पत्ते-पत्ते, डाली-डाली कहते एक

पत्ते-पत्ते, डाली-डाली कहते एक

पत्ते-पत्ते, डाली-डाली कहते एक कहानी
बोल रहीं गुमसुम शाखाएँ आँधी आने वाली

अंधों की बारात चली है रस्ता कौन दिखाए
पीने वाले जमा हो गए लेकिन ख़ाली प्याली

वादों का थैला लेकर कल आया इक व्यापारी
लूट ले गया देखो बागों की सारी हरियाली

रातें उजली चादर पहने रोज़ लुभाती मन को
धीरज कैसे रक्खें सुबहें आतीं काली-काली

वक्त नहीं है इंतज़ार का, हमें बनानी होगी
इक सुरंग इस धरती से सूरज तक जाने वाली।


सुभाष राय द्वारा भी