क्यों न काँपें फूस की ये बस्तियाँ

क्यों न काँपें फूस की ये बस्तियाँ

क्यों न काँपें फूस की ये बस्तियाँ
तेज बारिश और तड़पती बिजलियाँ

दोस्त है कोई न कोई है रकीब
आ रही हैं शाम से क्यों हिचकियाँ

उसको सपने में भी आती हैं नजर
कुर्सियाँ बस कुर्सियाँ बस कुर्सियाँ

भर गई सब्जों से घर की हर दरार
अबके यूँ सावन में बरसीं बदलियाँ

होगी चिन्गारी सियासत की जरूर
बेवजह जलती नहीं हैं बस्तियाँ

आज क्यों सहमी हुई-सी है नदी
क्यों किनारे पर ही हैं सब कश्तियाँ

सर्दियों में याद आती हैं बहुत
नर्म हाथों की तुम्हारे गर्मियाँ

चाहता है दिल की फिर उनको पढ़ूँ
बंद है संदूक में जो चिट्ठियाँ।


Image : Landscape on Volga. Boats by the Riverbank.
Image Source : WikiArt
Artist : Isaac Levitan
Image in Public Domain