पहरुआ

पहरुआ

खेत
पूरी सज-धज के साथ
सामने है
चने ने बदन पर
धारण कर लिए हैं बैंजनी फूल
सरसों ने ओढ़ ली है पीली चूनर
नृत्य को उतारू हैं
पवन की ताल पर
गेहूँ की झिरमिर बालियाँ
उत्सव का ऐसा रोमांचकारी माहौल
परंतु निरपेक्ष है पेमा काका
वह
रात की कड़कड़ाती ठंड में
ताड़ता है रोजड़े
सुबह-सवेरे
बर्फीले पानी में पैर धँसा
करता है पाणत
रोपता है बीजूके
ताकि किसी ‘जनावर’ की
लग न जाय नजर
कैसे हैं बाबूजी?
पूछता है पेमा काका समीप आकर
जैसे आलोचक से
पूछ रहा हो कोई कवि
अपनी रचना के बारे में
मैं आलोचना नहीं कर पाता
दाद देता हूँ, वाह
इस बार भर जाएँगी कोठियाँ
काका के
पपड़ाये होंठों पर
क्षीण सी मुस्कान तैरती है
वह उर्मियों पर
हाथ फिराता है हौले-हौले
जैसे
प्रथम प्रकाशित कृति का
आवरण पृष्ठ हो
एकाएक उसके चेहरे पर
उदास बदली पसर जाती है
‘घर में दानें आए तो जानें
घणा दुस्मण है फसल का
चिड़कलियाँ, टालियाँ
दाह, ओला
ऊँदरा, रोझड़ा
एक से निपटें
दूजो तैयार।’
काका की दर्द भरी आवाज
बेध जाती है
मेरे अंतस को
लगता है
सामने खेत नहीं
देश है और
पेमा काका
सजग पहरुआ।


Image : Fields in the Month of June
Image Source : WikiArt
Artist : Charles-Francois Daubigny
Image in Public Domain