आधी हकीकत

आधी हकीकत

मीर जैन उन लोगों में से था जो पक्की नौकरियों में ऊबते हैं और कच्ची नौकरियों से आकृष्ट होते हैं। भारत सरकार के भाषा विभाग की पक्की नौकरी से इस्तीफा देकर वह पत्रकारिता में चला आया मुम्बई। अखबारी जिंदगी की दैनंदिन उत्तेजना, भाग-दौड़, नई योजनाओं पर काम करना उसे लुभाने लगा। वह हिंदी का जानकार था पर उर्दू पर जान लुटाता गालिब का दीवाना और हिंदी-उर्दू शब्दकोश उसके सिरहाने रखे रहते। मीर की कहन का मुरीद था। याददाश्त तेज थी। जितना उसे निराला और नागार्जुन याद थे उतने ही मीर और गालिब। 

समीर जैन सुंदर, आकर्षक और स्मार्ट था। इन सब चीज़ों के साथ उसका शैक्षिक रिकॉर्ड भी अच्छा था। नई नौकरी में उसने कार्यभार ले लिया कि तभी दिक्कत दरपेश आई, ‘आ तो गए मुम्बई, रहोगे कहाँ, खाओगे क्या।’ यह ऐसी दिक्कत थी जिसका निवारण पहले ही दिन होना जरूरी था। 

उसका एक पुराना दोस्त कुलवंत काम आया और उसे वरली सी फेस के एक मकान में ले गया यह कह कर कि ‘मकान मालिक जोगेन्दर उसका दोस्त है, थोड़ा सनकी है पर सज्जन है। वह जो भी कहे तुम उसकी हर बात मान लेना तो यहाँ ठिकाना मिल जाएगा। वैसे वह किसी को पेइंग गेस्ट रखने को तैयार नहीं होता पर मेरा पक्का दोस्त है, बात टालेगा नहीं।’

‘अब तक उसने पेइंग गेस्ट क्यों नहीं रखा?’ समीर ने पूछा।

‘ऐसा है, उसका घर शमशान के सामने है इसलिए लोग वहाँ रहने में थोड़ा बिदकते हैं।’

इस तरह समीर की जोगेन्दर से पहचान हुई। तय हुआ कि समीर उसके यहाँ पाँच सौ रुपये महीने पर रहेगा। इस किराये में सुबह का नाश्ता और रात का खाना शामिल था।

समीर को बहुत वाजिब लगा यह प्रस्ताव। वरली से सीधी बस मिलती थी वी.टी के लिए जहाँ समीर का ऑफिस था। 

जोगेन्दर पंजाबी लहज़े में हिंदी बोलता और फिल्मी अंदाज़ में बार-बार सिर झटकता। उर्दू और इंगलिश पर उसका अच्छा अधिकार था। पंजाब यूनिवर्सिटी से बी.ए. की पढ़ाई बीच में छोड़कर वह मुम्बई आ गया था अपनी विज्ञापन एजेंसी खोलने। दो एक अच्छी विज्ञापन फिल्में बना कर उसका सिक्का चल निकला था। उसने अपने केश कटवा लिए और एक ब्रांड न्यू बंदा बन गया था। मुम्बइया रंग-ढंग में ढलते उसे देर न लगी मगर फिर भी कभी-कभी उसकी इच्छा होती कि किसी से ठेठ पंजाबी में बात करे।

समीर जैन पंजाबी न होते हुए भी फर्राटे से पंजाबी बोल लेता था। दिल्ली में उसके सभी दोस्त पंजाब के थे। 

हफ्ते भर में समीर जोगेन्दर की कई आदतों से वाकिफ़ हो गया। उसे वे सब शौक थे जो फिल्मी दुनिया में कामयाब लोगों के हुआ करते हैं। वह रोज दो से तीन पैग विस्की लेता और सिगरेट दिन भर में बीस का पैकेट। उसकी एक गर्लफ्रेंड थी नंदा जो कई बार उसी के साथ ऑफिस से घर आ जाती। वह उसके ऑफिस में काम करती और घर आकर पूरे अधिकार के साथ रसोई का मुआयना करती। वह रसोइये पॉल के साथ मिलकर जोगेन्दर की पसंद की चीज़ें तैयार करती। समीर शाकाहारी था। पॉल अलग कुकर में समीर के लिए दाल या सब्जी चढ़ाता। वह कहती ‘मैन तुम फिश के बगैर कैसे खाना खाता, मुजे तो समझ ही नहीं आता।’ उसका अशुद्ध उच्चारण समीर के कान पर आघात करता और वह कहता, ‘भगवान के लिए हिंदी को बिगाड़ो मत।’

जोगेन्दर उसका समर्थन करता, ‘नंदा को आज तक समझ नहीं आया कि हिंदी मराठी में बेसिक फ़र्क़ क्या है। बाय गॉड समीर तुम उसे हिंदी बोलना सिखाओ, भले ही मुझे सौ रुपये कम दे देना। हिंदी के बगैर तो इश्तेहार भी नहीं बनते।’

‘बिना भाषा के तुम्हारी दोस्ती कैसे हुई?’ समीर ने पूछा।

‘क्या बताऊँ यार। ऑफिस में काम सँभालती थी। एक दिन शाम को ज्यादा बारिश हो गई। झमाझम लोकल गाड़ियों की पटरियाँ पानी में डूब गईं। उस शाम लोकल नहीं चलीं। नंदा घर नहीं जा सकी। इसको अकेली  ऑफिस में छोड़कर मैं कैसे जाता घर! मैं भी रुक गया। बस उसी रात अपने आग और पानी मिल गए।’

‘क्या इससे शादी करोगे?’ समीर को जिज्ञासा हुई।

‘देखो, बहुत डिटेल नहीं चलेगा। बस उसको हिंदी सिखा दो तो मेहरबानी।’

इस तरह वरली वाले घर में शाम को हिंदी कक्षा की शुरुआत हो गई। शाम सात बजे नंदा कलम और कॉपी लेकर मेज़ पर आ जाती। समीर उसे समझाता, ‘पहले उच्चारण सीखो। मराठी में कहते हैं ‘मुजे़’। हिंदी में कहेंगे ‘मुझे’। सीधा उच्चारण है। हिंदी बड़ी वैज्ञानिक भाषा है। जो बोलते हैं, वही लिखते हैं। पाँच बार बोलो और लिख कर दिखाओ। नंदा लिख लेती लेकिन बोलते समय गड़बड़ा जाती। कह देती ‘मुजे।’ जब समीर टोकता, वह कहती ‘क्या फरक पड़ता है बाबा। शब्द को कैसे भी बोलो, समझ आता न।’ 

जोगेन्दर कभी-कभी बीच में टोकता, ‘भाषा की खूबसूरती उसके बोले जाने में होती है।’

नंदा की दिलचस्पी भाषा में कम, भोजन की तैयारी में ज्यादा रहती। कभी वह कॉफी बनाने उठ जाती, कभी बाथरूम जा कर अपना मेकअप ताजा करती। समीर फँसा बैठा रहता। उसका समय खराब होता। कभी यह भी लगता कि कहाँ फँस गया आकर।

नंदा ने अपना मन लगाने के लिए अपनी छोटी बहन रजनी प्रधान को भी बुलाना शुरू कर दिया। 

पंद्रह दिन में समीर का मन इस काम से ऊब गया। 

भाषा सीखने की भी एक उम्र होती है। उच्चारण सीखने का भी एक वक्त। हम नहीं जान सकते कब हमारा जन्म स्थान हमारी ज़ुबान पर कुंडली मार कर बैठा रहता है एक-एक हरकत में।

तभी एक और नाटक हो गया। 

जोगेन्दर ने अपनी नई विज्ञापन फिल्म के लिए कई मॉडलों का ऑडिशन किया था, जिनमें नीना चासकर चुनी गई थी। उसे एक ठंडे पेय का इश्तेहार बनाने के लिए नया चेहरा चाहिए था जो अब तक किसी अन्य इश्तेहार में इस्तेमाल नहीं हुआ हो। नीना पूना के मराठी रंगमंच की कलाकार थी। इश्तेहार हिंदी में बनना था। यहाँ भी हिंदी उच्चारण की समस्या थी। जोगेन्दर ने उसे ट्रेनिंग देकर ब्रेक देने का फैसला किया। खर्च बचाने के लिहाज़ से उसे बाहरी कमरे में ठहरा दिया। उसके साथ उसका पिता भी आया था। बैठक में एक दीवान और एक सोफ़ा सेट था। नीना का पिता अनंत चासकर वहीं बैठा सारा दिन अखबार पढ़ता रहता। अखबार ‘सकाल’ सुबह आता लेकिन अनंत चासकर उसे शाम तक पढ़ता रहता। नीना जरूर घर में घूमती नजर आती। 

जोगेन्दर ने समीर से कहा, ‘उन दोनों को मारो गोली, तुम पहले नीना को हिंदी बोलना सिखाओ। बाइ गॉड लड़की में प्रतिभा कूट-कूटकर भरी हुई है। इश्तेहारी फिल्म में मुश्किल से चार डायलॉग बोलने होते हैं। इतनी भर हिंदी सिखा दो यार।’ नीना को एहसास हो गया कि बिना हिंदी सीखे उसको काम नहीं मिलेगा। उसने जान लड़ा कर हिंदी बोलनी शुरू की। उसका जोश देखने लायक था। वह कुक के पास जाकर कहती, ‘काका जी मुजे कॉफी बना कर दे दीजे।’ 

समीर टोकता, ‘फिर से बोलो। ठीक से बोलो।’

नीना धीरे-धीरे कहती, ‘काका जी मेरे को कॉफी बना दो।’

समीर फिर टोकता, ‘मुझे शब्द कहॉं गया। दीजिए शब्द खा गई?’

नीना तीसरी बार की कोशिश में थोड़ी कामयाब होती। बहुत देर तक मुँह ही मुँह में बोलती रहती, ‘मुझे, मुझे मुझे।’

उससे होड़ लेने में अब नंदा और रजनी भी हिंदी उच्चारण पर ध्यान देने लगीं। 

जोगेन्दर खुश था। उसकी विज्ञापन एजेंसी को कैम्पाकोला का एकाउंट मिल गया। अब वह कॉपी राइटर के साथ स्क्रिप्ट पर काम कर रहा था। 

शाम को हिंदी कक्षाएँ और भी लंबी होने लगी थी। इन तीन लड़कियों को देख-सुन कर समीर को बड़ी शिद्दत से अपनी दिल्ली वाली दोस्त दीप्ति याद आती जिसे वह पहले से दिल दिए हुए था। दीप्ति दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस कॉलेज में पढ़ाती थी और तकरीबन रोज वे लोग कनॉट प्लेस में घूमते रहते। दो-चार दिन में ही समीर ने देख लिया कि इस लड़की के साथ जिंदगी का नक्शा अच्छा बनेगा। उसकी शक्ल भले ही काम चलाऊ थी, उसकी अक्ल, सलीका और सुरुचि अन्य लड़कियों से एकदम अलग थी। शाम के झुकपुके में वे एक दूसरे से सट कर घूमते तो दिल्ली की ठंड में उनके बदन ठिठुरने की बजाय सुलगने लगते। महीना बीतते न बीतते दोनों वचनबद्ध हो गए। इस नजदीकी के बीच यकायक समीर का दिल्ली से मुम्बई कूच कर जाना एकबारगी सब को हक्का-बक्का छोड़ गया। पहचान और वचन दोनों नए थे, लेकिन समीर के अंदर औचक फैसले लेने की बेहिसाब कूवत थी। छह महीने वह क्रांतिवीर साप्तहिक में गुजार चुका था। इतवार की सुबह वह अखबार में किराये के मकानों के इश्तेहार पढ़ता। तभी पता चला कि मुम्बई में जो भी मकान मिलता, बस ग्यारह महीने के लिए होता। उसके बाद फिर नया अनुबंध और नई कानूनी कार्यवाही।

दिल्ली हो या मुम्बई प्रेमीजनों का मिलन दुश्वार था। जब वह दिल्ली जाता, हर जगह उनके पहचान लिए जाने का संकट बना रहता। दोस्त लोग दोनों को पहचानते और सड़क चलते मुबारकबाद देकर छेड़ते। 

हताश हो कर समीर कहता, ‘दिल्ली इतना बड़ा शहर है लेकिन आशिकी का दुश्मन। यहाँ कहीं मिल पाना दुश्वार है। दीप्ति तुम एक बार मुम्बई आओ तो देखना। वहाँ कोई किसी को न देखता न टोकता। सब अपने में मस्त।’

अख़बारनबीसी उसे तेजी से नए लोगों से मिलवा रही थी और शहर उस पर गहरे इंप्रेशन छोड़ रहा था। लेकिन जोगेन्दर और नंदा का व्यवहार उसे हैरान कर देता।

हफ्ते में कई दिन नंदा अपने घर नहीं जाती। वह नि:संकोच वरली वाले घर में ठहर जाती। हिंदी कक्षा के बाद उसकी छोटी बहन कुछ खा-पी कर घर चली जाती और नंदा आराम से कपड़े बदल कर नाइटी पहन लेती। समीर ने देखा वह जोगेन्दर को अकेले में जुग बुलाती।

जोगेन्दर के इस घर में एक बहुत बड़ा हॉल था जिसकी दोनों खिड़कियाँ समुद्र की तरफ खुलतीं। हॉल से सटा बाथरूम और रसोईघर था। जोगेन्दर ने हॉल के बीचोंबीच हैंडलूम कपड़े का मोटा सा परदा लगाया हुआ था जिसमें कपड़े का ही दरवाजा बना था। जोगेन्दर इसे 2 बीएचके फ्लैट कहता। इसका एक हिस्सा उसने समीर को दे दिया था।

नंदा और जोगेन्दर सोने के लिए दूसरे हिस्से में चले जाते। परदे के पार अजीब तरह की आवाज़ों और हरकतों का आभास समीर को असहज करता। वह दूनी शिद्दत से घर बदलने के बारे में सोचने लगता। अपने दिल, दिमाग और देह के साथ संघर्ष करते किसी वक्त उसे नींद आ जाती। 

दिन में समीर को नंदा की तरफ देखने में बड़ी उलझन होती। वह उसके चेहरे पर नजर नहीं डालता मानो वहाँ रात की इबारत लिखी हुई हो। नंदा को कोई अपराध-बोध न होता। वह जानबूझ कर छेड़ती, ‘समीर मुजे हिंदी कब पढ़ाओगे।’

समीर का मन होता कि कहे, ‘कभी नहीं।’

वह कोई जवाब नहीं देता। 

वह अखबारों में इश्तेहार देखता, साथियों से अपनी जरूरत बताता पर सबसे यही पता चलता कि मुम्बई में भाड़े के मकान दिन पर दिन महँगे होते जा रहे हैं। उतनी रफ्तार से तनखा नहीं बढ़ती। 

समीर और दीप्ति की शादी में यही सबसे बड़ा अड़ंगा था। दीप्ति ने अपने वेतन से काफ़ी बचत की थी लेकिन वह मुम्बई में मकान ले सकने के लिहाज़ से बहुत अपर्याप्त थी। वह उकता कर पूछती, ‘ठीक से बताते क्यों नहीं, मकान के लिए कितना जमा करना पड़ेगा।’

समीर मायूम जवाब देता, ‘हर बार एजेंट दस-बीस हज़ार बढ़ा कर बताता है।’

इन दिनों उन दोनों में जब भी बात होती, प्यार-मुहब्बत की कम और मकान की ज्यादा होती। वह छुट्टी लेकर दिल्ली जाए या दीप्ति छुट्टी पर मुम्बई आए, उनके सामने ठहरने की दिक्कत होती। होटल के कमरे में मिलने से दीप्ति को घबराहट होती। समीर के सुझाव पर कि वह वरली वाले फ्लैट पर चले, दीप्ति बिदक जाती। वह कहती, ‘ऐसे अजीब माहौल में समीर को भी नहीं रहना चाहिए।’

‘मैं दफ्तर की सीढ़ियों पर तो नहीं रह सकता, तुम्हें क्या पता, मुम्बई में मकान मिलना नामुमकिन है।’

‘ठीक है इस बार मैं मुम्बई आकर हफ्ते भर में मकान ढूँढ़ कर दिखाती हूँ।’

बात की पक्की दीप्ति अपनी माँ की परिचित किसी शुभा आंटी के यहाँ अपने टिकने का इंतजाम कर मुम्बई आ गई। शुभा आंटी बिन बुलाया मेहमान देख कर खुश तो नहीं हुईं पर अपने छोटे से घर में टिका लिया उसे कि हफ्ते भर की बात है। 

समीर का कार्य दिवस बहुत लंबा और विविध रहता। शाम को हिंदी पढ़ाने का काम जोर पकड़े रहता। वह रात आठ बजे के पहले खाली नहीं हो पाता।

दीप्ति को जानने की जिज्ञासा होती कि समीर आखिर किन कामों में फँसा रहता है कि उसके साथ घर ढूँढ़ने में जरा भी दिलचस्पी नहीं ले रहा।

एक शाम वह वरली वाले पते पर पहुँच गई कि अगर समीर दफ्तर से आ गया हो तो दोनों साथ-साथ महिम के दो मकान देख लें जो एजेंट ने सुझाए थे। 

दीप्ति ने ऊपर आकर देखा घर में बाकायदा हिंदी शिक्षण की कक्षा चल रही है। नंदा, रजनी और नीना तीनों किताब लेकर बैठी हुई हैं। नीना की वेशभूषा और हाव-भाव में अभी से फिल्मी पुट था जो दीप्ति को नागवार गुजरा। नंदा और रजनी मामूली नाक नक्श की थीं मगर बहुत बोल्ड और बड़बोली लग रही थीं। जिस समय दीप्ति कमरे में दाखिल हुई रजनी समीर को चुनौती देती हुई कह रही थी, ‘पहले तुम हमें बोल कर दिखाओ ‘चाँदी चा चमचा चाँगला चकचकात आहे।’ याद रखो मराठी में च में स की ध्वनि मिली रहती है।’

दीप्ति लड़कियों की इस वाचलता से बौखला गई। उसका भी अध्यापक जाग गया। उसने भड़क कर कहा, ‘यहाँ हिंदी पढ़ाई जा रही है या मराठी? एक आदमी दफ्तर में दस घंटे काम करके लौटा है, आपको कोई ख़याल नहीं।’

लड़कियाँ एक नजर दीप्ति पर और दूसरी नजर समीर पर डाल इधर-उधर चली गईं। समीर ने कहा, ‘क्यों इतनी भड़की हुई हो दीप्ति। बैठो, मैं चाय के लिए बोल कर आता हूँ।’

‘नहीं तुम अभी साथ चलो। एजेंट ने साढ़े आठ का समय दिया है। बाद में वह चला जाएगा।’ समीर ने अपने को अजीब स्थिति में पाया। जोगेन्दर ध्यान से दीप्ति को देख रहा था।

उसने हाथ आगे बढ़ा कर कहा, ‘मैं समीर का होस्ट जोगेन्दर कोहली’

दीप्ति ने हाथ नहीं मिलाया। हाथ जोड़ दिए। समीर ने कहा, ‘मैं थोड़ी देर में आता हूँ, जुग।’ वह दीप्ति को लेकर समुद्र तट पर आ गया। उसका मूड बिगड़ा हुआ था। दीप्ति अभी भी बिफरी हुई थी।

समुद्र उतरा हुआ था।

समीर गीली रेत में जूते गड़ा कर चल रहा था। दीप्ति ने नाराज़ी से कहा, ‘क्यों जूते गंदे कर रहे हो।’

समीर ने कहा, ‘और करूँगा। तुम्हें इतने फूहड़ तरीके से उन लड़कियों को डाँटना नहीं चाहिए था। मेरी पोजीशन का कोई ख़याल नहीं तुम्हें। मैं उसी मकान में रहता हूँ।’

‘रहने का किराया तुम अलग से देते हो। यह मुफ्त की ट्यूशन किसलिए।’ दीप्ति की आवाज में चिढ़ थी।

‘मेरा क्या जाता है अगर मैं थोड़ी सी हिंदी पढ़ा दूँ।’

‘तीनों लड़कियाँ फ्रॉड हैं। देखा नहीं उनमें से एक भी हिंदी नहीं बोल रही थी। सब इंगलिश में रौब झाड़ रही थीं।’

‘धीरे-धीरे सीखेंगी। तीनों मराठी भाषी हैं।’

‘वे हिंदी सीखें न सीखें तुम जरूर मराठी सीख जाओगे।’ दीप्ति ने व्यंग्य किया। 

‘इन्हें हिंदी क्या करनी है सीख कर।’

‘आजकल हिंदी के बगैर फिल्मी दुनिया में कैरियर नहीं बनता। मेरी जरा सी मेहनत से उनका कैरियर बन जाए तो बुराई क्या है?’

‘उनके कैरियर के चक्कर में तुम अपना कैरियर जरूर चौपट कर लोगे। पहले अपनी जिंदगी की मुश्किलें दूर करो। मैं सोचती थी तुम ऑफिस से आकर मकान ढूँढ़ने में लग जाते होंगे।’

‘मकान सड़क पर पड़े नहीं मिलते। जो ठिकाना मिला हुआ है वह भी हाथ से निकल जाएगा अगर तुम इतनी बेरूखी से इन लोगों से बोलोगी।’

‘यह कहो, तुम्हें यहाँ रहना अच्छा लगने लगा है। तभी तुम मकान नहीं ढूँढ़ रहे।’

‘देखों दीप्ति मुझे परेशान मत करो। मैं पहले ही बहुत अपसेट हूँ।’

‘वहाँ तो तुम हँस-हँस कर पढ़ा रहे थे। सारी परेशानी मुझसे ही है’, दीप्ति ने एक और तीर छोड़ा।

‘अब इस विषय पर मुझसे कोई बात न करना।’ समीर ने बिगड़ कर कहा।

वे लोग वापस सड़क पर आ गए।

टैक्सी की तलाश में दायें-बायें देखते हुए दीप्ति ने कहा, ‘कल मैं वापस चली जाऊँगी, तुम चैन से रहो।’

‘तो क्या करूँ। तुम्हारी खातिर बेघर, बेरोजगार हो जाऊँ?’

‘यहाँ रोजगार मिला तो हुआ है।’ दीप्ति ने टैक्सी रोकते हुए कहा।

‘तुम इतनी क्रूर कैसे हो गई दीप्ति। हम हज़ार मील दूर से बात करते हुए ज्यादा पास रहते हैं। जब से यहॉं मिले हैं केवल लड़ रहे हैं।’

टैक्सी वाला जाने को बेसब्र हो रहा था। समीर साथ बैठ गया।

‘मैं अपने आप चली जाऊँगी।’ दीप्ति ने मना किया।

‘तुम क्या पागल हो या जानबूझकर ऐसा कर रही हो।’ समीर जबरन टैक्सी में बैठ गया।

‘माहिम, शीतला देवी टेम्पिल रोड’, दीप्ति ने कहा।

‘देखो दीप्ति हम पढ़े-लिखे समझदार दोस्त हैं। छोटी-छोटी बातों पर लड़ना अच्छी बात नहीं। विश्वास के बल पर ही हम एक दूसरे का इंतजार कर रहे हैं। मेरी उन लड़कियों में कोई दिलचस्पी नहीं है। वे सब जोगेन्दर की चमचियाँ हैं। वह शो बिजनेस का आदमी है। उसके लिए ऐसी दोस्तियाँ आम बात है। बताओ कहाँ मकान देखने चलना है।’ 

दीप्ति ने एक साथ रूठते और खुश होते हुए समीर को देखा, उसे मुक्का दिखाया ‘अब तक तो एजेंट इंतजार करके चला गया होगा। अब कल आना पड़ेगा।’

‘ठीक है कल मैं दफ्तर से सीधा यहीं आ जाऊँगा।’

इस वक्त तक समुद्र का शोर सुनाई देने लगा। सागर में ज्वार आ गया। वे मुख्य सड़क पर पैराडाइज सिनेमा के सामने उतर गए। वह किसी भी फिल्म का समय नहीं था फिर भी समीर दो टिकट खरीदकर सिनेमा हॉल में घुस गया। उसने पॉप कार्न का बड़ा सा ठोंगा खरीदा और अँधेरे में दीप्ति का हाथ पकड़ कर रास्ता सुझाने लगा।

कुछ देर पहले झगड़ रहे उन दीवानों के पास अभी न लड़ने के लिए कोई ठिकाना था न प्रेम करने के लिए कोई सायबान। सिनेमा हॉल ही एकमात्र जगह थी जहाँ थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कोई-न-कोई जोड़ा कबूतरों की शक्ल में दुबका बैठा था। बाकी हॉल लगभग खाली था। कोई मारधाड़ वाली फिल्म चल रही थी। पर्दें की हिंसा से किसी को कोई मतलब नहीं था। हॉल में मौन था। वहाँ अँधेरा था। पॉप कार्न हरेक जोड़े के बीच रखा था मगर उसकी जरूरत किसी को न थी। सीट पर बैठते हुए समीर ने चुपके से दीप्ति के कान की लौ चूम ली। दोनों में अब मिट्ठी हो गई।


Image : Couple on the Shore (from the Reinhardt Frieze)
Image Source : WikiArt
Artist : Edvard Munch
Image in Public Domain

ममता कालिया द्वारा भी