कहीं तो सच है
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- 1 October, 2016
कहीं तो सच है
बीच राह में तब…
ऐसी ठोकर लगी कि
मेरे पाँव से रिसते रक्त की बूँदे,
रेत पर धँसती चली गई
और इस रक्त की गंध उड़कर–
आसमान में फैल गई
तब शायद्…मैं उस
आसमान को निहारना भूल गई थी
क्योंकि उसका रंग
अब मटमैला जो हो गया था
नदी की लहरों ने मेरा साथ
छोड़ दिया था;
हवा ताजा न रही थी;
फूलों की रंगत उड़ गई थी;
दिशाओं ने चुप्पी साध ली थी;
तितलियाँ नजरें चुराने लगी थीं;
चिड़िया-कबूतर मुझसे नाराज हो गए थे;
झिंगुरों ने शोर मचाना बंद कर दिया था;
जुगनू टिमटिमाना भूल गए थे;
रातें भयानक थीं;
दिन में भी अमा का अँधेरा था;
उत्सव के दिन मातम का सा सन्नाटा था
कि–सारे दीपक बुझ गए थे
मालाएँ टूट गई थीं;
तालाब सूख गए थे;
बंजर खेतों में चीलें मँडराती थीं;
पीपल के हरे पत्ते स्वतः ही झड़ गए थे;
हवा जहरीली सी थी;
मेंह के स्पर्श में इत्र की महक नहीं थी
अब–
वो गुफानुमा झाड़ियाँ भी नहीं रही थी,
जहाँ कभी मैं…
ईटों का मंदिर बनाया करती थी!
लेकिन! अब वो सब कुछ…
–पुनः लौट आया है मेरे पास
क्योंकि–
मेरा प्यार कहीं तो सच है।
Image : Arrangement in Yellow and Grey
Image Source : WikiArt
Artist :James McNeill Whistler
Image in Public Domain