ओ बालिके कला की!
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- 1 September, 1951
ओ बालिके कला की!
मिट्टी का आँगन, मिट्टी का घर, मिट्टी की चाकी
मिट्टी सनी कर्मरत करतलियाँ मेहदी से आँकी
अभी पूर्ण युवती कहलाने में कुछ दिन हैं बाकी
क्या गढ़ती है मिट्टी से तू ओ बालिके कला की?
किसकी आकृति इन पिंडों से
समुद निकाल रही है
मधुर स्पर्श से जड़ में भी तू
जीवन डाल रही है
रुक्ष अलक पलकों पर
बारंबार सँभाल रही है
श्रमकणमय भौं, झेल
आह क्यों यह जंजाल रही है?
अरी कुमारी हृदय द्रवित चिर
मोह सदृश रहता है अस्थिर
स्नेह सरोवर ढलमल
बहे किधर जाने कल?
बिना शब्द की तान; तरी यह
जिसमें पाल नहीं है।
हृदय-भित्ति पर कल खिंच आए जाने किसकी झाँकी?
जाने किसकी बाँह बने कल जयमाला ग्रीवा की?
किस राजा का कुँवर, अरी यह कौन देश से आया?
चढ़ा अश्व पर तूने जिसका तिरछा मुकुट बनाया
बाने लाल, जड़ाऊ कटि में; असि पग बिना सजाया
क्या यह क्षीण स्मश्रु-मंडित गोरा पति तुझ को भाया?
या वह ऊँचा बाँध मुरेठा
सैनिक जो सित हय पर बैठा!
अथवा जो पलड़ों पर
तौल रहा जौ झुक कर?
किवा इस धीवर पर तूने अपना हृदय लुटाया!
या मन को रुचती उस तरुण खेतिहर की छवि बाँकी
जैसा एक लजाया उस दिन सुन कर बातें माँ की
यह काली गैया बछड़े पर झुकी पूँछ टेढ़ी कर
क्या मातृत्व इसी-सा तुझमें घुलता रहता नि:स्वर?
सिंह बनाते समय न काँपी गोल कलाई थर-थर?
कुमारिके शिव शिवा ढाल तू गई न लज्जा से मर!
श्याम कृष्ण सँग राधा गोरी
कहते तेरे मन की चोरी।
भुज मृणाल उठते यों
ज्यों नृत्य में सृजन हो
यौवन की अभिव्यक्ति गुलाई देती घट के मुख पर
नृत्य देखता ज्यों मैं झुकती तब तू तिरछी बाँकी
चला उँगलियाँ, बाँह शत मुद्रा, चचल भौंह, बुलाकी
अँगड़ाई भरती तू–हँसता वह बैलों का स्वामी
सिर धुन दाढ़ी वाला धुनियाँ भरता छवि की हामी
क्रुद्ध देख शुक नासा, मछली नयनों की अनुगामी
यह युवती ईर्ष्याकुल कुएँ में गिरने से धामी।
हाट स्तब्ध है सारी
रूप-विकल नर नारी
तकते साँसें खींचे
अनुचर नत मुख नीचे
रख पालकी कहार खड़े वे उठा पलक बादामी
चरती गाय घास यह अब तक; नहीं किसी ने हाँकी
मान गया मैं जादू करती चितवन सुंदरता की।
Image: Pottery Shop at Tunis
Image Source: WikiArt
Artist: Willard Metcalf
Image in Public Domain