रूह के अंदर बैठने वाले जिस्म

रूह के अंदर बैठने वाले जिस्म

रूह के अंदर बैठने वाले जिस्म के बाहर बैठे हैं
मुझमें जाने कितने प्यासे पी के समंदर बैठे हैं

देख लिया न मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों गिरिजाओं में
अब देखो मयखानों में भी कितने कलंदर बैठे हैं

कितना अजब तसव्वुफ है ये कितनी बड़ी खुमारी है
रूह की बातें सोचने वाले जिस्म के अंदर बैठे हैं

हाथ जोड़ कर दुनिया भर के दुख तो बाहर खड़े हुए
बूत के हर एहसास तो फिर भी बनकर पत्थर बैठे हैं

पेड़ों ने आपस में मिलकर जाने क्या तय कर डाला
जहाँ बाज रहते थे उन पर वहाँ कबूतर बैठे हैं

हर ख्वाहिश की जंग में अपने पाँव कटे ये गम तो है
लेकिन अच्छा हुआ कि लेकर लंबी चादर बैठे हैं

खामोशी ने आकर जादू मंतर दिखा दिया वरना
हैं सवाल जो जहन में उनके लब पर उत्तर बैठे हैं।


Image :  A peasant covering up her mouth by coat
Image Source : WikiArt
Artist :  Filipp Malyavin
Image in Public Domain