लोक जगत का लड़का

लोक जगत का लड़का

लगभग देहात और लगभग बीहड़ के बीच से
वह लगभग कस्बा आया था
और उसे यह कस्बा
लगभग से आगे बढ़
पूरा का पूरा शहर लगा था

उसकी आँखों में
बल्ब का प्रतिबिंब
असल रोशनी से अधिक जगमगाया
मेज़ पर रखा कंप्यूटर देख स्टीव जॉब्स
या बिल गेट्स भी इतना उत्साहित न हुए होंगे
जितना वह हो गया था न्यौछावर
शीशे पर अक्षरों और चित्रों को उड़ते देख

गाड़ी के इंजन की ध्वनि सुन
उसके भीतर की प्रणालियाँ चल पड़तीं
वह दौड़ता हुआ गेट पर टँग जाता
जब तक गाड़ी न जाती, वह भी न जाता
और समूचे दृश्य में
वह खुद एक गेट हो जाता
जीवन के दो वर्गों के बीच

बोली में पत्थर और पहनावे से धूसर
उसकी आँखों में अचरज नदी की तरह बहता
मिट्टी के मकान से आया वह मिट्टी सा लड़का
हवा की नींव में जड़ों सा फैल जाता
उसकी हँसी में

पगडंडियों पर घूमते टायर जैसा असंतुलन था
डंडे की मार से उड़ी गिल्ली सा उच्छलपन था
चाल में नवजात बछड़े सी फुर्ती थी
बातों में अमर बेल सी जटिलता
गिलहरी सी तेजी जवाबों में
किस्सों में देहाती मसखरी थी
बूढ़ों की खैनी बीड़ी थी
किशोरों की पहल थी
फसलों की सिंचाई थी
त्योहारों के गीत थे
समूचा जगत था आसपास
उसके होने से

नहीं था तो वह स्वयं परिणत
अपने उस लोक को
अपनी दुनिया की खपरैल से
फाँदता आ पहुँचा था
इस दूसरी दुनिया की दहलीज तक
जाना नहीं चाहता था वह वापस
उसकी विनत आँखें तत्पर थीं
हर संभव कोशिश को
करा लेते चाहे जो भी काम
न भी होते वाजिब दाम
बस रहना था उसे
तथाकथित ‘नगर’ में

अंतिम दिन उसकी चाल में
दिखा था अभाव सदियों का
मुड़-मुड़ कर देखता रहा वह
हाय जो रुक न सका!

बेमन लौटी उसकी भंगिमा
अब भी है मेरे भीतर
दौड़ती कूदती हँसती चिल्लाती
कई अबूझ प्रश्न पूछती
फिर कहीं छिप छिप जाती।


Image : O Emigrante
Image Source : WikiArt
Artist : Jose Malhoa
Image in Public Domain