ग्रीन-रूम (एक)

ग्रीन-रूम (एक)

मुझे मिल गया है टिकट
अब प्रवेशद्वार पर कोई रोकेगा नहीं
सरसराते हुए चली जाऊँगी
शुरू होने वाला है
रंगशाला में नाटक।
बाहर चिपक गए हैं बड़े-बड़े पोस्टर
जिसपर बनाए गए हैं
तरह-तरह के चित्र।

दृश्य है द्रौपदी का चीर-हरण।
चित्र में, विह्वल है द्रौपदी
नयनों से बह रहे हैं नीर
हाथों से अपनी लज्जा बचाते
सम्भाल रही है अपना आँचल।
मुँह लटकाए बैठे हैं पांडव
दिखाया गया है साड़ी खिंचता
दुःशासन
और चीर बढ़ाते भगवान श्रीकृष्ण।

असंख्य मुख हैं
पोस्टरों की चारों ओर
भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य
और भी संख्या की गिनती
के लिए कुछ-कुछ चेहरे
जिसे पहचानने में दिक्कत हो रही है।
बगल के एक पोस्टर पर
बिछा था द्युत-क्रीड़ा
उसपर, बने थे मोहरे।
नाटक का नाम
बोल्ड अक्षरों में लिखा था-जुआ।

सोचती हूँ हमारा जीवन भी तो है
एक जुआ, जुआ की चटाई पर बने
चैकोर खानों की तरह
कितने वर्गों में बँटी होती है
यह जिंदगी।
कितनी घाटियों से गुजरना पड़ता है इसे
हम खड़े होते हैं इस पर
मुहरों की तरह प्रत्येक वर्ग में
खेलना है एक खेल
निभानी है कुछ जिम्मेदारी
हर व्यक्ति को हर कदम पर
अलग-अलग।
जुआ खेलना आसान नहीं
यह घुड़सवारी का सरपट दौड़ नहीं
तीर-अंदाजी का अभ्यास नहीं।
जुआ, एक पेंचीदा खेल है
मुहरें हैं इनके कर्णधार
लगाना होता है दाँव
घुमाना पड़ता है पेंच
कभी ‘लग्गी’ लगा
गिराना पड़ता है दूसरों को,
तो कभी, धोबिया पाट दे
पटकना पड़ता है चारो खाने चित्त।
हाथ -पैर की जरूरत नहीं
दिमाग का खेल है
जो जितना लगाएगा अक्ल
उतना ही होगा सफल।

हमारे समाज में भी
चलाकी और मक्कारी से
जीत जाता है दुःशासन
बलिष्ठकाय कानून भीम की तरह
हाथ मलता रह जाता है
और पिस्तौल की नोंक पर
सिकिया पहलवान शकुनी की तरह
पासा उछाल जीत जाता है
बाजी हो जाता है चीर-हरण
हर रोज अखबार के मुख्य पृष्ठ पर।


Original Image: Disrobing of Draupadi
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Nainsukh
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork