भूल जाने दे

भूल जाने दे

भूल जाने दे मुझे अपनी समूची कल्पना
बादलों का घूँट पी पीकर बनी जो चाँदनी
भूल जाने दे परागी तारिकाओं की विभा
गंध जिनसे आ रही है चिर प्रतीक्षा की घनी
बीतते मधुमास के बहते खिंचे जलस्रोत में
भूल जाने दे सिमटती छाँह सुख की अनमनी।

वंचनाओं के जुलूसों में सदा को खो गई
भूल जाने दे चरण-रेखा विगत के प्यार की
सृष्टि सारी काँपती जिसकी पिघलती नींद में
एक दुबली सी किरण तमके उसी मँझधार की
भूल जाने दे पुकारें गूँजती प्रच्छन्न सब
आ रही सुधि की गुफ़ा से टूटते अभिसार की

भूल जाने दे कभी लहरा उठी जो चाव से
रूप की मधुता पराजित अनुक्षणों से भागकर
गीत जैसी छा गई चारों दिशाओं की महक
अर्थ जैसे खुल गए हर भंगिमा के जागकर
भूल जाने दे रुके तब से पड़े उस अश्रु को
हो गया बेस्वाद जिसका सूखकर आशय प्रखर

लीन हो होकर समय के मूल में जो चुक गई
भूलने दे पुण्य के प्रत्याफलन की दिव्यता
अस्थिपंजर ही बचा है जिस सजीले स्वप्न का
भूल जाने दे रुँधी हर साँस को उसका पता
रात बुझती जा रही है हर दिये के स्नेह की
भूलने दे ज्योति की बीती शिखा की भव्यता।

भूल जाने दे मुझे मैं जी रहा जो वह सभी
अनलिखा ही जो सदा मन पर किसी के रह गया
चिर तृषा को तृप्ति की देकर छली संज्ञा सदा
स्तन्य जो मरु, की असंभव बदलियों से बह गया
भूल जाने दे सभी आकाश की माया-मृषा
पूजने में ही जिसे संभाव्य सारा दह गया।

भूलने दे वह सभी अब तक न जो भूला गया
कंठ का हारिल उसी स्वर को सहेजे प्राण में
मधु-प्रवंचित प्रेरणा की सारिका बंध्या हुई
शेष जीवन कुछ नहीं जैसे किसी उपमान में
भूल जाने दे अस्वीकृत आस्था के शिल्प से
रज गई जो रसवती अंतर्शिखा प्रति गान में।


Image Courtesy: Dr. Anunaya Chaubey
© Anunaya Chaubey