अँधेरे में मैं ठोकरें खा रहा हूँ।
- 1 May, 1953
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- 1 May, 1953
अँधेरे में मैं ठोकरें खा रहा हूँ।
अँधेरे में मैं ठोकरें खा रहा हूँ।
खुद अपनी नज़र से गिरा जा रहा हूँ।।
अजब कशमकश है परीशानियों की,
न रो पा रहा हूँ न गा पा रहा हूँ।
वो मरघट से उठता धुआँ दीखता है,
पसीने-पसीने हुआ जा रहा हूँ।
चमन में खुशी के खिले फूल लेकिन
मैं उनको मसलता चला जा रहा हूँ।
यह सच है कि वो हैं बहुत दूर लेकिन
जिधर देखता हूँ उन्हें पा रहा हूँ।
तुम्हारी खनकती हुई चूड़ियों में
मैं उन चूड़ियों की सदा पा रहा हूँ।
मुझे गर जो चाहो शराबी ही कह लो
हैं आँमू मगर मैं पिए जा रहा हूँ।
गुनाहों की अर्थी है काँधों पे मेरे
अमानत है अपनी लिए जा रहा हूँ।
मेरी मंजिलें हम सफ़र हो चली हैं।
खुदा जाने अब मैं कहाँ जा रहा हूँ।
Image: Self portrait. The night wanderer
Image Source: WikiArt
Artist: Edvard Munch
Image in Public Domain