गिलहरी

गिलहरी

रहती है मेरे घर के पीछे
बाग के एक दरख्त पर
उछलती, कूदती, फरफराती
एक डाल से दूसरी पर
बंदरिया सी छलाँग लगाती
ये मेरे बाग की गिलहरी है।

इस देश के गोरे नागरिकों की
करती है नकल, अपनी
फरदार पूँछ को हिलाती है
अलग अलग दिशा में नचाती है
चेहरे पर रोब लाए
करती है प्रदर्शन, अपनी
अमीरी का, अपनी सुंदरता का
हाँ, ये मेरे बाग की गिलहरी है।

अपने आगे के पैरों को देती है
हाथों सी शक्ल और वैसा ही काम
कुतरती है सेब, मेरे ही बाग के
ऐंठती हुई करती है अठखेलियाँ
पेड़ों से टकराती बयार से
उफ! ये मेरे बाग की गिलहरी।

जब जी चाहे पहुँच जाती है
मेरे जीने पर, मेरे स्टोर में
कुतर डालती है, दिखाई देता है जो भी
मैं, बस सुनता हूँ आवाजें
घबराता हूँ, माँगता हूँ दुआ
पुस्तकों की खैरियत की।
मुझे भक्त बना देती है
ये जो है मेरे बाग की गिलहरी।

एक दिन सपने में मेरे आ खड़ी होती है
चेहरे पर दंभ, रूप से सराबोर
गदराया बदन, दबी मुस्कुराहट
आज आने वाली है उससे मिलने
उसकी दूर की एक रिश्तेदार!
उस शहर से जहाँ बीता था मेरा बचपन
हाँ, वो भी तो एक गिलहरी ही है।

गरीबी की बोझ से दबी
सिमटी, सकुचाई, शरमाई
अपने सलोने रंग से संतुष्ट
संग लाई है अपने अमरूद
बस वही ला सकती थी
महक मेरे शहर की मिट्टी की
पाता हूँ वही महक कभी अमरूद में
तो कभी उसमें जो
मेरे शहर की गिलहरी है।

मेरे बाग की गिलहरी को नहीं भाती
गँवई महक अमरूद की, या फिर
मेरे शहर की मिट्टी की वो गंध
जो मेरे शहर की गिलहरी ले आई है
अपने साथ, अपने शरीर
अपनी साँसों में।

वह रखती है अपनी मेहमान के सामने
केक, चीज और ड्राई फ्रुट
कितनी भी खा ले, पूरी है छूट
कितने बड़े दिल की मालकिन है
वो जो मेरे बाग की गिलहरी है।

मेरे शहर की गिलहरी सीधी है सादी सी
निकट है प्रकृति के, सरल और मासूम
बस खाती है पेड़ों के फल, कैसे पचाए
केक, चीज और ड्राई-फ्रुट
देखती है, मुस्कुराती है, पूछती है हाल
अपनी मेजबान के, उसके परिवार के।
परिवार यहाँ नहीं होता, सब रहते हैं
अलग अलग, यह मस्त देश है
ऊँचे कुल की दिखती है वो
जो मेरे बाग की गिलहरी है।

‘सुनो, तुम यह सब नहीं खाती हो
इसीलिए सेहत नहीं बना पाती हो
मुझे देखो, कितना खूबसूरत देश है मेरा
कैसा है मेरा स्वरूप, रंग रूप।…देखो
मेरे बाग में कितने सुंदर पेड़ हैं
रंग बिरंगी पत्तियों वाले पौधे!
यहाँ का हरा रंग कितना गहरा है!
यहीं आ बसो, यहाँ है कितना सुख
कितनी शान, मौज है मस्ती है।’
आत्ममुग्ध हो जाती है, जो
मेरे बाग की गिलहरी है।

चुप नहीं हो पाती है, जारी है
बोलना उसका और इठलाना।
मेरे देश में इनसान से अधिक
होती है परवाह हमारी
यही है वो देश जहाँ कभी
अस्त नहीं होता था सूर्य
जब कभी उदय होता है पूर्व में
तब भी चमकता है मेरा यह
पश्चिम का देश।
और चमकने
लगता है चेहरा,
मेरे बाग की गिलहरी का।

शांत किंतु दृढ़ आवाज में
देती है जवाब, गिलहरी मेरे शहर की।
माना कि तुम हो बहुत सुंदर और सुगठित
धन और धान्य से भरपूर है शहर तुम्हारा
तुम्हारे देश में हैं सुख,
सुविधाएँ और आराम
देखो मेरी ओर, देखो मेरे इस
साधारण बदन को,
यह तीन उँगलियाँ जिसकी हैं
उसका नाम है राम!
इस तरह देती है सुख मुझे असीम,
वो जो मेरे शहर की गिलहरी है।


Image : Squirrel
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Artist : Hans Hoffmann
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