उलझी-कड़ियाँ

उलझी-कड़ियाँ

“उसकी चमकती आँखों ने वृद्धा के चेहरे की एक-एक सिकुड़न पोछ डाली, वह उलझ गई विचारों की कड़ियों में–”

अँधेरी रात! चंद्र-तारों से शून्य अंबर! रह-रह कर बिजली काँप उठती है। ऐसे ही में रामू की दादी लाठी टेकती-टेकती अंदर आई। झुर्रीदार चेहरे पर साठ वर्ष के बसंत-पतझर की कहानियाँ थी।

लालटेन के धूमिल प्रकाश में चंद्रा ने देखा–‘दादी’ के चेहरे पर उजड़े सौंदर्य को लाली थी। यौवन बीते युग हो गया था, फिर भी शरीर में शक्ति थी और धुँधली पड़ती आँखों में प्रकाश। जभी उसकी सास से बातें करने चली आईं रात में भी, वैसे तो पड़ोस में ही रहती हैं।

चंद्रा के मन ने अँगड़ाई ली–एक विचित्र जिज्ञासा और प्रश्न ने उसे पीछे ढकेल दिया, बहुत पीछे। उसकी चमकती आँखों ने वृद्धा के चेहरे की एक-एक ‘सिकुड़न’ पोछ डाली, वह उलझ गई विचारों की कड़ियों में–

जरा से जर्जर शरीर, जिसे देखते ही झुरझुरी आती है, कभी यौवन से आबदार होगा। सौंदर्य की मादक गुलाबी से अरुण होगा भाल, उर्मिल लहरियों से चंचल रही होगीं वृद्धा की भावनाएँ। मृदुल कपोलों के संस्पर्श पा सुरभित हो उठती होगी हवा, विमुग्धता होगी, मूक भावनाओं का घुमड़ता तूफान होगा। आज की अधकचरी नारी का संशय नहीं, पूर्ण निर्द्वंद्व जीवन, कोई प्रतिबंध नहीं। आज की किशोरियों के अधकचरे शिक्षा के प्रभाव से बोझिल आँखें नहीं होगीं, जिनके सम्मुख विचार-विमर्श के ढेरों कचरे लगे रहते हैं और थकी-थकी आँखों में समझने की व्यर्थ चेष्टा–कुम्हलाए मुख या मस्तिष्क पर एक विचित्र भार।

नन्हीं अवस्था, सीमित बुद्धि, शिक्षा-अशिक्षा के विचित्र सम्मिलन से कुंठित वातावरण, भिन्न-भिन्न विचार-धाराओं से टकराती भावना। कोई संतुलन नहीं बना पातीं विचारों की वे। शहर की एक विचित्र सभ्यता से बँधी-बँधी आत्मा और दबे-दबे विचार और इन सबसे उन्मुक्त यह एक देहातिन, उस जमाने की, जब आज की-सी बेकारी, लाचारी और गरीबी का रोना नहीं था। फिर ब्याह हुआ होगा, गृहस्थी का भार भी पड़ा होगा, सास के कटु वचनों से हृदय छलनी भी बना होगा, अर्से के बाद आज भी ये दाग मिटे न होंगे, पर आज की युवतियों की तरह गुरु गंभीर समस्या न रही होगी, पैसे-पैसे की कतर-व्योंत के लिए चिकने ललाट पर तह न पड़ते होंगे। गृहस्थी की जटिल समस्याओं में यौवन की लाली तिरोहित न हो जाया करती होगी।

यह शहर की जिंदगी! राम राम! चंद्रा का विचार टूटा और फिर दूसरी तरह का जूड़ा–हूँह, आज का जीवन है? यौवन से भरपूर चेहरे पर बुढ़ापा की चिड़चिड़ाहट, एक घुँटती-सी झुँझलाहट। दो-चार बच्चों की चीं-चपड़, रुपए की तंगी, साधारण जरूरत की चीजों के चढ़े हुए दाम! गृहस्थी को खींचे चली जा रही है–सैंकड़ों मृदुल सपने कब्र में दुबक रहे। रोज दिन की घिस-घिस में कुमारी-जीवन का पढ़ा हुआ साहित्य-कविताएँ, कहानियाँ, मधुर उमँगें, भाव भरा मन धो-माँज कर साफ हो गया। महादेवी, पंत, निराला, प्रेमचंद के अस्तित्व मिट गए दिमाग से, यदि कहीं नजरें अँटकीं भी, तो एक विषाद-पूर्ण मुस्कान अधरों की सिकुड़न में सिमट कर रह जाती। और तब असंतोष मानस के कण-कण को सिंचित कर जाता। फिर स्मृतियों का ढेर, दुखता फफोला, बेचैन बना देने वाला सिरदर्द और रोज दिन उलझती जाने वाली जीवन की कड़ियाँ–संपूर्ण जीवन के प्रति एक भयानक असंतोष, ओह, और जीवन का संध्याकाल, रोग का चिंता से जर्जरित शरीर, चिंतित मन, फिर विचार ने करवट ली–शिक्षा-अशिक्षा से दूर रामू की दादी का जीवन, निश्चिंत निर्विकार कटा जा रहा है। दिन भर मटरगश्ती कभी यहाँ, कभी वहाँ, सैकड़ों कहानियाँ जबानी याद है। कहने-सुनने को जवानी की मीठी-खट्टी अनेक घटनाएँ, मन बहलाने के लिए गाँव भर के गुड्डे-गुड्डियाँ। मजे के दिन, मजे की रात और इसी तरह चलते-फिरते चली जावेगी वह भी दुनिया से! रह जाएँगे चंद दिन तक कुछ संस्मरण और उत्तरोत्तर धुँधले पड़ते-पड़ते एकदम साफ। उँह यह तो ‘सृष्टि का पुराना नियम है’ एक परंपरा है, और चंद्रा आँख मलकर देखती है कि रामू की दादी चली गई है, सास यूँ ही बरामदे में लेटे-लेटे सो गई हैं। करवट बदल कर चंद्रा सोने की चेष्टा में छत की कड़ियाँ गिनती है।


Image: Grandmother
Image Source: WikiArt
Artist: Polychronis Lembesis
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