अहिंसात्मक प्रजातंत्र की बुनियाद

अहिंसात्मक प्रजातंत्र की बुनियाद

(विशेष लेख)

अपने देश में सब जगह आज हमें उत्पादन और दरिद्रता एक दूसरे से जुड़े हुए दिखाई देते हैं। कोई कल्पना करेगा कि दौलत के सच्चे उत्पादक दरिद्रता से मुक्त होंगे! किंतु; हमारे देश में, और उसी कारण से अधिकांश कच्चा माल पैदा करने वाले देशों में, किसान लोग निर्धनता के अंतिम छोर पर होते हैं। जब हम धन उत्पादन करने वाली अन्य क्रियाओं को करने वाले लोगों की परस्पर तुलना करते हैं तो किसान हमेशा भूखा, नंगा, और बेघर मिलता है जबकि रूई से कपड़ा या बिना शुद्ध किए लोहे को फौलाद में बदलने वाले लोग, जो केवल पदार्थ-परिवर्तन करने वाले हैं, मुकाबले में अच्छा वेतन पाते हैं और अच्छी तरह से रहते हैं। फिर हम यह भी देखते हैं कि उपभोग और आनंद समाज के उच्चतर वर्गों तक ही सीमित है। जबकि सच्चे उत्पादक उनके लिए तरसते हैं। हम यह भी देखते हैं कि आवश्यक चीजों की कीमतें भोग-विलास के सामान की अपेक्षा कम होती हैं। एक ऐसी दुनिया में जिसका उद्देश्य प्रजातंत्र और न्याय है, इन सब बातों पर तुरंत निगाह जाती है।

अतएव हमें यह पता लगाना है कि इसमें विरोध कहाँ है। ऊपर-ऊपर से देखने पर हमें तुरंत पता चल जाता है कि ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करने वाली योजना में ही कहीं न कहीं कोई दोष है। किसान प्रकृति के सहकार और सहयोग से आवश्यकतम पदार्थों का उत्पादन करता है । ऐसी स्थिति में, वह जो काम करता है उसके द्वारा स्वभाव तथा धर्म पैदा करने वालों में, उसका स्थान सबसे बड़ा होना चाहिए और उसे स्वावलंबी बन जाना चाहिए। लेकिन यह वास्तविक स्थिति से बहुत दूर की बात है।

इस स्थिति का अध्ययन करने के लिए हमें तत्संबंधी बहुत-सी बातों की जाँच करनी पड़ेगी और ऐसी सब परिस्थितियों को देखना होगा जिसके अंतर्गत इस प्रकार की उलझन पैदा हो सकती है। हो सकता है कि विभिन्न प्रकार की अयोग्यताएँ इसका कारण हों। किंतु बारीकी से देखने पर पता चलता है कि किसान लोग स्वयं खूब मेहनती होते हैं और जो कुछ काम वे करते हैं, उसमें काफी तकलीफ उठाते हैं। वे स्वयं चतुर होते हैं। खेती से संबंध रखने वाला परंपरागत ज्ञान उनमें कूट-कूट कर भरा रहता है। ऐसी बहुत कम या बिलकुल ही कोई चीज नहीं है, जो आधुनिक कृत्रिमता उन्हें सिखा सके।

आज हमारे देश में जैसा वातावरण है, उसके अनुसार उनके औजार यद्यपि सादे और अपेक्षाकृत पुराने हैं, फिर भी उनकी जरूरतों के लिए पर्याप्त हैं। उनमें सुधार की बेशक बहुत गुंजाइशें हैं किंतु वह तभी हो सकता है, जबकि साथ ही साथ दूसरी-चीजें भी की जाएँ। उदाहरण स्वरूप जब तक पर्याप्त पानी का प्रबंध न हो, खाद नहीं बढ़ाया जा सकता। पर्याप्त खाद या पानी का आश्वासन मिले बिना कोई गहरी जुताई नहीं करेगा। हमारे देश में इनमें से बहुत सी बातें मानव नियंत्रण के बाहर हैं। इसलिए हम बराबर प्राकृतिक स्थितियों के विरुद्ध खड़े रहते हैं।

युगों के अनुभव से कार्य प्रणालियों का विकास हुआ है। हो सकता है, लगा तो तीर नहीं तो तुक्का के आधार पर ऐसा हुआ हो। कुछ भी हो, आज भी देश के अधिकांश हिस्सों में जो हालत है, वह उसके काफी उपयुक्त मालूम होती है। मजदूरों की संख्या काफी है और जो काम उनसे कराया जाता है, वे उसे अच्छी तरह से जानते हैं। देश के बहुत से हिस्सों में यह काम अस्थाई और मौसमी होते हैं, जिसके कारण किसी एक खास बस्ती पर लगातार बोझ नहीं पड़ता।

किंतु कृषि का जो स्वरूप देखने में आता है, उसमें कुछ असंगत चीजें मिलती हैं। जबकि लोग भूखों मर रहे हैं जमीन का उपयोग उच्च कोटि के तमाखू या व्यापार के निमित्त दूसरी फसलों में हो रहा है। इससे पता चलता है कि किसान को समाज की दृष्टि से कम मूल्य के उत्पादन करने के लिए प्रभावित किया जा रहा है। जिन लोगों के हाथ में आर्थिक नियंत्रण-व्यवस्था है, उनके द्वारा पैसे पर अधिक और गलत जोर दिया जाना भी इसका कारण हो सकता है। हमें इस बात का पता लगाना है कि क्या देहात के लोगों के पास कुछ ऐसा खाली समय भी है जिसका सदुपयोग किया जा सके । और यदि हो सकता है तो कैसे? उनकी दरिद्रता कहाँ तक स्वयं या दूसरों के द्वारा लादी हुई बेकारी का फल है।

आगे की पंक्तियों में हमने जो थोड़ी जाँच-पड़ताल की है, उससे शायद रोग की सूचना मिल जाती है। जब लोगों को कुछ दूसरी चीजों की जरूरत होती है, जोर दूसरी ही चीजों पर दिया जा रहा है। इससे उन बुनियादी जरूरतों की पूर्ति नहीं हो सकती है। बल्कि जनता की सामान्य भलाई और सामाजिक हित के बदले स्वार्थपूर्ण और व्यक्तिगत वृद्धि की भावनाओं को उत्तेजना मिलती है। इससे पता चलेगा कि जिस बुराई की हम कल्पना करते हैं, वह बहुत कुछ मनुष्यकृत कुप्रबंध का परिणाम है और इसलिए वह समाज के पुनर्संगठन और शिक्षण के द्वारा फिर से ठीक भी हो सकती है। अगर हम इस निदान के अनुसार काम करें, तो हमारे लिए यह आवश्यक हो जाएगा कि अनेक प्रयोगों के द्वारा अपने निष्कर्षों को पक्का कर लें, जिससे हमारी कल्पना सत्य सिद्ध हो जाए और बुराई को दूर करने के लिए हमें क्या करना चाहिए, उसका भी पता चल जाए।

अंत में चलकर हम जो प्रयोग शुरू करें, वे नियंत्रित परिस्थिति में प्रयोगशाला तक ही नहीं होने चाहिए। बल्कि ऐसे स्थानों में हो जहाँ देहात के लोग खास हिस्सा ले सकें। कोई भी प्रयोग, जिसमें इस बात की अवहेलना होगी, हमारे वांछित फल को ही खो देगा। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपने प्रयोग कुछ सीमाओं के अंतर्गत देहात के नित्य प्रति के जीवन क्षेत्र में करें। हमारा प्रयोग केवल शिल्प, कला या विज्ञान से संबंध रखने वाला नहीं है बल्कि बुनियादी तौर पर सामाजिक पुनर्संगठन का भी है। इसलिए जो स्वरूप इसका है, उसकी दृष्टि से यह कृषि विभाग के दायरे के बाहर पड़ता है।

बाहरी तर्कों में न बहकर अपने आदर्श को जीवन के प्रति सच्चा बनाने के लिए यह आवश्यक होगा कि हम कृषि के कार्यक्रम को नित्यप्रति के जीवन के अनुरूप बनाएँ। हमारा जोर उन सभी आवश्यकताओं को बताने और उनकी पूर्ति के लिये उपयुक्त होना चाहिए जिनको देहाती जीवन में पूरा करना जरूरी है। ऐसा करने के लिए जुताई-बुआई का कार्यक्रम और फसलों की योजना जीवन की मुख्यतम आवश्यकताओं के सर्वथा अनुरूप होनी चाहिए। ये आवश्यकताएँ हैं–खाना, कपड़ा, घर, प्रकाश और शिक्षण, सफाई और स्वास्थ्य की आधुनिक जरूरतें। इससे पता चलेगा कि फसल की योजना का एक बहुत बड़ा हिस्सा पहली दो बातों का अनुगामी रहे और उसके लिए कच्चा माल उत्पन्न करे।

भोजन स्वयं एक मिश्रित आवश्यकता है। हमको प्रोटीन, चर्बी, चूना और दूसरे खनिज पदार्थों और विटामिनों की जरूरत होती है। ये सब किसी रासायनिक कारखाने में नहीं पैदा होते बल्कि बहुत ज्यादा हमारी नियंत्रित वनस्पतियों से मिलते हैं। जो कुछ कमी रह जाती है, उसकी पूर्ति दूध इत्यादि जानवरों से मिलने वाले पदार्थों से होती है।

हरेक पदार्थ में विभिन्न तत्त्ववाली चीजें अलग-अलग अनुपात से होती हैं। इसका अर्थ हुआ कि हमें उसी अनुपात से खेती के लिए जमीन को बाँटना होगा। उदाहरण के तौर पर एक आदमी को 16 औंस अनाज या चार औंस चर्बी या छ: औंस दूध की जरूरत होती है। लेकिन खनिज पदार्थ और विटामिन केवल नाम मात्र के लिए होते हैं।

इसलिए हमारे उत्पादन में हमारी आवश्यकताओं की उसी स्वाभाविक अनुपात में छाया मिलनी चाहिए । केवल उसी स्थिति में हमारे देहात स्वावलंबी हो सकते हैं।

यदि हम अच्छी जमीन में उन चीजों को पैदा करें, जो उससे घटिया जमीन में पैदा की जा सकती थीं, तो जमीनों के उपयोग की हमारी नीति से हमें भारी नुकसान होगा। हमें ऐसी जमीन में, जहाँ गेहूँ पैदा कर सकते हैं, बाजरा जैसी अपेक्षाकृत घटिया फसल पैदा नहीं करनी चाहिए। इसी तरह जिसमें चावल खूब पैदा हो सकते हैं उसमें जूट पैदा न करें। फसलों की हमारी योजना ऐसी हो कि जिससे मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने वाली सब चीजें पैदा करने में जमीन का बुद्धिपूर्वक उपयोग हो! यदि देहात की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस तरह जमीनों का ठीक ठीक उपयोग किया गया, तो हम कह सकते हैं कि देहात की भौतिक और सामाजिक आवश्यकताएँ ही सबसे पहले पूरी की जाएँगी। भोग-विलास की चीजों तथा बाहरी दिखावे की अन्य चीजों को बाद में लेंगे।

इस तरह का कार्यक्रम यदि देहाती वातावरण में जानबूझकर और वैज्ञानिक ढंग से किया जाए तो हमें ‘राष्ट्रीय फसल योजना’ बनाने के लिए आवश्यक आधार मिल जाएगा। इससे अपने हलकों को न केवल अन्न बल्कि जीवन के दूसरे विभिन्न विभागों में भी हम स्वावलंबी बना सकेंगे। अभी तो हमारा देश लोगों के बुनियादी व्यवसाय के बारे में बिना किसी निश्चित योजना के अँधेरे में भटक रहा है। चूँकि उत्पादन की अच्छी तरह से सोच विचार कर बनाई हुई कोई योजना नहीं है, इसलिए हर कदम पर गड़बड़ी और अव्यवस्था रहती है।

आज जिस तरह की सरकार बनी हुई है, उसके लिए खोज के इस काम को कर सकना संभव नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि ऐसे काम कायदे से तो सरकार के द्वारा ही होने चाहिए। जैसी वस्तुस्थिति है, हम कह सकते हैं, यदि सरकार इस प्रकार के खोजों का काम शुरू कर भी दे, तो उससे पूरा नहीं पड़ेगा। क्योंकि उनके कार्यकर्ताओं को बहुत अधिक वेतन मिलते हैं। इसका मतलब है कि मूल्यांकन की उनकी दृष्टि देहात के लोगों की दृष्टि से मेल नहीं खाएगी, इसलिए आवश्यकताओं की एकरूपता का विश्वास नहीं दिलाया जा सकता।

इसके अतिरिक्त जनता और सरकार में जो संबंध है, वह पारस्परिक विश्वास और भरोसे का नहीं है। इसलिए जिस तरह की बुनियादी खोज का जिक्र किया गया है, वह सरकार के द्वारा चलाई जा सकेगी, यह संभव नहीं है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि कोई ऐसा व्यक्ति, जो जनता के निकट संपर्क में हो, इस काम को करे और उसके नतीजों को जनता के सामने रखे। स्वयं उत्पादन को छोड़कर उन सब साधनों की जाँच करने की भी जरूरत है जिनके द्वारा ये परिवर्तन होते हैं। देखना है कि बीच वाले आदमी के द्वारा कल्पनातीत कर लगाने में संक्रमण में बहुत नुकसान तो नहीं होता। यांत्रिक मूल्यकरण के आधार पर टिके हुए इस आर्थिक ढाँचे की ओर देखते ही यह पता चल जाता है कि बहुत अधिक यांत्रिक और उद्योगसंपन्न क्षेत्रों तक में, जो शोषण होता है उसका आखिरी असर भूमिहीन कृषकों पर ही पड़ता है। पैसे के बल पर उन लोगों में काम करने वाले लोग कृषि से उत्पन्न वस्तुओं पर अपना हक ज्यादा बताते हैं, बजाए उनकी अपनी पैदा की हुई चीजों पर किसानों के हक के। इसका मतलब हुआ कि विनिमय के विभिन्न साधनों का हमें प्रयोग करना होगा। हम चाहें जिसे प्रतीक माने–किसी निश्चित पदार्थ के बदले या चीजों के अदले-बदले में या तो फिर एक सीमा के अंदर पैसे को ही केवल क्रय-विक्रय का साधन मानें। इसमें भी देहात के लोगों का बुद्धिपूर्वक और क्रियाशील सहयोग मिले बिना यह प्रयोग सफल नहीं हो सकता। इस प्रयोग को करते हुए जनता के लिए यह आवश्यक हो जाएगा कि वह अपने ऊपर थोड़ा आत्म नियंत्रण रखे और आदान-प्रदान की समस्या पर जो सुझाव रखे गए हैं उन्हीं के अनुसार चले। जब लोग सच्चे मन से इस प्रकार का प्रयोग करेंगे, तो न केवल प्रयोग का खर्च ही बहुत कम हो जाएगा बल्कि यह एक मूल्यवान सामाजिक क्रिया और सहयोगी प्रयत्न होगा।

इस प्रयोग को चलाने के लिए यह आवश्यक होगा कि कोई ऐसा एक पूरा क्षेत्र चुनें जो आधुनिक आर्थिक जटिलताओं और बड़ी-बड़ी व्यापारिक चालबाजियों और स्वार्थी गुटों के गलत मार्ग-दर्शन से मुक्त हो। अतएव इस काम के लिए ऐसे देहात या देहातों को चुनना जरूरी होगा जो एक दूसरे के पास-पास हैं, और दुनिया के उद्योग-व्यवसाय इत्यादि के द्वारा उत्पन्न शोरगुल से बिलकुल अलग। जनता का सहयोग इसकी पहली शर्त है। सहयोग प्राप्त करने के लिए अपने इस प्रयोग में हमें संभाल, सुधार एवं रचनात्मक कार्यक्रम के ऐसे अंगों की जैसे स्कूल, दवाखाना स्वास्थ्य और सफाई तथा देहात की आम सफाई इत्यादि को भी शामिल कर लेना जरूरी होगा। अगर इन चीजों का विश्वास दिलाया जा सके, तो हमें अपने इन प्रयोगों को मैत्री, सहयोग और सहानुभूति के वातावरण में चलाना कठिन नहीं होना चाहिए। संभव है, एक-दो साल यों ही बीत जाएँ। शुरू का यह समय देहात में अपने को जमाने और वहाँ की परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त करने में लगाना चाहिए। यह समय भी, जिस प्रयोग को लेकर हम बैठे हैं, उस दृष्टि से बहुमूल्य होगा।

इस प्रयोग का खर्च बहुत ज्यादा नहीं होना चाहिए। जो चीजें स्थानीय न हों केवल उन्हीं को बाहर से मँगाना चाहिए। जो लोग इस काम में लगे हैं, उनके काम में से ही उनका खर्च निकलना चाहिए। मिसाल के तौर पर स्वयं हमारा प्रयोग ही हमारी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए होना चाहिए। मान लो; हम में से पाँच या छ: परिवार एक चुने हुए क्षेत्र में बस जाएँ और अपनी जरूरत की अधिक से अधिक चीज स्वयं पैदा कर लें तथा उन्हीं दूसरी चीजों का इस्तेमाल करें, जो हमें हमारी पैदा की हुई चीजों के बदले मिल सकती हैं और अपनी बस्ती की जरूरतों को यथासंभव कम से कम पैसे में पूरा करें। इसलिए हमारा उत्पादन प्रयोगकर्ताओं और अन्य कार्यकर्ताओं की बुनियादी जरूरतों के अनुसार होना चाहिए। जो कुछ अधिक पैदा हो वह उन जरूरतों के लिए बदले में किया जाए जो इस प्रयोग के द्वारा हम उत्पन्न नहीं करते हैं।

हमारा पहला साधन जमीन होगा। इस प्रयोग में जमीन के ऊपर जो कुछ भी पैसा खर्च होगा, वह किसी व्यापार में लगाए हुए धन की तरह होगा। इसी प्रकार बैल और गाय खरीदने में जो पैसा लगेगा वह भी धन का एक अच्छा उपयोग होगा। जब हमारी इच्छा हो, हम बाजार में फिर से इस पूँजी को प्राप्त कर सकते हैं। कुएँ खोदने, बाँध बाँधने और पानी से कटे हुए हिस्सों को फिर से ठीक करने इत्यादि जमीन के सुधार और विकास के कामों में थोड़ी बहुत रकम खर्च हो सकती है। कुछ जानवरों के घर और आदमियों के रहने के झोपड़ों की भी आवश्यकता होगी। किंतु जितना रुपया खर्च किया जाएगा उसके अनुपात में ये सब खर्चे बहुत ही कम हैं। मोटे रूप में हम अपनी जरूरतों को इस प्रकार रख सकते हैं–

(1) करीब दो सौ एकड़ जमीन अच्छी, बुरी और बंजर-25000 रुपए
(2) 15 बैल और पाँच गायें-10000 रुपए
(3) कुएँ और विकास की दूसरी चीजें-7500 रुपए
(4) घानी इत्यादि भोजन संबंधी उद्योग -2500 रुपए
(5) इमारतें, घर, सायवान- 2500 रुपए
(6) पहले साल की चालू पूँजी और फुटकर खर्च- 30000 रुपए
कुल एक लाख 1,00,000

ऊपर के बजट में यह आशा है कि कोई भी ऐसा खर्च न होगा जो वसूल न हो सके। बल्कि थोड़े समय के अंदर ही जैसे-जैसे प्रयोग निश्चित रूप लेता जाएगा इन सब मदों में खर्च किया हुआ रुपया वापस आ जाना चाहिए।

जैसा हमने शुरू में ही कहा है, इस प्रयोग का हमारा उद्देश्य देशभर में और खास तौर से कृषि प्रधान क्षेत्रों में ग्राम पुनर्निर्माण के आत्मपूर्ण कार्यक्रम की बुनियाद खड़ी करनी है। अब तक ऐसा हुआ नहीं है और न तो आधुनिक सरकारों के द्वारा इसका होना ही संभव है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम इस योजना को अपने हाथ में लें और जीवन के इस विशिष्ट विभाग की ओर, जिसकी अब तक बुरी तरह से उपेक्षा होती रही है, लोगों का मार्गदर्शन करें।


Image: The Potato Eaters
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Artist: Vincent Van Gogh
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