चार चाँद

चार चाँद

(तिलक-कामोद : त्रिताल)

चाँद, तुम सब के, किसी का मैं नहीं हूँ!
भाग्य ऐसा, तुम कहीं हो, मैं कहीं हूँ!!
तुम अगम आकाश में, वातास में हो,
भूमि पर मैं, दूर-दूर, प्रवास में हूँ!
तुम मुकुट-तट में जटित, मुझ पर चरण हैं–
राज्य में तुम और मैं वनवास में हूँ!!
हास बरसाते गगन से मगन-मन हो,
कह सकोगे, यह उसाँस उदास क्यों है?
तुम उठाते हो लहर पर लहर प्रतिपल,
हंत! अंतर यह हताश, निराश क्यों है?
अमृतमय कर हैं तुम्हारे स्वेद-शीतल,
विष-बुझे शर हो रहे मेरे लिए क्यों?
चाँद, सबका जी जुड़ाते ही रहे तुम,
निज सुजस वह खो रहे मेरे लिए क्यों?
तुम उतर सकते न धरती पर कभी हो,
मैं न आ सकता कभी आकाश में हूँ!
हम न हो सकते निकटतर हैं परस्पर,
तुम अमर आवास में, मैं नाश में हूँ!!
एक ऐसी हूक उठती हत हृदय में,
कूक कर कोयल बता पाती नहीं जो!
आग खाता है विभोर चकोर भी चुप,
दग्ध उर की आग दिख पाती नहीं जो!!
क्या कहूँ, है कंठ से कढ़ती न वाणी,
हम न प्राणी एक जग के, एक मग के!
अलग झर कर भी कभी मिलते कहीं तो,
पर रजत-निर्झर नहीं हम एक नग के!!
देखने भर को मिली आँखें मुझे हैं,
पर कहाँ पाँखें कि उड़ कर आ मिलूँ मैं!
है न वसुधा पर सुधा की धार, जिसमें
खोल कर अनबोल शत-शत दल, खिलूँ मैं!!
इस तरह घुलने-तड़पने में निरंतर,
आह! किस मुख से कहूँ–सुख ही नहीं है!
छीजते-घटते तुम्हें भी देख कर, या–
शांत अंतर हूँ; मुझे दुख ही नहीं है!!
पर बताऊँ पीर मैं किस भाँति अपनी,
ये फफोले फूटने वाले नहीं हैं!
लाख बिलखाऊँ, खिझाऊँ या दुराऊँ,
प्राण मेरे छूटने वाले नहीं हैं!!
… … ….
तुम रहो आकाश में, वातास में ही,
मैं कभी-न-कभी वहाँ आकर रहूँगा!
प्राण मेरे, प्राण से मिल जाएंगे जब,
तुम सुनोगे क्या?–न मैं कुछ भी कहूँगा!!

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(मांड रागिनी : कहरवा)
पीला चाँद हुआ जाता है, गीला मेरा मुखड़ा,
सुख सुनने को आकुल अग – जग;
किसे सुनाऊँ दुखड़ा?
चाँद स्वयं ही नहीं जानता,–उस पर कितनी ममता!
धरती करती भी तो कैसे आसमान से समता!!
मेरे हँसने-रोने से उसका क्या आता-जाता!
रात-रात भर उसे देखता,–इतना ही तो नाता!!
–फिर भी मेरा हिया फट रहा; होता टुकड़ा-टुकड़ा,
–सूखा जाता आह! चाँद का प्यारा-प्यारा मुखड़ा!
… … ….
संध्या ही पर आँख रुकी थी, ध्यान न रहा उषा का,
चाँद खिलखिलाता जाता, थी खुलती जाती राका;
किंतु बात की बात में गई रात बीत अनजाने,
रहे जहाँ के तहाँ अधबुने दिन के ताने-बाने!
कैसे कहूँ कि वैसे था क्या बना और क्या बिगड़ा!
बादल के टुकड़े-टुकड़े में जड़ा चाँद का मुखड़ा!!
… … ….
वह क्या जाने, टिका गगन-मन किसके अहा, सहारे!
मेरे स्वप्न-सिंधु के बुद्बुद्-से लगते ये तारे!!
उसे ज्ञात मत हो कि उसी से रातें बढ़तीं-घटतीं!
उसकी उजली परिछाईं में काली घड़ियाँ कटतीं!!
कड़ा न कर सकता अब जी को, जीवन से मन उखड़ा!
मैं न चाँद का देख सकूँगा पीला-पीला मुखड़ा!!

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(वागीश्वरी : त्रिताल : मध्यलय)
बादलों से उलझ, बादलों से सुलझ,
ताड़ की आड़ से चाँद क्या झाँकता?
–‘मैं न हूँगा यहाँ,’–कह रहा नभ यही;
‘मैं न हूँगा कहीं?’–भूमि कहती–‘नहीं’!
तुम हवा, मैं दवानल वृथा ढाँकता!
ताड़ की आड़ से चाँद क्या झाँकता?
जीतने का कलक,–वेदना हार की,
क्या कथा स्वप्न से भिन्न संसार की?
दर्द तुम, घाव मैं क्यों वृथा टाँकता!
ताड़ की आड़ से चाँद क्या झाँकता?
रंग आया नहीं, रश्मि-छाया घुली,
रेख खुलती नहीं, तूलिका यों तुली!
शून्य तुम, चित्र मैं क्यों वृथा आँकता!
ताड़ की आड़ा से चाँद क्या झाँकता?

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(विहाग)
कौन तुम सबसे परे?
चाँदनी बरसा रहे हो बाँसुरी में सुर भरे!
सतह की हिलकोर से चंचल नहीं,
यह लहर-उन्माद, रस-संबल नहीं,–
मर्म-मर्मर क्षोभ का प्रतिफल नहीं,–
मानते हो, गान वह जो प्राण को पागल करे!
सुन रहे, क्या बात तारे कर रहे,
सह रहे, शत घात हारे कर रहे,
सब तुम्हें, ललकार, न्यारे कर रहे!
मुसकिराते तुम कि चंदन से द्रवित सौरभ सरे!
होड़ में बौने उठाए हाथ हैं–
–‘पास ही क्या, लो, तुम्हारे साथ हैं!
–उर तुम्हारे औ ‘हमारे साथ हैं!’
राहु कहता है, अमर सुंदर, अरे, हम तो मरे!
किंतु तुम हो, चाँदनी है, मौन है,
शूल में कलियाँ खिलाता कौन है!
पूछता हूँ शिशिर-कण से, कुछ कहे,–
नीलिमा तज कर भला क्यों वह हरितिमा पर झरे!


Image: The Starry Night
Image Source: WikiArt
Artist: Vincent van Gogh
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रूप-विधान तथा रस-व्यंजना में चंडीदास और विद्यापति विभिन्न प्रकृति के कवि हैं। राधा-कृष्ण को विभाव-रूप में प्रतिष्ठित करने और ‘रति’ भाव की अभिव्यंजना मात्र से दोनों सजातीय नहीं सिद्ध हो सकते। दोनों का अंतर कालिदास और जयदेव जैसा भी नहीं, कुछ और ही ढंग का है। यहाँ उसी को समझ लेना है। बहुज्ञता के व्यापारी एक ही साँस में कालिदास और रवींद्रनाथ के नाम लेने के अभ्यासी होते हैं; किंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं। दोनों दो प्रकार के कवि हैं, चित्रमय या नादात्मक अभिव्यक्ति आदि का साम्य फिर भी आकृतिगत (Technical) साम्य ही है,–प्रकृतित: दोनों दो हैं। कालिदास रूप-प्रधान कवि हैं और रवींद्रनाथ भाव-प्रधान। कालिदास रूप-सृष्टि द्वारा अरूप रस-भाव की व्यंजना करते हैं और रवींद्रनाथ रस-भाव के लिए रूप का सहारा लेते हैं। अंतत: कालिदास में चित्र और रवींद्रनाथ में संगीत की प्रधानता है। इन दोनों (चित्र और संगीत) में अधिक व्यंजकता किसमें रहती है, यह एक विवादास्पद अथच अप्रासंगिक विषय है, यहाँ इसे छोड़ ही देना होगा। दोनों के सामंजस्य में महाकवित्व निहित है, यह मान्यता मेरी नहीं। अनुभूति की विवशता है कि सैद्धांतिकता की उपेक्षा न करने पर भी, व्यवहार-दशा में सामंजस्य की लीपापोती में से किसी एक रंग की छनती हुई गहराई को–एक की प्रधानता को मैं अस्वीकृत न करूँ। तो मुझे यहाँ यही कहना है कि चंडीदास भाव-प्रधान कवि हैं और विद्यापति रूप-प्रधान। चंडीदास में संगीत की प्रधानता है और विद्यापति में चित्र की। गीतकविता की परंपरा में दोनों के ही गीत आते हैं; किंतु दोनों की रसानुभूति दो प्रकार की होती है। दोनों को सजातीय सिद्ध करना मैथिली के महाकवि विद्यापति को हिंदी के आदिकवि के रूप में समादृत करने जैसा ही आग्रहपूर्ण है। यदि विद्यापति की मैथिली आधुनिक मैथिली से भिन्न और आदिम हिंदी के सन्निकट है, तो यह बात चंडीदास की बंगला के बारे में भी उतनी ही सत्य है। पंद्रहवीं शताब्दी के मध्यभाग से यूरोप में ‘रिनेसाँ’ (Rebaissance) का–नव-जागरण का आरंभ माना जाता है जबकि यूनानी दार्शनिकों के स्वतंत्र चिंतन से प्रभावित होकर चर्च के अंध धर्म से विज्ञान के वस्तु-सत्य के संधान को अधिक स्पृहणीय समझा जाने लगता है और जिसकी परिणति विज्ञान प्रधान वर्तमान बौद्धिकता कही जा सकती है। ठीक उन्हीं दिनों हमारे देश में संत तथा भक्त कवियों की परंपरा मध्ययुग की संस्कृति को खाद देकर उर्वर बना रही थी कि जिसके स्वर्ण-सस्य के रूप में सूर-तुलसी प्रकट होने वाले थे, पाश्चात्य वस्तु-विज्ञान के आधुनिक विकास सामने रखने पर इसे मानना ही पड़ेगा। मैं यहाँ चर्च-धर्म और पौराणिक-धर्म की तुलनात्मक मीमांसा न करूँगा; किंतु यह कहे बिना भी मेरा वक्तव्य स्पष्ट न होगा कि हमारे देश में बौद्ध धर्म एक वैज्ञानिक दर्शन ही था जिसने मध्ययुग की संस्कृति की नींव हिला दी थी और जिसकी विभिन्न शाखाओं ने किसी न किसी रूप में हमारी मान्यताओं को निश्चित प्रभावित किया था। संक्षेप में, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश के साहित्य पर तो उसकी परछाईं देखी ही जा सकती है, संस्कृत के एक वृहत् भाग को भी उससे असंक्रांत नहीं माना जा सकता। कबीर और तुलसी बौद्धिक कवि ही कहे जाएँगे–एक दिशा में जयदेव और विद्यापति भी। पहले दोनों में सामाजिक बौद्धिकता और दूसरे दोनों में वैयक्तिक बौद्धिकता का विकास हुआ है। उसके विपरीत चंडीदास, सूरदास एवं मीरा का काव्य सहज हार्दिकता की उपज है। जयदेव और विद्यापति का काव्य हार्दिकता या अनुभूति-प्रवणता से कम और बौद्धिकता अथवा कल्पना-प्रवणता से अधिक उत्प्रेरित है, यह तर्क द्वार भी प्रमाणित किया जा सकता है और स्वाध्याय द्वारा अनुभव में भी उतारा जा सकता है। उसे अहार्दिक किंवा अनुभूति-शून्य तो कोई नहीं कह सकता क्योंकि यदि ऐसा होता तो गीतिकाव्य में उसके लिए ठौर ढूँढ़ना ही अशक्य हो जाता; किंतु वह तो गीतिकाव्य का आद्य शृंगार समझा जाता रहा है। अनुश्रुति है कि चंडीदास और विद्यापति का सम्मिलन हुआ था। मुझे तो यह तुलसीदास और मीराबाई के पत्र-व्यवहार के समान ही प्रतीत होता है। किंतु इस जनश्रुति की सदा से चर्चा होती आई है। “विद्यापति ठाकुर बंगदेशीय कवि चंडीदास के समसामयिक थे। एक बार वसंत काल में गंगातीर पर दोनों में साक्षात्कार भी हुआ था। उस भेंट की चार कविताएँ ‘वैष्णव पद कल्पतरु’ के 270वें पृष्ठ में देखी जाती हैं। ग्रियर्सन साहब लिखते हैं कि दो तो विद्यापति की है और दो विद्यापति के अनुगामी किसी बंगाली कवि की बनाई हुई हैं।” चंडीदास नाम के कई एक कवि हुए हैं। बहुत संभव है कि ‘कृष्णकीर्तन’ के निर्माता शृंगारी चंडीदास–जिसकी रचना विद्यापति से अधिक मेल खाती है–के साथ उपर्युक्त घटना घटित हुई हो; किंतु सहज प्रेम-तत्त्व के भावुक (Emotional) महाकवि चंडीदास और विद्या-वैभव-समृद्ध बुद्धिप्रधान (Intellectual) महाकवि विद्यापति का जैसा आंतर वैसा दृश्य है, उनके वहिर्मिलन की यह बात केवल कुतूहल उत्पन्न करके ही रह जाती है। विद्यापति ने उनके दर्शन का आग्रह प्रदर्शित किया हो तो इसका कारण ढूँढ़ना अनावश्यक है। किंतु श्री दीनेंद्रकुमार राय महाशय जिन शब्दों में इस प्रसंग की चर्चा करते हैं वह अवश्य विचारोत्तेजक है। श्री सतीशचंद्र राय एम. ए. महाशय तो बहुत बड़े भ्रम में पड़ गए हैं। उन्होंने ‘कृष्णकीर्तन’ वाले चंडीदास को ही वास्तविक चंडीदास समझ लिया है। तब उन्हें चौंक कर यह निष्कर्ष निकालना पड़ा है कि–“जहाँ विद्यापति ने भावोच्छ्वास और तल्लीनता की पराकाष्ठा दिखलाई है, वहाँ चंडीदास ने चोज-भरी उक्ति-प्रत्युक्तियों (Dialogues) से अपने काव्य में ऐसा एक अनूठापन भर दिया है कि उसकी तुलना ईसा की 16वीं सदी के पहले के बँगला-साहित्य में बहुत कम मिलती है। बंगाली जाति स्वभावत: भावोच्छ्वास-प्रवण होती है, और चंडीदास ने जयदेव के अतुलनीय गीति-काव्य के आधार पर काव्य लिखा है। फिर भी उनके काव्य में किसी कारण से भाव-प्रधान गीति-कविता की अपेक्षा कार्य-प्रधान नाट्यकला का ही अधिक नैपुण्य दीख पड़ता है। यह बंगला साहित्य के इतिहास में एक कठिन समस्या प्रतीत होती है।” इस विषय पर आगे–कृष्णकीर्तन–के प्रकरण में विस्तृत विवेचन किया गया है। अस्तु, श्री दीनेंद्रकुमार राय महाशय का मंतव्य प्रथम प्रस्तुत है :– कवि ने गाया है– “विकसित, पुष्प थाके पल्लवे विलीन, गंध तार लुकावे कोथाय?” कि खिला हुआ फूल तो भला कोंपलों में छुपा है पर उसकी गंध कहाँ छिपेगी? महाकवि चंडीदास की कविता के संबंध में यह बात शत-प्रतिशत सत्य है। उन दिनों आज कल के समान न यान-वाहनों की प्रचुरता थी और न देश-देशांतरों में जाना ही सहज साध्य था। रेल, मोटर, हवाई जहाज, टेलीफोन, रेडियो आदि विश्व के साथ मिलाने-जुलाने वाले किसी भी साधन का अभाव था। इतने पर भी उन्हीं दिनों चंडीदास की मधुर पदावली, देखते ही देखते, बंगदेश के एक छोर से दूसरे छोर तक छा गई थी। कीर्तनियाँ लोगों के ललित कंठ से गाई जा कर गाँव-गाँव, नगर-नगर में फैल कर बंगीय नर-नारियों के हृदय को आनंद-रस से आप्लुत करने लग गई थी। यह बात बिलकुल ही ठीक है कि चंडीदास को बचपन में अच्छी शिक्षा नहीं मिल सकी थी। रामी के साथ परकीया-साधना में प्रवृत्त हो कर उन्होंने सुमधुर कविता रचने की शक्ति अर्जित कर ली थी। किंतु फिर भी यदि संस्कृत भाषा में उनकी पैठ न होती तो बंग-साहित्य की उस शैशवावस्था में (विशेष कर तब, जबकि राष्ट्रीय जीवन में मुगलों की सभ्यता का प्रभाव अक्षुण्ण भाव से विराजमान था) स्वदेश-वासियों को यह ऐसा महार्घ रत्न दान कर सकना उनके लिए असंभव था। उनकी पदावली का पाठ करने से यह सुस्पष्ट रूप में ही प्रतीत हो जाता है कि न केवल संस्कृत भाषा में, प्रत्युत ‘भागवत’ में भी उनकी यथेष्ट पारदर्शिता थी। यदि उनकी कविता घुणाक्षर न्याय से लिख गई होती और ग्राम्य दोष से भरी-पूरी रहती अथवा उसमें दुर्बोध्य प्रादेशिक शब्दों की भरमार होती तो वैसी दशा में, उनके जीवन-काल में ही उनके कवित्त्व की ख्याति समूचे बंगाल में कभी भी नहीं फैल सकती थी, और इतना ही क्यों, वह बंगाल के भी बाहर, सुदूर मिथिला में प्रवेश कर मिथिला के राजकवि विद्यापति को तो किसी की भाँति मुग्ध न कर सकती थी। इस समय को काव्य-जगत् का महागौरवमय युग कह कर निर्दिष्ट किया जा सकता है। बंगाल में चंडीदास और बिहार में विद्यापति इन्हीं दिनों अपनी-अपनी भाषा के लालित्य और पदों के अतुलनीय माधुर्य से विद्वज्जनों के समाज को मुग्ध कर रहे थे। ये दोनों समसामयिक थे, इस विषय में तो संदेह के लिए अवकाश हो ही नहीं सकता। ‘पदकल्पतरु’ और ‘गीतकल्पतरु’ के कतिपय पदों के पढ़ने से यह सहज ही प्रतीत होता है कि दोनों कवि एक-दूसरे की कविताओं पर मुग्ध हो रहे थे। ऐसी दशा में यदि ये परस्पर परिचय के लिए व्याकुल होते थे तो यह स्वाभाविक ही था। चंडीदास विद्यापति की प्रतिभा के चाहे जितने भी बड़े पक्षपाती हों, किंतु वह इस दुराशा को तो क्षण भर के लिए भी अपने मन में स्थान नहीं दे सकते थे कि वह मिथिला पहुँच कर महाराज शिवसिंह के दरबार के राजकवि, सुपंडित, भाग्यवान विद्यापति के दर्शन कर चरितार्थ होंगे। क्योंकि दोनों की सामाजिक स्थिति में आकाश-पाताल का-सा अंतर था। एक यदि सर्व-जन-सम्मानित, सुविद्वान, धनवान, महाराज का प्रेमपात्र सुहृद् था, तो दूसरा गँगई-गाँव का रहनेवाला दरिद्र, पूजा-पाठ से जीविकोपार्जन करने वाला पुरोहित अथवा पौरोहित्य से भी प्रताड़ित, समाज में अपमानित, उपेक्षित, एक अछूत धोबिन का प्रेमी कह कर लांछित और सर्वसाधारण के व्यंग्यबाणों से जर्जरित था। किंतु इतने पर भी वे दोनों एक ही पथ के पथिक थे। राधा-कृष्ण का अपार्थिव प्रेम ही दोनों के काव्य का उपादान था। विद्यापति ने चंडीदास की कविताओं के भीतर से ही उनके हृदय के ऐश्वर्य का परिचय प्राप्त किया था। उनका समग्र दु:ख-दैन्य अथवा कलंक इस ऐश्वर्य की छाया छूने में भी समर्थ न था। इसी बीच विद्यापति के चंडीदास से मिलने का सुयोग जुट गया। गोस्वामी तुलसीदास जी के– ‘जाकर जा पर सत्य सनेहू, सो तोहि मिलय न कछु संदेहू।’ वचन के अनुसार विधाता ने ही उनकी इच्छा पूरी की। महाराज शिवसिंह को किसी राज-काज के सिलसिले में बंगाल जाना पड़ा। असल में उन्हें वर्द्धमान जिले के मंगलकोट नामक स्थान में पहुँचना था। विद्यापति भी चंडीदास से साक्षात्कार की कामना सँजोए किसी राजाधिराज के साथ सुदूर तीर्थाटन के लिए निकले हुए एक अकिंचन के समान (राजेंद्र संगमे दीन यथा याय दूर तीर्थपर्यटने) महाराज शिवसिंह के साथ सुदूर वर्द्धमान के मंगलकोट नामक ग्राम में उपस्थित हुए। किंतु वस्तुत: उनका उद्देश्य था चंडीदास का दर्शन; चंडीदास के साथ कविता की आलोचना। उन्होंने अवकाश के क्षण मंगलकोट में न बिताकर चंडीदास से मिलने की व्याकुलता व्यक्त की। और इतना ही नहीं, रूपनारायण नामक एक व्यक्ति के साथ चंडीदास के दर्शनार्थ चल भी दिए। ‘संगहि रूपनारायण केवल विद्यापति चलि गेल!’ इधर चंडीदास को मंगलकोट में विद्यापति के आने की बात कैसे मालूम हुई, यह कह सकना कठिन है। बहुत संभव है, कानोंकान यह संवाद उन तक पहुँच गया हो! कुछ भी हो, विद्यापति के दर्शनों की आशा से चंडीदास भी मंगलकोट की ओर चल पड़े। तभी वसंत की सुनहली दोपहरी में, गंगा के किनारे बरगद की ठंडी छाँह में, बंगाल और मिथिला के महाकवियों का चिरकांक्षित मिलन संभव हुआ। यों तो उनके उस मिलन के आनंद का अनुभव ही किया जा सकता है फिर भी प्राचीन काल की एक सुमधुर कविता के द्वारा उनके मिलन की घटना ने साहित्य-जगत् में भी स्थायित्व लाभ लिया है :– ‘समय बसंत, याम दिन माझ हि वटतले, सुरधुनी - तीरे, चंडीदास कविरंजन मिलल, पुलके कलेवर गीर! दुहुँ जन धैरय - धरइ ना पार! संगहि पनारायण केवल दुहुँक अवश प्रतिकार!’4 इसके बाद, जैसे दो विद्वान इकट्ठे होने पर शास्त्रीय आलोचना करने लग जाते हैं वैसे ही दोनों कवियों ने छुट कर रसालोचना की। यहाँ यह कहना तो अनावश्यक होगा ही कि इनकी आलोचना तैलाधार भांड या भांडाधार तैल के तुल्य शुष्क तर्कमात्र न थी। चंडीदास ने ‘रसतत्त्व’ के संबंध में प्रश्न कर कहा :– ‘कह विद्यापति इह रस कारण, लछिमा पद करि ध्यान’ विद्यापति ने भी ललितमधुर कविता में चंडीदास को ‘रसतत्त्व’ की व्याख्या कर सुना दिया, और अंत में– ‘भणे विद्यापति चंडीदास तथि रूपनारायण-संगे, दुहुँ आलिंगन करल तखन भासल प्रेम-तरंगे!’ इस मिलन-प्रसंग में बंगाल और बिहार के दो आदिकवियों की सहृदयता का एक उज्ज्वल दृष्टांत कविता में देखा जा सकता है। उन दोनों में से किसी ने भी इस मिलन के उपलक्ष्य में ‘रूपनारायण’ नामक एक नगण्य व्यक्ति के अस्तित्त्व की उपेक्षा नहीं की है। कहते हैं, विद्यापित नान्नुर जाकर चंडीदास के साथ कुछ दिन रहे थे। विद्यापति के साथ चंडीदास के इस मिलन को अविश्वास्य घटना कह कर कुछेक समीक्षक साफ उड़ा देना चाहते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कोई चोखी-अनोखी नई बात कहकर अथवा बहुत दिनों से चले आते हुए किसी सत्य को मिथ्या सिद्ध कर पाठकों को विस्मित-चकित कर देने का लोभ नहीं संवरण कर पाते। वे भाँति-भाँति के तर्कों की झोली झाड़ कर किसी न किसी नए तथ्य का आविष्कार करने बैठ जाते हैं। उन्हीं में से कुछ लोग चंडीदास और विद्यापति के मिलन की कहानी को जिस युक्ति से मिथ्या सिद्ध करने के लिए बद्ध-परिकर दिखाई देते हैं वह नितांत नि:सार है। उनका कहना है कि गान्नुर गंगातट से आठ कोस पच्छिम है और नान्नुर के पच्छिम की ओर से ही विद्यापति के आने की बात कही जाती है। चंडीदास यदि नान्नुर से पूर्व दिशा की ओर न गए होते तो गंगा के तीर पर बरगद की छाँह में विद्यापति से उनका मिलना संभव न होता! इससे यह प्रमाणित होता है कि दोनों कवियों के मिलन की बात काल्पनिक है–केवल कवि-प्रसिद्धि! परंतु इसके उत्तर में यह सत्य-तर्क दिया जा सकता है कि नदिया जिले के पश्चिम भाग में भागीरथी हैं–और भागीरथी का पश्चिम तट वर्द्धमान जिले में है, सबसे मज़ेदार बात यह है कि जिस नवद्वीप से नदिया जिले का नाम है, वह नवद्वीप ही भागीरथी के पश्चिम तट पर अवस्थित है। वस्तुत: इसका एकमात्र कारण है, भागीरथी की धारा की गति का बदल जाना। पाँच सौ वर्ष पहले जिस ओर से नदी बहती थी उस ओर से उसकी धारा का मुड़ जाना कोई असंभव बात तो है नहीं। इसके अतिरिक्त विद्यापति सुदूर मिथिला से बंगाल बैलगाड़ी या पालकी से, स्थलमार्ग से ही आए हों, इस प्रकार के अनुमान करने का कोई कारण नहीं दीख पड़ता। प्रत्युत विद्यापति ने जलमार्ग से यात्रा की होगी, इसी की अधिक संभावना है। कारण, उन दिनों वही पथ अधिक सरल-सुगम था। फलत: दोनों कवियों का गंगातट पर मिलना कोई अशक्य व्यापार नहीं हो सकता। हमारा विश्वास है कि सुप्रतिष्ठित सत्य को अनुमान के जादू द्वारा उड़ा देने की चेष्टा से वाग्विभूति का प्रदर्शन करने पर प्राय: यही होता है कि साधारण जनों का दीर्घकाल से चला आता हुआ रहा-सहा विश्वास भी नष्ट हो जाता है और नहीं तो उससे कुछ नया प्राप्त हो सकने की संभावना तो रहती नहीं।” राय महाशय की इस समीक्षा में कुछ विचित्रता है। चंडीदास के प्रति भक्ति का अतिरेक ही कदाचित् इस विचित्रता का बीज हो! राजकवि विद्यापति से साधक कवि चंडीदास इसलिए मिथिला में नहीं मिल सकते थे कि दोनों की सामाजिक स्थिति में आकाश-पाताल का-सा अंतर था, यह युक्ति तो कुछ जँचती नहीं। कारण, यदि विद्यापति दरबारी कवि मात्र थे, तो चंडीदास को उनसे मिलने का आग्रह क्यों था? और यदि वह ‘दरबार’ से ऊँचे उठे हुए थे–तब तो चंडीदास के लिए यह सामाजिक वैषम्य अधिक आपत्तिजनक नहीं हो सकता था। सच तो यह कि चंडीदास की महत्ता से स्वयं विद्यापति प्रभावित थे और, यदि दोनों का सम्मिलन सचमुच ही संघटित हुआ, तो वह निश्चित रूप से उसी का परिणाम भी था। चंडीदास को विद्यापति के भौतिक ऐश्वर्य ने अभिभूत नहीं किया था।5 दूसरी बात, राय महाशय परंपरा के पूर्ण पक्षपाती हैं इसलिए इस मिलन-कल्पना को तर्कों से प्रमाणित करने में नहीं चूकते, तर्क अपने तईं चाहे जैसे हों। गंगा का किनारा कट सकता है, धार पलट सकती है,–भौगोलिक व्यवस्था में इतना बड़ा अंतर भी उपस्थित हो सकता है कि भवभूति की भाषा का सहारा लेकर कहना पड़े– पुरा यत्र स्रोत: पुलिनमधुना तत्र सरितां विपर्यासं यातो घन-विरल भाव: क्षितिरुहाम् बहोर्दृष्टं कालादपरमिव मन्ये वनमिदं निवेश: शैलानां तदिदमति बुद्धिं द्रढ़यति। किंतु चंडीदास-विद्यापति की काव्य-प्रकृति के आंतरिक वैसा दृश्य की ओर जैसा संकेत पहले किया जा चुका है और जो उनके सामाजिक वैषम्य के कारण भी न केवल अभिव्यक्ति-पक्ष में किंतु अनुभूति-पक्ष में भी सुस्पष्ट प्रतीत होता है,–उसमें अंततोगत्वा तात्त्विक विभेद नहीं, एकता ही है,–‘चंडीदास-विद्यापति-सम्मिलन’ का यही अर्थ मैं समझता हूँ। ऐतिहासिक समकालिकता की सिद्धि मात्र नहीं।