिड़गिड़ाहट से लग रहा था कि दाम तो वह कम करेगा ही। आखिर डेढ़ सौ पर तय हुआ। वह एक सप्ताह बाद आने को कह कर चल दिया। फिर रिक्शे के लिए दस रुपये पर अड़ गया, ‘साहब यूँ तो पैदल चला जाता। अभी थोड़े दिन पहले तक बड़ी मशीन लेकर मीलों तक पैदल चला जाता था। उम्र ज्यादा नहीं हुई। लेकिन बीमार था ना। अच्छा जाने दीजिए पैदल ही चला जाऊँगा। पान मसाले के लिए दो रुपये दे दीजिए।’ चेहरे पर झलक अई दयनीयता को छिपाने के लिए वह मुस्कराया। उसके मुँह का गुटखा खतम हो गया था। आखिर वह दो रुपये ले ही गया। उसके जाने के बाद पत्नी ने आँखे तरेरी थीं। चेहरे पर क्रोध और जुगुप्सा के भाव थे, ‘अब यह कौन साफ करेगा? कामवाली तो कल आएगी।’ वाशवेसिन थूक, पीक, थूके गए पान मसाले से भरा हुआ था। मैंने अपराध भाव से पत्नी की ओर देखा जैसे यह मेरी ही करतूत हो। मैंने कहा कि मैं ही नहाने के पहले साफ कर लूँगा। दूसरा रास्ता भी नहीं था। वह मेरी ओर देख व्यंग्य से मुस्कराई जैसे मेरे उपयुक्त काम मुझे मिला गया था।

जहूरबख्स मशीन ले आया था। वह लगातार मशीन की तारीफ किए जा रहा था, ‘मशीन बहुत अच्छी क्वालिटी की है। आजकल यह मॉडल मिलना मुश्किल है। रेमिग्टन कंपनी भी तो बहुत अच्छी थी। लेकिन बंद हो गई जाने कितने लोग बेकार हो गए होंगे। मेरे वालिद बताया करते थे कि इस कंपनी ने दुनिया की पहली टाइप मशीन पिछली सदी में 1873 में बनाया था। इसके पहले यहाँ हथियार बनाया करते थे। और साहब हरूफ भी तो हथियार का ही काम करते हैं। किन्ही जनाब लैथम साहब (क्रिस्टेंफर लैथम) ने इसकी ईजाद की थी।’

मैंने उसकी ओर घूर कर देखा। मुझे उसकी जानकारी पर आश्चर्य हुआ। वह अपनी धुन में बोलता जा रहा था, ‘मेरे वालिद बहुत काबिल आदमी थे। मशीन की कल पुर्जो की रग-रग के वाकिफ थे। उनकी टाइप की स्पीड की वजह से अँग्रेजों के वक्त उनकी नौकरी इम्पीरियल बैंक में लग रही थी। लेकिन उन्होंने नौकरी न करके टाइप स्कूल खोला था। लेकिन साहब मैं तो कुछ नहीं सीख पाया। वैसे भी आजकल दफ्तरों में कंप्यूटर लग रहे हैं। यह तो आउट आफ डेट हो चुकी है। पुरानी चीजों को कौन पूछता है। फिर भी साहब ओल्ड इज़ गोल्ड’ जैसे…अपनी ओर इशारा करते हुए जोर से हंसा जैसे उसने बहुत बड़ा मजाक किया हो।

उसने कहा, ‘आप टाइप करके देख लें। मशीन कंप्यूटर मात करेगी।’ मेरे टाइप करने पर उसने मेरी तारीफ की, ‘आप की टाइप की स्पीड अच्छी है। बैंक में हैं ना।’ मैं कुढ़ गया–मैं बैंक में अफसर हूँ। यह टाइपिस्ट समझ रहा है। मैंने रूखे स्वर में कहा, ‘ठीक है, ठीक है, इतने पैसे लिए हैं, इसकी कुछ गारण्टी है या नहीं?’

‘हुजूर, छह महीने आपको बोलना नहीं पड़ेगा। यूँ मैं हर महीने आकर फ्री सर्विस करूँगा। इस बीच कोई परेशानी हो तो सक्सेना साहब से कह दें, मैं हाजिर हो जाऊँगा।’ इस बीच व्यस्तता बहुत रहीं। नया शौक खत्म हो गया था। काफी समय बाद एक दिन टाइप करने बैठा तो मशीन जस की तस थी। जहूर पर बहुत गुस्सा आया। मुँह से निकल गया-यह दोगले होते ही ऐसे है। अब कहाँ ढूंढू इसे। एक नई लघु पत्रिका के आग्रह पर बेमन से टाइप करने बैठा था। एक प्रकार से बहाना मिला। दो चार दिन बाद सक्सेना साहब के यहाँ जहूर के लिए संदेश दे आया। अगले दिन वह आकर मशीन ठीक कर गया। जीवन पुराने ढर्रे पर चलने लगा था। रचनाएँ फिर कंप्यूटर पर टाइप होने लगीं। कभी कोई पत्र या लघुकथा टाइप कर लेता। जहूर जब तब आकर पूछ लेता- साहब मशीन ठीक तो चल रही है। कोई प्रॉब्लम तो नहीं है?

उसे मशीन दिखाने पर बीस तीस देना तो लगभग तय था। न कुछ करता तो झाड़-पोंछ, तेल आदि डाल देता। एक प्रकार से उसकी हमें आदत सी पड़ गई थी। जैसे अखबार के साप्ताहिक परिशष्ट की। उसकी बातों का प्रारंभ दफ्तरों में कम्प्यूटरों के प्रचलन की वजह से उसके काम की जरूरत का कम होते जाने से प्रारंभ होकर अंत टाइपराइटर पर होता। मेरे संकेतों को न समझ पाने पर, मेरा जोर जोर से चीख कर समझाना और उसका न समझ कर बेतुके जवाब देना- बच्चों का इससे मनोरंजन होता। वे हँसते। साथ में वह स्वयं भी हंसता। टुकड़ों टुकड़ों में जहूर के संबंध में बहुत कुछ जानकारी मिली थी। उसके पिता का टाइप स्कूल और घर, उसके चचाजात भाइयों और साझेदारों ने हड़प लिया था। बीवी का इंतकाल हो चुका था। उसके एक मात्र फरजंदेआलम दो साल हुए, नौकरी करने रियाद चले गए थे। वह दूर एक बस्ती में एक कमरा लेकर रह रहा था। बाजार में खाना खाता। उसके मकान और टाइप स्कूल का मुकदमा अदालत में पिछले पंद्रह बीस वर्षों से विचाराधीन था। वह दिन में एक बार अपने पिता के बंद हो गए स्कूल को बाहर से ही देख जरूर आता। जैसे अगले दिन जाने पर कहीं नदारत न मिले। अक्सर उसके आने पर, अभी मशीन ठीक चल रही है, फुरसत नहीं है, फिर आना जैसे बहाने बनाने पड़ते। फिर भी उसके गुटखे के लिए दो चार रुपएँ बंधे ही थे। आखिर इतनी दूर से आया हूँ–उसका तर्क रहता। पत्नी भुनभुनाती रहती। यदि उसका मूड ठीक होता तो वह जहूर के लिए चाय के साथ कुछ बिस्किट वगैरह ले आती।

इसके बाद एक लंबे अरसे तक वह नहीं आया।

सक्सेना साहब को भी ठीक से मालूम नहीं था। पता नहीं बीमार है या कुछ और…। बूढ़ा शरीर है आखिर। पत्नी कुछ दिनों से कुछ बेचैन सी थी। घंटी बजने पर दरवाजा खोलती, फिर कुछ निराश। एक दिन शहर का जीवन थम सा गया था। कुछ वर्षों पहले आरंभ एक एक नई सी परंपरा के तहत पहले किसी महत्त्वहीन सी घटना पर तनाव, छिटपुट हिंसा प्रारंभ होती, फिर कर्फ्यू लगना लाजिमी था। इस बार भी जन जीवन ठहर कर पंगु हो गया था। लोग घरों में बंद रहने को मजबूर हो गए थे। पत्नी की बेचैनी और बढ़ गई थी। यह उसकी पुरानी आदत थी। चुपचाप अपने मनोभावों को छिपाए प्रतीक्षारत रहती। परिवार में था ही और कौन? लेकिन इस बार मैं भी नहीं समझ सका। आखिर उसके भाव प्रकट हो गए। वह बोली, ‘पता नहीं क्या होता जा रहा है इस शहर को। वह इलाका तो कट्टर सुना जाता है। पिछली बार कितने झुग्गी, झोपड़ियाँ जला दिए गए थे। प्रशासन भी इन्हीं का साथ देता प्रतीत होता है। यह तुम्हारा टाइप मशीन वाला मिस्त्री भी तो वहीं कहीं रहता है। कुछ पता करो।’

मैंने अपने संपर्क याद करने की कोशिश की। एक, दो जगह फोन भी किए। लेकिन कुछ न हो सका। पत्नी ने कहा, ‘बस हो गए तुम्हारे रिसोर्सेस? कहते हो इस साहित्य की वजह से बड़े-बड़े लोगों से तुम्हारी पहचान है। वह अकेला बूढ़ा कहाँ होगा? बाहर ढाबे पर तो खाता है। इस समय तो वह भी सब बंद होंगे।’ कुछ देर वह निरुद्देश्य सी टहलती रही फिर पास आकर कहा, ‘यदि तुम मेरे लिए एक कर्फ्यू पास का प्रबंध करवा सको तो करो नहीं तो मैं देखती हूँ कि क्या हो सकता है।’

मेरे मन में आया इसीलिए औरतों को बहुत स्वतंत्रता देने से मना किया गया है। वह मेरी भनमनसाहत का नाजायज फायदा उठा रही है। मैं उसे कुछ कहता लेकिन उसकी आँखों में दृढ़ निश्चय की चमक देख कर टाल गया। शायद इसी जुनून में, तमाम विरोधों के बीच, मुझसे विवाह का निर्णय लिया होगा।

अगले दिन दो घंटों के लिए कर्फ्यू में छूट मिली थी। दफ्तर बंद था। मैं कहाँ जाता। मैं सो गया था। बीच में नींद खुली तो पत्नी घर में नहीं थी। बेटी, बेटे अपने कमरे में सोए हुए थे। सोचा बगल के फ्लैट में गई होगी। आखिर सभी तो छुट्टी के मूड में हैं। लेकिन मन नहीं माना। वह, बगल के ही नहीं, पूरे एपार्टमेंट में, जहाँ संभावना हो सकती थी, पता किया नहीं थी। मन चिंतित हो गया। सोचते सोचते सोफे पर बैठे ही फिर झपकी आ गई। नींद खुली तो पत्नी चाय के साथ पकौड़ियाँ तल लाई थी। सुबह के तनाव का नामों निशां नहीं था। मैंने पूछा लेकिन वह टाल गई। कुछ दिन बाद हमेशा की तरह सब सामान्य हो गया। सुबह और रात ढलने के साथ जीवन सामान्य गति से चलने लगा था।

एक दिन रविवार को सुबह दरवाजे पर घंटी बजी थी। मैं सामने कमरे में ही अखबार पढ़ रहा था। मैंने पत्नी की ओर देखा, उसने दरवाजा खोला। सामने हमेशा की तरह हंसता, लार बहाता जहूर था, ‘साहब आपने उस दिन जो मदद…’ वह जाने क्या बोलता रहता, लेकिन पत्नी उसकी बात काट कर बोली, ‘मशीन बिल्कुल ठीक है, साहब व्यस्त हैं। उन्हें कहीं बाहर जाना है।’ उसने दरवाजा बंद करने का उपक्रम किया।

‘हुजूर, एक गिलास पानी मिल जाता तो…।’ कहता वह अंदर आ गया था। पत्नी पानी लेने चली गई। वह मुझे देख खिल उठा, ‘साहब आप से एक जानकारी लेनी है? मैंने एक सरकारी ऑफिस में जॉब वर्क किया था। महीनों के बाद चेक से भुगतान हुआ। चेक वहीं के एक बाबू के ड्रार में पड़ी रह गई थी। चेक बैंक से वापस आ गई है।’ मैंने उसके चेहरे की ही तरह जर्जर हो गई चेक को देखा। चेक की मियाद जाने कब पूरी हो चुकी थी। चेक के साथ लगी पर्ची से ज्ञात हुआ कि चेक बैंक द्वारा ‘आउट आफ डे’ की आपत्ति के साथ वापस की गई थी।


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