इशिकावा ताकुबोकू की कविताएँ
- 1 June, 2016
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इशिकावा ताकुबोकू की कविताएँ
लघुता में सौंदर्य’ का दर्शन बीसवीं सदी उत्तरार्द्ध में शूमाकर की एक अर्थशास्त्रीय प्रतिपत्ति थी। लेकिन लघुता अथवा आकुंचन का सौंदर्य जापानी काव्य-परंपरा में सातवीं-आठवीं शताब्दी में ही आविर्भूत हो चुका था। हाइकू और टान्का के कणीक रूपाकार में काव्य-बिंबों का अक्षय कोश जापानी काव्य-परंपरा में सदियों से प्रकाशमान रहा है। जापानी कवि इशिकावा ताकुबोकू 1886-1912 ने तो बीसवीं सदी के प्रथम प्रहर में इस प्राचीन काव्य-परंपरा का पुनर्स्थापन आधुनिक संवेदना एवं काव्य-बोध के साथ एक बार फिर एक नए मुहावरे में किया। परंपरागत जापानी काव्य-साँचा ‘टान्का’ में ‘5-7-5-7’ अक्षर विन्यास के रूप में पदों की संरचना होती है, जिसमें भाव और बिंब की एकात्मकता अत्यंत सघन हो जाती है और जैसा इस प्राचीन काव्य-विधा के नाम ‘टान्का’ से अभिहित होता है, एक चमकते मोती या नग की तरह एक चित्र कल्पना में टंक जाता है। इशिकावा की एक ‘टान्का’ कविता इसका उदाहरण है। मूल जापानी ‘टान्का’ के शब्दों–
‘तोकाइ नो
कोजिमा नो इसो नो
शिरासुना नी
वारे नाकिनुरेते
कानि तो तावामुरु’
का हिंदी में कुछ उसी लहजे में अनुवाद है–
‘सागर के तोकाइ तट से हटकर
छोटे टापू के पथरीले किनारे
सफेद बालू पर
आँसुओं से भींगा
मैं खेल रहा हूँ एक केंकड़े से।’
जापानी काव्य-रूप ‘हाइकू’ भी जापानी काव्य का एक ऐसा ही लघुकृत रूप है जिसमें ऐसे ही लघु-शिल्प का प्रयोग होता है। आधुनिक हिंदी कविता में भी ‘हाइकू’ कविताएँ खूब लिखी गई हैं, लेकिन इन दोनों ही प्रकार की लघु रूपाकार वाली कविताएँ शायद जापानी भाषा एवं उसकी विशिष्ट चित्रात्मक लिपि से नैसर्गिक रूप से उत्पन्न होती हैं, और किसी अन्य भाषा-लिपि में उनका अनुकरण उस काव्य-रूप के प्रति न्याय नहीं कर पाता। इशिकावा ने ‘टान्का’ के इस पुराने साँचे में काव्य-बिंबों के छोटे-छोटे नए आधुनिक नगीने प्रस्तुत किए हैं, जिसके कुछ बेमिसाल नमूनों की एक झलक भर यहाँ देखी जा सकती है।
इशिकावा का जीवन अँग्रेजी के रोमांटिक कवियों–कीट्स और शेली जैसा ही अल्पायु था। जीवन-संघर्ष तो और कठिन और संकटग्रस्त रहा। पढ़ाई अधूरी रह गई और स्वाध्याय से ही उसने जापानी एवं पाश्चात्य साहित्य का गहरा अध्ययन किया। जीवन-यापन का जरिया अखबारनवीसी और प्रूफ-रीडिंग रहा और कीट्स की तरह ही तपेदिक से उसका त्रासद अंत हुआ। प्रारंभ में जापानी रूमानी काव्य-परंपरा के साथ ही वह प्रकृतिवादी कविता की ओर आगे बढ़ा लेकिन शीघ्र ही उसकी कविता सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों के चौड़े रास्ते पर चलने लगी। उसका पहला 551 ‘टान्का’ कविताओं वाला महत्त्वपूर्ण काव्य संकलन–‘एक मुट्ठी रेत’ 1910 में प्रकाशित हुआ, जिसमें ‘टान्का’ के परंपरागत काव्य-साँचे में इशिकावा ने एक तल्ख बौद्धिकता एवं गहरी आधुनिक संवेदना भर दी और उस नवीकृत ‘टान्का’ काव्य की स्फूर्ति और ऊर्जा ने तत्कालीन जापानी साहित्य-जगत में उसकी धूम मचा दी। उसके संघर्षमय जीवन की डायरी ‘रोमाजी डायरी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई जिसे उसने रोमन अक्षरों में लिखा था, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी उसके जीवन की करुण व्यथा-कथा उसकी डायरी में पढ़ सके। जीवन के अंतिम वर्ष में उसकी समकालीन कविताओं का एक संकलन ‘सीटी और बाँसुरी’ प्रकाशित हुआ है जिसमें उसकी समाजवादी-अराजकवादी विचारधारा की कविताएँ संगृहीत हुई थीं। उसका अंतिम काव्य संकलन ‘उदास खिलौना’ 1912 में ही उसके देहांत के बाद प्रकाशित हुआ। यहाँ प्रस्तुत है उनकी ‘टान्का’ तथा कुछ अन्य कविताएँ।
पंद्रह ‘कणीक’ कविताएँ
- कितनी दूर है आकाश मेरे गाँव का,
मीनार पर अकेले चढ़कर
उतर रहा मैं उसाँस भरते। - कीमती किसी नग-सा स्वच्छ और उद्भासित
नवयुवक कुछ सोचता है यह
पतझड़ जैसे-जैसे पास आ रहा होता है। - बोझिल है अवसाद से पतझड़ की हवा सचमुच
मैं कब रोता हूँ–पर आज ये आँसू थमते नहीं
ढुलकते आते हैं गोलों पर अविरत। - सुन रहा मैं सर टिकाये
बेशकीमत अवसाद के पारदर्शी नीलम पत्थर पर
चीड़-पत्तों की साँय-साँय, रातभर अकेले। - नानायामा पर्वत पर आरूढ़ देवाधिदेव-से देवदारु वृक्ष को
अंगारा के रंग में रंगता डूब चुका सूरज
और कैसी नीरवता फैल गई है। - धीर-गंभीर और महान मस्तिष्क वाले थे ये आर्ष-पुरुष
जिन्होंने भस्म कर डाले थे
पाठकों को विषाद से भरने वाले वे सारे ग्रंथ। - डूब चुका है सब कुछ चारों ओर अंधकार में
और अवसाद का यह दिन
घटनाओं से भरा हुआ, चला गया यों ही व्यर्थ। - झिलमिला रहीं सरोवर-जल में
संध्याकाश के बादलों की सिंदूरी किनारियाँ
पतझड़ की बारिश के बाद। - पतझड़ का आना जैसे धुल जाना, स्वच्छ हो जाना
मेरे हृदय का सभी विचारों और भावों का
पूरी तरह नवीन हो जाना। - मन पर अवसाद का बोझ लादे मैं चढ़ आया पहाड़ी पर
जहाँ मिली एक छोटी-सी चिड़िया–अनाम,
नागफनी के लाल टेस फूल टूँगती। - बहती आती हवा पतझड़ के चौराहे पर
और मुड़ जाती जिधर जाती है तीन राहें
पर मुझे नहीं मालूम–किधर। - मेरे कानों में आते हैं पतझड़ के गीत–
ऐसा ही स्वभाव है मेरा–और मेरा यह स्वभाव ही
सबके दु:ख का सबब है। - गोकि मेरी आँखें अभ्यस्त हैं इस पहाड़ से,
मैं देखता हूँ इसकी ओर जब पतझड़ आता है,
और सोचता हूँ जरूर इस पर कोई देवता बसता है। - जो भी मुझे करना चाहिए दुनिया में वह सब हो चुका है
और इसी तरह एक लंबा दिन बिताता हूँ मैं
सोचते हुए उदास बस इधर-उधर की बातें। - टप-टिप टप-टिप गिरती हैं बारिश की बूँदें
भिंगा देती हैं बगिया की सारी धरती–
उसे देखता हूँ और भूल जाता हूँ मैं अपने आँसू।Image: Pink Roses in a Japanese Vase
Image Source: WikiArt
Artist : Samuel Peploe
Image in Public Domain