धीरे-धीरे

धीरे-धीरे

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे
खुले मेरे ख्वाबों के पर धीरे-धीरे

किसी को गिराया न खुद को उछाला
कटा जिंदगी का सफर धीरे-धीरे

जहाँ आप पहुँचे छलाँगे लगा कर
वहाँ मैं भी पहुँचा, मगर धीरे-धीरे

पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी
उठाता गया यों ही सर धीरे-धीरे

गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया
गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे

न हँस कर न रो कर किसी में उड़ेला
पीया खुद ही अपना जहर धीरे-धीरे

जमीं खेत की साथ लेकर चला था
उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे

मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया, तुम्हारी
मुहब्बत मिली है मगर धीरे-धीरे।


Image Courtesy : LOKATMA Folk Art Boutique
©Lokatma

रामदरश मिश्र द्वारा भी