प्रेम

प्रेम

ईर्ष्या की आँच में
जल रही है संसृति।
हाँ इसी तरह
जलते-जलते एक दिन
पूरी सृष्टि जल जाएगी।
सब समाप्त हो जाएगा
फिर ना कोई ‘मैं’
और न कोई ‘तुम’
सभी मिलकर एक हो जाएगा
सिर्फ आग ही आग।

मैं सोचती हूँ
‘प्रेम’ के ढाई आखर को
अंकित करवा दूँ
इस सृष्टि के विनाश से पहले
हर एक के मस्तिष्क में।
और प्रेम रूपी मशाल जलाकर
एक दौड़ करवा दूँ।
एक ऐसी दौड़
जो आँधियों से ना बुझे
तूफानों से लड़ते हुए
सतत् अग्रसर रहें।
और अचानक से प्रेममय हो जाएँ
पूरा ब्रह्मांड।
वृक्षों की कतार से,
पक्षियों के कलरव से,
सिर्फ एक ही स्वर सुनाई दे
प्रेम! प्रेम! प्रेम!


Image : Noon
Image Source : WikiArt
Artist : George Henry
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