हत्यारों की वापसी

हत्यारों की वापसी

(एक)
वे आएँगे और कत्ल कर देंगे हवाओं को
धरती के थीर पानी को
चूल्हे में जली आग की गर्मी को
आसमान में तैरते बादलों की रवानगी को
खेतों में बीज दबाए मिट्टी की नमी को
और कहेंगे–
‘आजादी! आजादी!!’

जोर-जोर से चिल्लाएँगे वे–
‘इंकलाब! इंकलाब!!’
और दौड़ पड़ेंगे काबुल की सड़कों पर
निहत्थे भीड़ के पीछे–
‘मुल्क! मुल्क!! मुल्क!!!’
की आवाज लगाते

(दो)
उन्हें मालूम है कि भीड़ का होना
इस दुनिया का होना है
भीड़ जो बनती है इस मुल्क में
वतन की लौ
जैसे मशालें जलती हैं धरती के इस कोने में
उन बच्चों की साँसों को दूर तक खींचने के लिए

बंधक नहीं है वे बच्चे और न ही बंधक
है उनकी साँसें
उन्हें नहीं पता कि अगली सुबह
स्कूल की बजती घंटियाँ
और घरों की खिड़कियों को बारूदी धमाकों से रोकते
किताबों के पन्नों की तैरती स्मृतियाँ
ले रही है अब अंतिम साँस

स्कूल का बूढ़ा चौकीदार खोलता है
ज्ञान के दरवाजे
और बंद कर देती है बंदूकें
टन टन की ध्वनियाँ

निकलते घंटे की सनसनाहटों के बीच
सुनाई देती है चीखें

अपनी थरथराती हथेलियों से
टटोलता है धूल में रक्तिम स्मृतियों को
कहीं तो सुखती हुई घासों में
दबी हुई रूह कराहेगी एक दिन कि
चलो, लौट चलें अब घर

(तीन)
यह इंकलाब है दोस्तो, इंकलाब!
इसका भी लिखा जाएगा इतिहास कि
जीवन का गीत गाते एक लोक कलाकार
मारा गया था आँगन की दहलीज पर घिसटकर
कि खिड़की से आती बंदूक की गोलियों ने
छलनी किए थे किताब के कई पन्ने
मिटाई थी तक्षशिला की अनगिनत स्मृतियाँ
कि स्कूल जाती लड़कियों को
भेजा गया था आँगन में
कि मैदानों में फुटबॉल खेलते
बच्चों के हाथों में
पकड़ा दी गई थी बंदूकें
कि हमें आजादी चाहिए! आजादी!!

मुल्क की सड़कों पर
लोकतंत्र से आजादी
किताबखाने से आजादी
लोक में बसी हुई उन धुनों से आजादी
जिन्होंने गाए थे कभी गीत
मुल्क की सरहदों पर
आनेवाले दानिशों के स्वागत के गीत कि
खिलेंगे अब घाटी में भी जन्नत के फूल
बहेगी हवाओं में
साइबेरिया से आई चिड़ियाओं के गीत कि
दुनिया की दूरियाँ अब सिमट रही है
बंदूक की नली अब ठहर गई है

(चार)
कहीं, यह सपना तो नहीं मित्र?
मातृभूमि का गीत गाता एक गायक
मारा गया था उस युद्ध में जिसे उसने कभी लड़ा ही नहीं था
पुरखे बताते हैं कि उसका गीत–
‘मेरी मातृभूमि से बढ़कर कोइ देश नहीं
मुझे अपने देश पर गर्व है
हमारी अंदराबी घाटी बेहद खूबसूरत है
जो हमारे पुरखों की मातृभूमि है’ ने कइयों को सिखाया था कि
मातृभूमि से बढ़कर कोई देश
बड़ा नहीं होता है
और न ही होता है कोई पुरस्कार
आजादी हत्यारी नहीं होती है
और न ही होती है
मुल्क की गुनहगार!

(पाँच)
मित्रो, मुल्क की सरहदें
हुक्मरानों की एक लकीर है
और आजादी
खुदा की एक नेमत है
जिसे हम जीते हैं बार-बार
वैसे ही जैसे खेतों में लहलहाती है
रोज फसलें
और आसमान में उड़ते परिंदे
लाँघते हैं रोज सरहदों की सीमाएँ कि
कहाँ नहीं है हमारा मुल्क?

जहाँ पेड़, वहाँ हमारा देश
जहाँ पानी, वहाँ हमारा परदेश
जहाँ सूरज, वही हमारा घर।


Image : The Scout_ Friends or Foes
Image Source : WikiArt
Artist : Frederic Remington
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देवेंद्र चौबे द्वारा भी