डरे, सहमे, बेजान चेहरे
- 1 August, 2015
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https://nayidhara.in/kavya-dhara/hindi-poem-about-dare-sahme-bejan-chehare-by-tejendra-sharma/
- 1 August, 2015
डरे, सहमे, बेजान चेहरे
अपनी चारों ओर
निगाह दौड़ाता हूँ,
तो डरे, सहमे, बेजान चेहरे पाता हूँ।
डूबे हैं गहरी सोच में
भयभीत माँ, परेशान पिता
अपने ही बच्चों में देखते हैं
अपने ही संस्कारों की चिता।
जब भाषा को दे दी विदाई
कहाँ से पायें संस्कार
अँग्रेजी भला कैसे ढोए
भारतीय संस्कृति का भार
समस्या खड़ी है मुँह बाए
यहाँ रहें या वापिस गाँव चले जाएँ?
तन यहाँ है, मन वहाँ
त्रिशंकु! अभिशप्त आत्माएँ!
संस्कारों के बीज बोने का
समय था जब,
लक्ष्मी उपार्जन के कार्यों में
व्यस्त रहे तब!
कहावत पुरानी है
बबूल और आम की
लक्ष्मी और सरस्वती की
सुबह और शाम की
सुविधाओं और संस्कृति की लड़ाई
सदियों से है चली आई
यदि पार पाना हो इसके, तो
बुद्धम् शरणम् गच्छामि!
Image : Required Reading
Image Source : WikiArt
Artist : Carl Larsson
Image in Public Domain