दंभ

दंभ

जब, सूरज निकल रहा था समंदर से
और किरण की डोर प्राची से उतर कर
सकुचाती, सँभलती मूल गति से
नापने चली थी धरा और आकाश को

ठीक उसी समय
सुगंध का एक तेज झोंका आया
और वह बेसुध सी खिंचती चली गई
समंदर की ओर, अब हर दिन
समंदर के करीब जाने लगी थी

कहाँ थी परवाह उसे अपने कल की
जीने लगी थी अपने आज में
आकारहीन मन को
सिंदूर लगाकर पूजने लगी थी

आज वह समुद्र की बाँहों में थी
उसकी आँखों में अजीब-अजीब से
सपने झिलमिलाने लगे थे
सँवारी हुई अलकों की पंक्ति में
ठहरे हुए मोती लाल होते हुए
गालों पर जब गिरने को तैयार थे
उसकी आँखें अपने आप
बंद होती चली गईं
उसके होंठ सूरज की
तपिश में पिघलते चले गए

अपने अस्तित्व से बेखबर
समुद्र के असीम विस्तार में
खोती जा रही थी
डूबती जा रही थी
इस नई अनरीति को जानती थी
उसकी प्रीत को भी पहचानती थी
फिर भी उस बंधन में बँधना
कितना मधुर लगा था उसे

सपनों की इस अनकही भाषा
जिसमें दोनों डूब रहे थे
उस समय उससे सुंदर कुछ भी नहीं था

उसे क्या मालूम था
बीते वक्त की तरह गुम हो जाएगी
समुद्र की लहरों में…और
समुद्र अपने दंभ को समेटे
अपना सत्य स्वयं गढ़ेगा…!


Image: composition cubiste-1917
In valley and distant jan brueghel the elder
Image Source: WikiArt
Artist : auguste herbin
Image in Public Domain