बोलो, क्या गाऊँ गीत आज ? कण-कण में जलती जागी हैं

बोलो, क्या गाऊँ गीत आज ? कण-कण में जलती जागी हैं

बोलो, क्या गाऊँ गीत आज ? कण-कण में जलती जागी हैं
छाती कराहती है सब की, इंसान आज का बागी है।

जलते सपनों के स्वर्णणपंख, जल रही सस्य की काया है
ठंढी-ठंढी जो लगती है, वह गर्म दुखों की छाया है
रेगिस्तानों की बात कहाँ है ? सागर की बुझती प्यास नहीं
मेघों की दानशीलता पर विश्वास नहीं, कुछ आस नहीं
जो कुछ मिल जाता वही सत्य, वादों का कौन भरोसा है
रह-रह कर वाणी जल उठती, किस्मत को इतना कोसा है
यह जल उठने की लाचारी जीवत मुर्दों में जागी है।

हो मस्त मिलें दो हृदय, यहाँ इस जीवन में संयोग कहाँ
पूछो तो वैद्य-हकीमों से कोई भी है नीरोग कहाँ
भूखे तो भूखे हैं, खानेवालों को भी है चैन कहाँ
चिंता की चिता न जलती हो, मिल पाती ऐसी रैन कहाँ
प्यासों के जलते अधर, चाह बढ़ती है पीने वालों की
मोटे बटोरते मांसलता, हड्डी निचोड़ कंकालों की
कंकालों का चूसा शरीर जल उठने का अनुरागी है।

है छिपी आँसुओं में ज्लाला, हैं अश्रु छिपे मुस्कानों में
है कितना हाहाकार छिपा गानेवालों के गानों में
जलती सहिष्णुता की छाती, जलते हैं करुणा के लोचन
कितने पंछी छटपट करते, मिलता न उन्हें उन्मुक्त गगन
ऐसे जग में रह पाएगा किससे किससा संबंध कहाँ
जीवन-वाणी कुंठित होगी, रच पाएगी वह छंद कहाँ
रह-रह गा उठती अग्निगान यह मानवता हतमाती है।

उल्लास जल रहा शैशव का, जलती उमंग नवयौवन की
जलती है शांति बृद्धता की, जलती बसंत-श्री जीवन की
झोपड़ियों से आहें उठता, हिलतीं मललों की दीवार
फिर भी ऊपर उठने को ही आकुल-व्याकुल हैं मीनारें
यह बधिर विश्व सुनता न तनिक भूकंपों की चेतावनियाँ
ज्वालामुखियों के कंठों में जगतीं विस्फोटक रागिनियाँ
धूनी अतृप्त अनुरागों की फूँकता मनुज वैरागी है।

लो गले बचा, फेंकों उतार, कचन के भीतर ज्वाला है
जो चमक रहा माणिक-मणि-सा, वह तो मनियर की माला है
वर्ना मिल-जुलकर अग्निगान ये रोने वाले गाएँगे
हिमशिखरों को देकर निदाघ, जीवन समतल पर लाएँगे
पूजती मनुजता सूर्य-चंद्र, पूजती नहीं काली रातें
क्या कभी मृत्यु से कर सकता जीवन समझौते की बातें
चेतना नहीं धोखा खाती, बेमतलब धींगाधाँगी है।

जागे यौवन की अँगड़ाई सदियों के जर्जर सौधों पर
मरघट की ठंढी राखों में जागे जीवन की आग प्रखर
भयभीत न हो, है व्योम शून्य, तुम उड़ो विहग मानवता के
फड़फड़ा पंख, तोड़ो बंधन चिरप्रतिरोधक परवशता के
साधो समष्टि की वाणी पर अपनी अनमिल साधों के स्वर
बड़वानल देगा, तुम्हें विजय रत्नाकर की मनमानी पर
कवि की वाणी से नई आग ज्वालामुखियों ने माँगी है।


Image: Desert
Image Source: WikiArt
Artist: Konstantin Makovsky
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