अकेले आदमी की लौ
- 1 December, 2016
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 December, 2016
अकेले आदमी की लौ
धरती के एक ओर-छोर तक
जहाँ से गुज़रे हैं हमारे पाँव
हर जगह एक ही जैसी बोली जाती है
रोटी की भाषा।
एक ही जैसी भाषा में छूटती है बंदूकें
और सारा बाज़ार आँखों-आँखों में कुछ कहकर
गली में गुम हो जाता है।
फिर शाम
अपनी नर्म उँगलियों से
छेड़ती है सितार…
और दुनिया के सारे पिता
अपने बच्चों में
उनके हिस्से का डर बाँटने लगते हैं।
तुम सात समंदर पार से भी
जान सकते हो
कि कल रात मुझे अपने पुरखों से
विरासत में क्या मिली होगी!
इस बारे में
कोई नहीं लड़ सकता मुझसे
भाषा और धर्म की लड़ाई।
हज़ारों मील दूर
तुम किसी भी भूखंड के वासी–
जब भी छुओगे मेरा हाथ
काँप जाओगे कि जैसे अपने सहोदर के
जलते हाथ छू रहे हो।
जहाँ भी धरती पर छूटती है बंदूकें
जहाँ ये पिता
अपने बच्चों में डर बाँटते हैं–
वहीं सड़क के किनारे
किसी जाने-पहचाने मकान में
कोई एक शख्स
ढूँढ़ रहा होगा माचिस की तीली।
जब भी चलती है तेज आँधी
हरहराता है तूफान–
लोग दौड़कर
अपने दरवाजे बंद कर लेते हैं…
अकेला वही आदमी
निकलेगा उस तूफान में
टिमटिमाती हुई मोमबत्ती लेकर
कि जाने इस दहशत में
कोई अपना घर भूल गया हो…!
फिर धीरे-धीरे
बाहर आवाजें थम जाएँगी
जम जाएगी घरों के भीतर
यह दुनिया शिलाखंड-सी…
मगर वह आदमी अकेला तब भी
रास्तों पर चल रहा होगा।
वह गल रहा होगा
हर लौ में सोये वक्त को जगाता हुआ।
तुम नहीं कह सकते
कि बंदूकों ने
आदमी की लौ छीन ली है।
Image : Study of a Man
Image Source : WikiArt
Artist :El Greco
Image in Public Domain