हज़ पर माँ

हज़ पर माँ

बहुत तमन्ना है माँ की
वह जाए हज़ पर
पिछले पाँच-छह साल से
मन मसोसकर रह जाती
याद करती चालीसों दिन

मैं नहीं जुटा पा रहा हिम्मत
कि वह जा पाएगी अकले या
मेरे साथ इतनी दूर
कर पाएगी अरक़ान
पिछले पाँच-छह साल से
लकड़ी के सहारे चल रही है वह
नहीं देख पाती चीजों को ठीक से
हाँफने लगती है दो कदम चलकर

हर साल हज़ के मुबारक महीने में
मक्का-मदीना की ज़ियारत
पैग़म्बर के रोजे का तसब्बुर
जानेवालों की रवानगी की तारीखें
याद करते हुए बुदबुदाती है माँ
देख मुस्तफ़ इस बार जा रहे हैं
सग़ीर भाई
पिछली दफ़ा हो आई हक्की आपा
अरे अल्लाह, पहले न आया ख़याल
ऐसी मति फिरी…

इस साल भी
ख़ानगी के एक दिन
आसमान से गुज़रते
हवाई जहाज़ की आवाज़ सुन
एक दम से फट पड़ी माँ
देख जा रहे हैं जायरीन हज़ के लिए
ज़मा होंगे सब क़ाबेशरीफ की
चारों तरफ
मिलकर करेंगे तवाफ़
गुनाह बख्शने की दुआएँ
अम्न-ओ-अमान के लिए मन्नतें

शैतान के बुत को मारेंगे पत्थर
नेक राह पर चलने के ईरादों के साथ
भरकर लाएँगे आबेज़मज़म
क्या खूब होगा नज़ारा
मैं देख रहा हूँ माँ की पीली आँखों में
हज़ की रंगीन तस्वीर
हिलोरें मारता आबेज़मज़म का चश्मा

पिछले पाँच-छह साल से
शिद्दत से याद कर
शामिल हो रही है माँ हज़ में।


Image : Prayer Around The Sacred Temple Of The Kaâba In Mekka
Image Source : WikiArt
Artist :Nasreddine Dinet
Image in Public Domain