दूर बहन का गाँव

दूर बहन का गाँव

गाँवों के जन
बड़े प्रेम से
झूम-झूमकर कभी-कभी
यों गा उठते हैं…
‘दूर बहन का गाँव!’
एक दिवस
दो पंथी
पथ में एक कुएँ पर
मिले अचानक।
दोनों प्यासे थे। दोनों ने
पानी पिया खूब छक-छककर।
और आम के घने पेड़ के तले
तनिक विश्राम किया; फिर
चलने लगे एक ही पथ पर।
अब तक उनकी आपस में कुछ
बातें नहीं हुई थीं।
लेकिन,
कुछ दूरी तक साथ-साथ चलने पर
एक पथिक ने पूछा–‘भाई! कौन गाँव के तुम वासी हो,
और कहाँ इस ओर जा रहे?’
दिया दूसरे ने तब उत्तर,
‘भाई!
मैं हूँ यहीं पास के एक गाँव का
दीन निवासी; रामखिलावन हरनारायन।
मैं जा रहा, वहाँ पूर्व की ओर…दूर
अपनी प्यारी बहन लिवाने को।’
पहला बोला–“अरे! चला हूँ मैं भी
तो उस ओर
और मुझे भी बहन लिवाने ही जाना है।
चलो, ठीक है। साथ रहेगा।
बातें होंगी!”
फिर अपना भी परिचय उसने दिया–
‘लोग मुझे गनपत कहते हैं,
मैं भी हूँ बस यहीं पास के एक गाँव का।’
फिर कुछ दूर चले चुपचाप।
किंतु कभी क्या रह पाया है
जीवन-पथ पर मानव मौन?
अनायास ही बह जाते हैं
अनगिनती भावों के स्रोत!
और भाव की एक लहर में एक पथिक ने
खींचा मदिर पहाड़ी स्वर में
लंबा मधुर अलाप…
“हो…ओ…ओ…
अभी गाँव है दूर बहन का।
बढ़े चलों उस ओर, बटोही!
दूर बहन का गाँव।
दूर खड़े उस नीले-नीले
टीले के उस पार कहीं पर,
गीले-गीले खेत धान के
जहाँ बिछे श्यामल अवनी पर;
बर्फीली जड़ चट्टानें भी
जहाँ पिघल चल चपल बनी हैं,
नील गगन की शुष्क निगाहें
जहाँ पहुँचकर सजल बनी हैं;
वहीं बहन का मनहर गाँव,
बढ़े चलो उस ओर, बटोही!
दूर बहन का गाँव।”
तभी दूसरे पर भी छाया
एक नशा-सा; और अलापी
उसने भी फिर एक मधुर-सी तान;
राह सुनसान गूँजने लगी…
‘रोज सबेरे की आँखों में
जहाँ लालिमा घिर आती है।
जहाँ निगाहें मेरी आहें
भर भरकर फिर फिर आती हैं।’
पहले ने स्वर बढ़ा दिया फिर आगे…
‘जहाँ किरण अंबर की आ कर
छूती चरण धरा के पहले;
जहाँ पंछियो के कलरव में
पहले पहले जन मन बहले।
वहीं बहन का सुंदर गाँव,
बढ़े चलो उस ओर, बटोही!
दूर बहन का गाँव।’
तदनंतर…
कुछ डग बढ़े शांत हो दोनों
झूम-झूमकर
और दृष्टि से नीले नभ को चूम-चूमकर;
फिर सहसा ही रामखिलावन का स्वर फूटा
‘कभी-कभी अम्मा कह उठतीं
आँखों से आँसू छलकाकर,’
‘नहीं याद क्या तुझे बहन की?
मेरा मन भर आता सुनकर;
प्राण छलकते, आँखें बहतीं,
अधर अचानक कहते–दीदी!
नहीं-नहीं माँ! भूल न सकता
वो बचपन की बातें बीती!
मैं जाऊँगा देश बहन के।
बढ़े चलो उस ओर, बटोही!
दूर बहन का गाँव।’
गनपत भी कैसे चुप रहता?
उसका भी स्वर
ऊँचे ऊँचे, हरे हरे
पेड़ों के नन्हें, कोमल, अनगिनती
पत्तों में भरने लगा कंप…
‘पहले मेरी भी माँ कहतीं…
‘बेटी रहे दूर ही अच्छी।’
पर अब कहतीं–‘जाने कैसी
होगी मेरी भोली बच्ची।
जीवन कठिन सास के घर का
नींद नहीं सुख की आती है।
जा जा अबकी साल चला जा,
याद बहुत उसकी आती है।’
मैं कहता, अच्छा मैं जाता।
बढ़े चलो उस ओर, बटोही!
दूर बहन का गाँव।
अबकी बारी रामखिलावन
की थी। उसने भी फिर गाया…
“चलती बेर गाँठ में मेरी
बाँध दिये माँ ने संदेसे;
कहना तुझ बिन यहीं हमारे
दिन कटते थे जैसे-तैसे।
तुझ बिन घर की कबरी गैया
छोड़ चुकी थी दाना-पानी,
बिल्ली ने मिमियाना छोड़ा,
छोड़ी टीपू ने शैतानी।
किंतु तनिक मत तू घबराना!…
बढ़े चलो उस ओर, बटोही!
दूर बहन का गाँव।”
एक जगह फिर ऐसी आई
दोनों के पथ अलग अलग
हो गए;
और विदा ली एक दूसरे से फिर उनने
दोनों अपने-अपने पथ पर बढ़े…
गाते-गाते अपनी धुन में!
दोनों के स्वर वातायन में
ऊँचे उठकर
गूँज-गूँजकर
खोते गए।
पर गाते ही गए पथिक दोनों ही–
“दूर बहन का गाँव।”
कुछ ही दिन के बाद
उसी राह से लौट रहे थे
दोनों पंथी।
एक पथिक के साथ बहन थी उसकी
औ वह झूम रहा था
हाँक-हाँक कर अपने छकड़े
के मतवाले बैल।
किंतु दूसरा पंथी
भारी मन से क़दम बढ़ाता
धीरे-धीरे लौट रहा था–
थका-थका-सा।
उसके संग नहीं थी उसकी बहन;
नयन में अश्रु, प्राण में सिसक,
पाँव में कंप, अधर पर
केवल यह टूटा-सा स्वर था–
“दूर बहन का गाँव रे!
दूर बहन का गाँव!”
और यही बन गई कहानी आज।
आज भी उनके स्वर
गाँवों में
गाँवों के जन झूम-झूमकर
बड़े प्रेम से, हाव-भाव से
दुहराते हैं–
“दूर बहन का गाँव!
बटोही! दूर बहन का गाँव!”


Image: ছড়ার ছবি – রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর (page 59 crop)
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Nandalal Bose
Image in Public Domain

भृंग तुपकरी द्वारा भी