उद्भ्रांत

उद्भ्रांत

अपनी पत्नी की मृत्यु के तीसरे दिन महँगू फिर मुझसे मिला। मेरे कुछ पूछने के पहले ही वह बोला–
“सरकार, रात वह आई थी।”

मैं भौचक्का हो उसका मुँह ताकने लगा। क्या इसकी अक्ल कुंद हो गई या यह पागल हो गया है ! मैं इसी हैस-बैस में पड़ा हुआ था, तभी वह बोला–“आप समझे नहीं, जब उसके दस्त शुरू हुए तो मेरे कानों पर जूँ तक न रेंगे। पर जब हालत सुधरती नज़र नहीं आई तब मैंने अस्पताल ले जाना ही उचित समझा। मैंने आकाश-पाताल एक कर दिए पर सब व्यर्थ गया। जब उसकी आँखों की पुतलियाँ उलट गईं, प्राण गरदन में अटकने लगे, तब उसने मुझे पास बुलाया और कहा–‘मुन्ने को एक बार दिखा दो’।”

“पर मैंने बच्चे को उसके पास फटकने तक नहीं दिया, औरों की तरह मुझे भी छूत का भय था।”

आँसू पीकर उसने कहा–“मरते समय भी उसने अपने लाड़ले को नहीं देखा।” आँखों को अपने मैले गमछे से पोंछते हुए वह बोला–“लोगों ने कहा, वह अपना बच्चा खा जाएगी। मरते समय भी उसने नहीं देखा है, वह अपना बच्चा जरूर ले जाएगी।”

“मैंने सोचा, बच्चे का ख्याल किया जाएगा तो काहे को टूटेगा ! लोगों की बातों को मैंने बिसरा देना चाहा। मेरी आँखों पर तो पर्दा पड़ा हुआ था। पर रात जब उसने कहा कि मैं अपना बच्चा ले जाऊँगा तब मेरी आँखें खुलीं। उसने खुद कहा है सरकार, वह जरूर ले जाएगी !”

उसकी भोली बातों को सुनकर मैं अपनी हँसी रोक न सका।

मुझे हँसते देख उसका मुँह गंभीर हो गया। वह रोषपूर्वक बोला–“आप हँसते हैं; पर मैं सच कहता हूँ, जब मैं सोया था, मैंने उसे अपने सिरहाने बैठा पाया। वह बड़े प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेर रही थी। पर जब मैंने आँखें खोली, तो वह न जाने कहाँ लोपित हो गई ! मारे डर के मैंने अपनी आँखें मूँद लीं। वह फिर आ खड़ी हुई। कहने लगी, ‘मेरा बच्चा दो’। मैंने कहा कि बच्चे को नहीं दूँगा।”

“सरकार, उसकी आत्मा मेरे खाट के चारों ओर घूमती है। लोग ठीक ही कहते हैं कि जिसकी अकाल मृत्यु हो जाती है, उसकी आत्मा आवारे की तरह अपनी मनचाही चीज के इर्द-गिर्द घूमा करती है।”

“जब मैंने उससे कहा, मैं बच्चे को नहीं दूँगा, तो वह लाल आँखें कर मुझे देखने लगी।”

“वह अपने बालों को नोच-नोच कर रोने लगी। उसका भयंकर चेहरा देख मेरे प्राण सूख गए। उसने दाँत किटकिटाते हुए कहा, मेरे बच्चे को दे दो, नहीं तो तुम्हारा भला नहीं होगा।”

महँगू इतना कहकर फूट-फूट कर रोने लगा। मुझसे कुछ कहते न बना; मैं उसकी अंधविश्वास-भरी भावुक बातों को सुनकर चुप था।

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आमों की मंजरी की महक से मस्त होकर जिस प्रकार कोयल कूकती फिरती है, उसी प्रकार मैना अपनी भरी गोद निहार-निहार कर खुशी में पागल हो रही थी।

भगवती माई को मनौती के पाँच पैसे के बदले उसने पाँच आने के बतासे चढ़ाए और बिरादरी-भर को न्योता दे आई।

आज उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं। उसके आँगन में मुहल्ले-भर की स्त्रियाँ इकट्ठी हुईं । बड़ी चहल-पहल थी, कोई ढोल बजा रही थी, कोई झाल और कोई पायल की झनकार पर थिरक रही थी।

सबों के बीच में बैठी, गोद में अपने फूल के समान बच्चे को लिए मैना खिलखिला कर हँस रही थी।

विवाह के तीसरे साल ही यह दिन आया कि महँगू का आँगन मुहल्ले की कुमारियों के नाच और बुढ़ियों के गान से मुखरित हो उठा। महँगू के पैर आज भूमि पर नहीं पड़ रहे थे, उसने दिल खोलकर खर्च किए।

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पर कौन जानता था, ईद के बाद इतनी जल्द मुहर्रम चला आएगा !

एक दिन मैं बैठा कोई पुस्तक पढ़ रहा था, तभी महँगू विषण्ण चेहरा बनाए सामने आ खड़ा हुआ।

“सरकार, उसका गंगालाभ हो गया !” उसके कंठ से कराहती हुई ध्वनि निकली, मानो किसी ने उसकी छाती को असंख्य बाणों से छेद दिया हो।

मैं चौंक पड़ा। मुझे लगा, जैसे किसी ने पिघला हुआ शीशा मेरे कानों में उँड़ेल दिया हो; और मेरे कान जलन से झनझना उठे।

मुझे धक्का-सा लगा। मैं मौन कुछ देर तक उसकी आँखों को देखता रहा और वह रोता रहा। पुन: सचेत होकर मैंने सहानुभूति के स्वर में पूछा–“उसे क्या हुआ था, महँगू ?”

“सरकार, भगवान…।” उसका गला भर आया, वह आगे कुछ न बोल सका। वह फूट पड़ा, उसके आँखों के प्याले छलक पड़े; जैसे किसी ने भरे घड़े में ठोकर लगा दी हो।

मैंने उसे ढाढ़स दिया–“रोओ मत, महँगू ! कौन अमर होकर आया है ? सभी को एक दिन जाना पड़ेगा, आज जाएँ या कल। दिल को मजबूत करो, रोने से अब फायदा ही क्या ?”

महँगू चला गया, पर मेरा मन उद्विग्न हो उठा। इस दु:खद समाचार का आघात मेरे हृदय पर वज्र के समान पड़ा। मैना चली गई और अपने पीछे दस मास के एक नवनीत जैसे कोमल शिशु को छोड़ गई; यही उस दु:ख को दारुण बना रहा था। उस दिन रात भर मुझे नींद नहीं पड़ी।

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निशा काला अवगुंठन ओढ़े हुई थी और शीत से हाथ-पैर अकड़े जाते थे। मैं रात की भयानकता को रजाई में मुँह छिपाए भूलने की कोशिश में था, तभी महँगू की माँ दौड़ी आई और मुझे जगाने लगी। मैंने अर्द्धनिमीलित आँखों को खोल दिया।

“जरा जल्दी उठिए मालिक, न जाने कहाँ वह इतनी रात गए बच्चे को लेकर चला गया।” एक ही साँस में उसने कह डाला।

मेरी अलसता आप ही अंतर्धान हो गई। और कल की बातें एक-एक कर मेरे मानस-पटल पर छाया-चित्रों की भाँति नृत्य करने लगी ! उसने फिर कहा–“सुबह ही कह रहा था, देखो माँ, मैंने बड़ा बुरा किया है। उसके बच्चे को रखने का मुझे क्या अधिकार है ? वह कई दिनों से माँग रही है, पर बच्चे की ममता मुझे रोक रही है। रात उसकी आँखों में खून उतर आया था। वह रो रही थी, कहती थी–‘क्या तुम मेरे बच्चे को नहीं दोगे ? मैं रोज तुमसे बच्चा माँग रही हूँ और तुम हीले-हवाले कर रहे हो। देखते नहीं, मुन्ने के लिए रोते-रोते मेरी आँखों से खून के आँसू गिर रहे हैं ?’

“सरकार, यही कहकर वह फूट-फूट कर रो रहा था। जब से वह मरी तब से उसकी दशा पागलों की-सी हो गई है। कहता है, ‘मैं रात को मैना से बातें करता हूँ।’ वह चुड़ैल आप तो गई ही, अब मेरा घर उजाड़ने पर तुली हुई है।”

मेरा माथा ठनका। भावी अनिष्ट की आशंका से अंतर काँप उठा। मैं रजाई अलग फेंक उठ खड़ा हुआ।

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महँगू लौट आया, पर बच्चा साथ में नहीं था।

मेरी त्योरियों पर बल पड़ गए, जी में आया कि पिशाच का मस्तिष्क अपने नखों से चिथड़े-चिथड़े कर डालूँ। खूनभरी आँखों से देखकर बोला–

“हत्यारे ! तुमने एक मासूम बच्चे का गला घोंट दिया !”

वह काँप रहा था। उसकी घिग्घी बंद हो गई, रोते-रोते बोला–

“सरकार मैंने उसे मारा नहीं। वह तो उसका बच्चा था, वह ले गई।”

“तुम पालग हो ! बोल, कहाँ रख आया है ?” क्रोध में मैं गरज पड़ा।

“सरकार, रात उसने कहा, तुम मेरे बच्चे को श्मशान घाट पर, जहाँ मेरी लाश दफनाई गई थी, रख आना, मैं ले जाऊँगी।” वह रो रहा था, पर खुशी से उसकी आँखें चमक रही थीं। उसका आँसुओं से भींगा मुख ऐसा खिल रहा था जैसे वर्षा से धुला कमल। ऐसा मालूम होता था, मानों उसने आज अपना बहुत बड़ा कर्त्तव्य पूरा कर दिया है, जिसका खुशी के आगे हजारों आहें न्यौछावर हैं !

यह देख, मैं ठिठक गया। मेरी बोलती बंद हो गई और आँखें भर आईं !


Original Image: Mother with Child
Image Source: WikiArt
Artist: Honore Daumier
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अज्ञात द्वारा भी