आत्म-चेतना

आत्म-चेतना

कुछ भीख माँगने के पहले ओ दानी।
रुककर अपनी जेबों को जरा टटोलो।

मणि-रत्न नहीं हीरक-कण बिखरे इनमें
आकाश-कुसुम तुम नहीं छिपा सकते हो,
शब्दों के शर जो प्रत्यंचा पर कसते
उनसे तुम सब कुछ नहीं बना सकते हो,

यह पेंसिल परिचय देती एक निमिष में–
तुम विद्यालय के छात्र बड़े साधक हो,
नित ज्ञानार्जन के हेतु हाथ फैलाते–
वह कौन मूढ़ जो इसमें भी बाधक हो,

हैं इसी जगह कितने दुर्द्धर्ष विधाता–
जितने रामायण, शब्दकोश रट डाले,
जल, थल, नभ पर शासन करते वैज्ञानिक
जिनके प्राणों के भी पड़ते हैं लाले

सदियों की कोटर से सभ्यता निकलकर
विद्या के वृंतों पर जब लगी चटकने,
शंकर को लख सर्वोच्च शिखर पर बैठे
महिषासुर रिपु की जिह्वा लगी ललचने

अणुबम, उद्जन बम, औ जानें कितने बम–
क्षयशील अभागा वर्त्तमान जी लेगा,
पीछे पाताल पतन का ध्वज फहराता
जिसके सम्मुख श्रद्धा से सर न झुकेगा

आगे फिर चरण बढ़ेंगे, मगर संभलकर
संकल्प स्वयं मुट्ठी बाँधे आता है–
विश्वास नहीं ग्रंथों के गिरि में छिपता
वह तो उच्छ्वासों में पाया जाता है,

आदर्श, बर्फ-से जमते, गलते रहते
तुम सबको अपने कंधे पर मत ढो लो।


Image: Mirror Lake
Image Source: WikiArt
Artist: Franklin Carmichael
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