इस बस्ती में रहते हैं कुछ गूँगे

इस बस्ती में रहते हैं कुछ गूँगे

इस बस्ती में रहते हैं कुछ गूँगे कुछ बहरे
अपनी-अपनी कब्रों में जीते हैं मरे-मरे

बिना धमाका किए न कोई कुछ सुनता है
इस रस्ते से जाना होंठों पर अंगार धरें

पर्वत राह नहीं देता, चढ़ना ही पड़ता है
वक्त गँवाए क्यों‌ हम, क्यों पत्थर से बात करें

नदी बहुत गहरी, उसमें घड़ियालों का डेरा
तलवारों की नाव बनाएँ, तब भीतर उतरें

राहों पर बारूद बिछी है फिर भी चलना है
उम्मीदों के पहले तो बस खतरे ही खतरे।


सुभाष राय द्वारा भी