भागो मत, दुनिया को बदलो!

भागो मत, दुनिया को बदलो!

मानव ही तो इस दुनिया का
इतिहास बदलता आया है
मानव ने युग परिवर्तन का
अपना दृढ़ चरण उठाया है
यह क्रांति मानवों के उठ चलने–
की ही एक कहानी है,
मानव अपने ही हाथों से
यह स्वर्ग धरा पर लाया है
मानव होकर बलि पशु न बनो
अपने मानव को मत कुचलो।
भागो मत, दुनिया को बदलो॥
तुम धुआँ उठाते हो मन में
चुपचाप सुलगती आहों का,
तुम बादल गरजाया करते
अपनी उन दबी कराहों का,
रख दी है शोषक ने तुम में
जब इंकिलाब की चिनगारी
रे, फूल उगा दो तुम उसमें
अपनी उन जर्जर बाहों का
भड़का दो जन-जन में ज्वाला
तुम बनकर स्वयं मशाल जलो
भागो मत, दुनिया को बदलो।
तुम बंधे हुए हो क्या न अभी
जड़ता की इन जंजीरों में,
तुम फँसे हुए हो क्या न अभी
इन सँकरी सड़ी लकीरों में
भिक्षुक बन कर तुम माँग रहे
अपना कपड़ा, अपनी रोटी
छीनो अपना अधिकार स्वयं
यों नाम लिखाओ वीरों में
अत्याचारी को ललकारो–
“हम आते हैं, लो तुम सँभलो।”
भागो मत; दुनिया को बदलो॥
जाने किस युग से मानव के–
शोषण की चली कहानी है।
युग पलटे हैं, युग बदले हैं–
जिसके बस वही जवानी है,
ये क्रांति, युगांतर, परिवर्तन
क्या शब्दों में ही बिकते हैं?
तुम पड़े नहीं रह सकते हो
यदि लहू न तुम में पानी है
अपने साँचे में तुम समाज को
ढालो; इसमें तुम न ढलो।
भागो मत, दुनिया को बदलो॥