आस्तित्व खोजती स्त्रियाँ

आस्तित्व खोजती स्त्रियाँ

बिना किसी शिकन
बिना किसी उलझन के
लगा कर बालों में करंज का तेल
निकल पड़ती हैं,
अहले-सुबह
कंधे पर प्लास्टिक का थैला लटकाए
खोजने कचरे के डब्बे में अपना अस्तित्व!

उदय से अवसान तक,
अपनी कामनाओं के व्योम में बिना पंख
के निर्बाध उड़ती रहती है
आशा और निराशा के बीच,

फिर शाम ढले
दबा कर मुट्ठी में
कागज के चंद टुकड़ों को
भागती हुई जाती है
पंसारी की दुकान
खरीदती है आटा, चावल, नून और तेल
और लौट आती है अपनी उदास
मुस्कुराहट लिए अपनी झोपड़ी में

सहलाती है भूखे बच्चों को
अपने थके-हारे जाँघों पर बैठा कर

अँधेरी कोठरियों में टूटी खाटों पर पड़ी
बीमार, कफ निकालने में तिलमिलाती
हुई आवाजें
करती है बेसब्री से उसके आने की प्रतीक्षा!

उसकी उदास मुस्कुराहट में छिपी होती है
उसकी झोपड़ी और छप्पर की
कुदरती खुशबू
जो घुल-मिल जाती है चूल्हे के धूएँ में…

पसीने से लथ-पथ उसकी देह
तय करने लगती है
गीली पलकों से
दहकते अंगारों तक की दूरी
और उसकी आत्मा
खदबदाते हुए देगची में
कलछुल चला कर खोजने लगती है
जीवन की सार्थकता को

अलसुबह
फिर निकल पड़ती हैं लगाकर अपने बालों
में करंज का तेल!
खोजने कचरे के डब्बे में अपना अस्तित्व!


Image: women on the bridge
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: edvard munch
Image in Public Domain