घिरे आज नव घन
- 1 October, 1951
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- 1 October, 1951
घिरे आज नव घन
घिरे आज नव घन
प्रकृति के खुले ये घने केश-बंधन!
मसृण-स्निग्ध-श्यामल,
भरे मोह केंचुल,
रही झूम खोले दिशा व्यालिनी फण!
उठे चीख चातक,
स्मृति दंश घातक,
कहाँ वह तृषा-विष-शमन, स्नेह के कण?
प्रखर ग्रीष्म आतप
हुए रुक्ष पादप
लिए शुष्क मर्मर, कँपे प्राण के स्वन!
उड़े पंक्ति में बक,
खिले व्योम-कुरबक,
गगन नेत्र के नेहमय अश्रु अंजन!
तमावृत दिशाएँ,
झुके मेह आए,
धरा व्योम के ये अवश बाहु-बंधन!
अमृत बूँद झर-झर
जगत स्नायु में भर,
रहीं हेर जन-पद-बधू स्निग्ध-लोचन!
Image: Morning on the Seine in the Rain
Image Source: WikiArt
Artist: Claude Monet
Image in Public Domain