भिड़ंत

भिड़ंत

मैं मुक्तिबोध नहीं, न ही शैलेश मटियानी हूँ
मैं न ‘वाम’ में, न दक्षिण में
और केंद्र में भी नहीं
विषमताओं, विरोधों, असंगतियों से संघर्ष
जीवन राग बन गया है कविता में
तभी कविता में मेरा चेहरा मुरझाया नहीं
भयावह भी नहीं हुआ
खुरदरे कंटीले यथार्थ में
ताकि असहाय न हो जाए जीवन
साहित्य में पात्रों के अन्याय
और उत्पीड़न को
अपने अंतःकरण में सोख लिया
उसकी रचनात्मक पुनरावृत्ति में
वह सघन, उदार और विस्तृत हो गया।

साहित्य की भी राजनीति है,
यहाँ है बड़े शिरोमणि, मठाधीश और
माफिया के सरगना
हाशिए पर खिसका देते हैं लिखे को
पर मैं जीतने की दौड़ में नहीं
आस्थावान मैं ‘आत्मा के ताप’ से संचालित
रचनाकर्म अपनी निरंतरता में क्रमशः रहे
इसी आंकाक्षा के साथ अग्रसर हूँ
‘रजा का’ केंद्र ‘बिंदु’ है और मेरा भी
रच रही हूँ शब्दों में जीवन की ज्यामिति।
अब नहीं रहा काल या इतिहास में
सब्र पारखी का
समय की आंधी उड़ा ले जाएगी सभी।

‘मुट्ठियों में मठाधीशों’ की
बचा रह जाए शायद।
आलोचकों की चर्चा में बनती है
श्रेष्ठ कविता
कविता का श्रेष्ठ, धुंधलाने को विवश है।
बाजार ही करेगा चुनाव
कवि के सार्वजनिक सरोकारों का
कविता भी तो अब ‘फिनिश्ड प्रोडक्ट’ है
आसानी से पहुंच जाती है
पाठकों के बाजार में
आलोचकों के विमर्श में
सभाओं और संस्थानों में
होने को सम्मानित और पुरस्कृत
अपने समय और स्थितियों से घिरी मैं
जीवन से भिड़ंत की कविता रच रही हूँ!


Original Image: Portrait of the artists foster father professor zoologist Henrik Nicolai Kroyer sitting in a red armchair. He is reading in a book
Image Source: WikiArt
Artist: Peder Severin Kroyer
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork