बहुत दिन हो गए

बहुत दिन हो गए

बहुत दिन हो गए
कोई लोक-गीत सुने हुए
पगडंडी पर चल कर गाँव गए हुए
बहुत दिन हो गए

मंगल-गान के साथ हवेली में देखना
घर की सजी-बजी औरतों का
मथानी घुमाकर नई दुलहिन का
परिछन करते हुए
बहुत दिन हो गए महानगर गए हुए
लौटती यात्रा में वेटिंग रूम में बैठकर
स्टार-होटल के बिल की पीठ पर
कुछ अच्छी कविताएँ लिखे हुए
बहुत दिन हो गए

रेशमी नगर के अगरू से
सुवासित-सुसज्जित कमरे में
स्वागत के पहले
परमहंस की तस्वीर के नीचे
पूजा में लीन किसी
नगरवधू को देखे हुए
बहुत दिन हो गए

शेर और डिबेंचर के कागजात के सिवा
डाकिया का किसी
रिश्तेदार का खत देकर
बख्शीश माँगते हुए
बहुत दिन हो गए

कोई अच्छा उपन्यास पढ़कर
‘होरी’ और ‘धनिया’ जैसे
पात्र से मिले हुए
या ‘रेखा’ और ‘भुवन’ जैसे
पात्रों की बहस में शामिल हुए
बहुत दिन हो गए

कुछ कहानियों के
सही शीर्षक बदल कर
बेतरतीब शीर्षक देने के लिए
एक बड़े संपादक से
बातचीत में उलझे हुए
बहुत दिन हो गए

पत्नी के
नैहर वाले के खिलाफ बोलकर
उनसे अनबन किए हुए
मेल-मिलाप के बाद
बहुत दिन हो गए
उनसे फिर अनबन किए हुए
बहुत दिन हो गए

उमड़ते-घुमड़ते बादलों को देखकर
मिथिला के नारी कंठ से
बारहमासा गीत सुने हुए
‘जेठ है सखी हेठ बरसा,
साजि चलल जल-धार हे
प्रीति कारण सेतु बाँधल,
सिया उदेश सीरी राम हे’…
असाढ़ हे सखी…