निराशा
- 1 April, 2025
शेयर करे close
Share on facebook
Share on twitter
Share on reddit
Share on tumblr
Share on linkedin
शेयर करे close
Share on facebook
Share on twitter
Share on reddit
Share on tumblr
Share on linkedin

शेयर करे close
Share on facebook
Share on twitter
Share on tumblr
Share on linkedin
Share on whatsapp
https://nayidhara.in/kavya-dhara/hindi-kavita-niraasha-by-girijashankar-modi/
- 1 April, 2025
निराशा
हूँ निराशा के क्षणों को
भोगता मैं
अंध कूपों में पड़ा
निर्जन जगत में
अँधेरे में बहुत
गहरा गया हूँ
एक ठूँठा वृक्ष-सा
सून सान टीले पर
अँधेरे में घिरा हो
शब्द सारे प्रतिध्वनित हो
गूँजते हैं बहुत अंदर
ज्यों पहाड़ी प्रांतरों में
शब्द प्रतिगुंजित रहे हैं
बहुत सारी बात मेरी
चाँदनी के शांत मन की
पड़ तूफ़ानों के भँवर में
दुष्ट मन के आदमी के
श्याम बादल खंड में
मिटने लगी हैं
एक दंगा हो रहा
मन के शहर में
सब दुकाने लुट रही
मेरी जहाँ भी
और मैं मृत मीन की
फैली खुली आँखों सा
स्थिर हो गया हूँ
तरकशों की तीर सारी
जड़ पड़ी निष्क्रिय हैं
गोपियाँ सब लुट रहीं
सव्यसाची हतप्रभ है
सारथी बन कृष्ण भी
अब न रहे हैं
निराशा के क्षणों को
भोगने की बात
ऐसी ही रही है।
Image name: Head of a Sick Man
Image Source: WikiArt
Artist: Ernst Ludwig Kirchner
This image is in public domain