जिसको चलना भी दूभर लगा

जिसको चलना भी दूभर लगा

जिसको चलना भी दूभर लगा
सबसे अच्छा उसे, ‘घर’ लगा

माँ के चेहरे पे सुख था अलग
पुत्र जब नौकरी पर लगा

कितनी सिहरन हुई झील को
देह पर जब भी कंकर लगा

फिर तो हर स्वप्न मुश्किल ही है
रोज…सपना बदल कर लगा

भीड़ में उनको राहत मिली
जिनके पीछे कोई डर लगा

रोज़ दफ्तर से आने के बाद
उनके घर में ही दफ्तर लगा

एक कलयुग के इनसान को,
अपना कलयुग ही सुंदर-लगा।


Image : Morning, Interior
Image Source : WikiArt
Artist : Maximilien Luce
Image in Public Domain