किसी बात का ग़म इधर भी नहीं है

किसी बात का ग़म इधर भी नहीं है

किसी बात का ग़म इधर भी नहीं है
मेरा अब कोई हमसफ़र भी नहीं है

दुआएँ समेटे बढ़ा जा रहा हूँ,
कोई और अब रहगुज़र भी नहीं है

सहें क्या सितम हैं ज़माने में हमने,
मेरे यार को तो ख़बर भी नहीं है

जो घर को बसाने की देते नसीहत
उन्हीं का यहाँ एक घर भी नहीं है

झुका दे कहाँ ‘बंधु’ सर आख़िर अपना
हो जिसमें अक़ीदत वो दर भी नहीं है।


अविनाश बंधु द्वारा भी