गुँचे-सा जब भी रह गया खुद में बिखर के मैं

गुँचे-सा जब भी रह गया खुद में बिखर के मैं

गुँचे-सा जब भी रह गया खुद में बिखर के मैं
इक अश्क बन के आँख से आया उतर के मैं

हैरत से कैसे घूरने लगता है ये मुझे
देखूँ कभी जो आइना थोड़ा सँवर के मैं

जर्फ ओ शऊर आज भी हमराह हैं मेरे
पहुँचा हूँ इस मकाम पे खुद से गुजर के मैं

बरसों तपाया इल्म की भट्टी में तब कहीं
मुश्किल से आ सका हूँ यूँ थोड़ा निखर के मैं

ज्यों ज्यों सुखन की तह में उतरता चला गया
त्यों त्यों जियादा तेजी से आया उभर के मैं।


Image: John Biglin in a Single Scull
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Thomas Eakins
Image in Public Domain

अजय अज्ञात द्वारा भी