भिखारी

भिखारी

रहने को क्या?
जहाँ पड़ गये वहीं लगा घर
फटे-पुराने कपड़ों से ही
अंग ढाँककर
सर्दी-गर्मी औ’ वर्षा ऋतु
कितनी ही निकाल दीं अब तक!
बादल गरजे
बिजली कड़की
धारासार हुई वर्षाएँ
पक्षी घुसे नीड़ में जाकर
पशुओं ने भी दीवालों
का लिया सहारा
तब तब इस पशु-से
मानव ने भाग-भागकर
शरण मुसाफिरखाने की ली
टिका धर्मशाले में जाकर
प्लेटफार्म, रेल्वेरोड के
नीचे लगा लिया अपना घर!
चलते-फिरते नर-नारी को
देव-देवियाँ बना-बनाकर
माँगा करता भीख भिखारी!
जिसने कुछ दे दिया
कि वह बन गया युधिष्ठिर,
धर्मराज की पदवी से
हो गया अलंकृत
भूखे, दीन, भिखारी द्वारा
पत्नी और पूत के जुग-जुग
जीने की आशीष मिल गई
रोजगार में बरकत का
विश्वास मिल गया
जिसने दिया नहीं, तो
उसको भी आशीषें मिलीं सैकड़ों
और भिखारी की नजरों में
दोनों ही सम्राट् बने हैं
क्योंकि भिखारी को आशा है
आज नहीं तो कल दे देगा
अरे किसी दिन दूजा भी
समर्थ हो लेगा!
किंतु भिखारी को अपने
समर्थ होने की
दिखती नहीं तनिक-सी
भी कोई गुंजाइश
दिखे कहाँ से इस युग में
जब तो समर्थ बन रहा भिखारी
इसीलिए अपने से बदतर
याचन से लाचार व्यक्ति को
देख-देख कर
रख करके संतोष हृदय में
अपना जीवन धका रहा–
हाँ धका रहा है
वरना मरने में भी कोई
कसर नहीं है!
जीना तो तब कहलाता
जब उसको भी जग में फैले
सुख-साधन मिलते
वह भी किन्हीं व्यक्तियों का
भाई, पति, पिता, भतीजा,
चाचा बनने का अधिकारी होता
किंतु जहाँ रोटी कपड़े का
पता नहीं, तो
कौन बने उस घर की लक्ष्मी
कौन बने उस घर का आश्रित
इसीलिए घरबारों के
झंझट से कोसों दूर भिखारी
झिड़की सहकर
घुड़की सहकर
चलते-फिरते नर-नारी को
देव-देवियाँ बनाकर
‘देव तुम्हारा भला करें’–की टेर लगाता
(काफी उम्र बीत पाई है
शेष बीत यूँ ही जाएगा–यह आशा रख)
माँगा करता भीख भिखारी॥


Image: A beggar boy with basket
Image Source: WikiArt
Artist: Ivan Tvorozhnikov
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