निराशा

निराशा

हूँ निराशा के क्षणों को
भोगता मैं
अंध कूपों में पड़ा
निर्जन जगत में
अँधेरे में बहुत
गहरा गया हूँ
एक ठूँठा वृक्ष-सा
सून सान टीले पर
अँधेरे में घिरा हो

शब्द सारे प्रतिध्वनित हो
गूँजते हैं बहुत अंदर
ज्यों पहाड़ी प्रांतरों में
शब्द प्रतिगुंजित रहे हैं

बहुत सारी बात मेरी
चाँदनी के शांत मन की
पड़ तूफ़ानों के भँवर में
दुष्ट मन के आदमी के
श्याम बादल खंड में
मिटने लगी हैं

एक दंगा हो रहा
मन के शहर में
सब दुकाने लुट रही
मेरी जहाँ भी
और मैं मृत मीन की
फैली खुली आँखों सा
स्थिर हो गया हूँ

तरकशों की तीर सारी
जड़ पड़ी निष्क्रिय हैं
गोपियाँ सब लुट रहीं
सव्यसाची हतप्रभ है
सारथी बन कृष्ण भी
अब न रहे हैं

निराशा के क्षणों को
भोगने की बात
ऐसी ही रही है।


Image name: Head of a Sick Man
Image Source: WikiArt
Artist: Ernst Ludwig Kirchner
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